अम्बर धरती ऊपर नीचे आग बरसती तकता हूँ
चाँद शुक्ला 'हदियाबादी'अम्बर धरती ऊपर नीचे आग बरसती तकता हूँ
सोच रहें हैं दुनिया वाले फिर भी कैसे ज़िंदा हूँ
मैंने खुशियाँ बेच के सारी दर्द ख़रीदे हैं यारो
अपनी इस दौलत के सदके मैं पहचाना जाता हूँ
मेरे जैसा ज़िंदादिल भी होगा कौन ज़माने में
ख़ुद को दिल का रोग लगा के हरदम हँसता रहता हूँ
जिन से मट्टी का रिश्ता है क्यो वोह धूल उड़ाते हैं
जो हैं मेरी जान के दुश्मन में तो उनका अपना हूँ
जब से मौत क़रीब से देखी है मैंने इन आँखों से
चाप किसी के क़दमों की मैं हर दम सुनता रहता हूँ
एक बुलबुला हूँ पानी का और मेरी औक़ात है क्या
जानता हूँ मैं वक़्त के हाथों एक बेजान खिलौना हूँ
जिसने गहरे अँधिआरे के आगे सीना ताना है
मैं अँधेरी रात मैं रोशान तन्हा "चाँद" का टुकड़ा हूँ
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