बालियाँ
सौरभ मिश्रागुज़रते हुए
सुनहली बालियों से
गेहूँ की
मुझे याद हो आईं
तुम्हारे कान की बालियाँ
उनकी छुअन से
उँगलियों में जगी गुदगुदाहट
और महक से मन में जगी
मिठास,
याद दिला गईं
तुम्हारे हाथों से आकार पाईं
रोटियों का स्वाद,
आग की गोद से छीनकर
रोटी
मुझे परोसते हुए
दबे मन से, तुमने
चाही थी बालियाँ
ये असंख्य
सोनमयी पकी बालियाँ
मुझे दे रही हैं विश्वास
किसी साँझ
मुट्ठी में दबाए
दो बालियाँ
लौटूँगा तुम्हारे पास।