तुमने मुझे
कभी तो चाहा होता,
सराहा होता।
एक शहर में ही
रहते नहीं
अलग -अलग से,
भोली भूलें थीं
माना मेरी भी कहीं,
पर तुम्हारे?
अक्षम्य अपराध
भ्रम-सर्पों के
मन के पाताल में
पालते रहे
जो हर पल दिल
सालते रहे।
दे गये नेह-पीड़ा,
उलाहनों के
तेरे दिये वो दंश,
यूँ मुझमें भी
समा गया आखिर
विष का अंश।
फिर भी यह मन
तुझमे खोया,
चाहे टूटा या रोया
एक ही आस
भर देती है श्वास
गाते अधर-
ज़हर को ज़हर
करेगा बेअसर।

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