छाले

राजू पाण्डेय (अंक: 159, जुलाई प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

आपदा में अपने घरों की तरफ़
पैदल ही चल पड़े लाखों क़दम
पैरों में पड़े छालो की आवाज़
आख़िर पहुँच ही गयी
कुछ घड़ी के लिए ही सही
न्यूज़ रूम्स और सत्ता की कुर्सी तक...

 

हाँ ! छाले तो वो भी थे
जिनका एक सतत प्रक्रिया में
बनना और फूटना जारी रहता था
आमा, ईजा, काखी,
बोज्यू और दीदी के हाथों में
चक्की में गेहूँ, मड़वा पीसना हो
या ओखली में धान कूटने हों


हथेली से ऊपर और
उँगलियों की जड़ वाला हिस्सा
अलग ही तरह से मोटा हो जाता था
छालों के फूट-फूट कर चिपक जाने से
आमा, ईजा, काखी फूँक मार देते थे
मुस्कुराते, एक दूसरे के छालों में
मानो सब देव मंत्र जानते हो छालों का


गर्म रोटी छू लेती
चूल्हे में रोटी पलटते कभी-कभार
ईजा के हाथ में बने फफोलों को
दर्द छुपाने का जतन करती
ईजा समेट लेती दर्द मुस्कराहट में
हमें ढाढ़स बढ़ाते कहती
ये कुछ नहीं है पुता, लगा रहता है
तुम अपनी पढ़ाई में ध्यान दो


लकड़ी फाड़ते पापा के छाले
अब मज़बूत हो गए थे
शेर दा के कंधे भी अलग परत लग गयी
पत्थर ढो-ढो कर, छालों से
बड़ी हो रही बेटी की शादी की चिंता
बच्चों को आगे पढ़ाने की जगह
मजबूरी में काम में लगाना
परिवार में कोई बीमार हो और
बिना इलाज के तड़पते मरते देखना
मन में भी पड़ते जा रहे थे छाले
हाथ, पैर और कन्धों के साथ


हाथों, पैरों और कांधे में लगे छाले
वक़्त से मज़बूत होते गये
और यदाकदा दिखते भी रहे  
सत्तासीनों और सत्ता के लालायितों को
मन के छाले अदृश्य ही रहे
निरंतर फफोले बनते रहे फूटते रहे
और कचोटते रहे, कचोटते रहे 

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