हम खिलौनों की ख़ातिर तरसते रहे
चाँद शुक्ला 'हदियाबादी'हम खिलौनों की ख़ातिर तरसते रहे
चुटकिओं से ही अक्सर बहलते रहे
चार सू थी हमारे बस आलूदगी
अपने आँगन में गुन्चे लहकते रहे
कितना खौफ़ आज़मा था ज़माने का डर
उनसे अक्सर ही छुप छुप के मिलते रहे
ख़्वाहीशें थीं अधूरी न पूरी हुईं
चंद अरमां थे दिल मैं मचलते रहे
उनकी जुल्फें परीशां जो देखा किये
कुछ भी कर न सके हाथ मलते रहे
चाँद न जाने कैसे कहाँ खो गया
चाँदनी को ही बस हम तरसते रहे
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