अंतर्राष्ट्रीय महिला साहित्य समागम में साहित्य और भाषा पर वैश्विक चिंतन सफल

10 Jun, 2022

अंतर्राष्ट्रीय महिला साहित्य समागम में साहित्य और भाषा पर वैश्विक चिंतन

अंतर्राष्ट्रीय महिला साहित्य समागम में साहित्य और भाषा पर वैश्विक चिंतन सफल

किसी भी संगोष्ठी का उद्देश्य उस विषय अथवा आयोजित शीर्षक पर नवीन तथ्यों पर विचार विमर्श करते हुए संवाद की प्रक्रिया के साथ प्रकाश डालना होता है। संगोष्ठी के माध्यम से साहित्य की प्रगति का वातावरण निर्मित होता है जिसमें विभिन्न भाषा और साहित्य के विषयों के प्रति एक नये दृष्टिकोण का प्रादुर्भाव होता है। यह संवाद की प्रक्रिया किसी नए विचार, विचारधारा अथवा अवधारणा की आधारशिला बनती है जिससे साहित्य का विस्तार होता है। इन्हीं उद्देश्यों के साथ विगत 14-15 मई 2022 को वामा साहित्य मंच और घमासान डॉट कॉम के तत्वावधान में अभय प्रशाल इंदौर में अंतरराष्ट्रीय महिला साहित्य समागम का आयोजन किया गया। 

विविध सत्रों में हिंदी की स्थिति, अपेक्षाएँ, भविष्य का पथ और नवीन तकनीक से जुड़ाव, रोज़गार आदि की संभावनाओं के मध्य भाषा की विधागत स्थिति पर चिंतन मनन करते हुए, इस आयोजन को विविध सत्रों में विभाजित किया गया था। 

प्रथम सत्र उद्घाटन सत्र में मुख्य अथिति व अध्यक्ष वरिष्ठ साहित्यिकार सूर्यबालाजी व विशेष अतिथि डॉ. राजकुमारी गौतम उपस्थित थीं, सत्र का विषय था “हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार में तकनीक की भूमिका।” 

अपने उद्बोधन में राजकुमारी गौतम जी ने तकनीक, भाषा, विदेश में अन्य भाषाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन के तकनीकी पक्ष व भविष्य में उसका उपयोग कर हिंदी के भविष्य पर बात की। उन्होंने कहा कि भारत, जापान एवं यूरोपीय संघ में भारतीय भाषाओं, संस्कृति के प्रचार-प्रसार व शोध में सहयोग देने का कार्य चल रहा है इसके अलावा भारत की संस्कृति में इच्छुक लोगों को एक दूसरे से जोड़ने का एवं यूरोपीय संघ के विश्वविद्यालयों में तकनीकी सहयोग देने का कार्य भी रिसर्च फ़ॉउंडेशन के माध्यम से किया जाता है। 

अध्यक्ष डॉ. सूर्यबाला ने कहा कि स्त्री को आक्रामकता न दिखाकर बुराई के विरोध में होना चाहिए, कोई आपसे अपने मन के विचार लिखवा ले, आप दूसरे के हाथ की कठपुतली बनकर नहीं लिखना है, हमें वो लिखना है जो हमारा मन है। उन्होंने कहा कोई विषय अश्लील नहीं होता, अश्लील होता है उसे प्रस्तुत करने का तरीक़ा। नई पीढ़ी लिखने में पढ़ने और अपने मन का रचने के लिए स्वतंत्र है किन्तु विषय चयन विध्वंसक न हो। सृजन ही साहित्य की पहली परिभाषा है, ख़ूब पढ़ें, ख़ूब लिखें, नया रचें। 

स्त्री लेखन को कम महत्त्व दिए जाने के बावजूद एक दमदार उपस्थित स्त्री लेखन की रही है, जिसमें उदार पाठक है संपादकों का योगदान है। इस सत्र में वामा साहित्य मंच की पत्रिका शब्द समागम, पद्मा राजेन्द्र, सुषमा चौधरी व चित्रा जैन की पुस्तक का विमोचन भी हुआ। 

विनीता शर्मा को उनके योग व शोभा प्रजापति को संस्कृत भाषा में उनके योगदान पर सम्मानित किया गया। 

स्वागत उद्वोधन समागम चेयर पर्सन पद्मा राजेन्द्र ने दिया, वार्षिक रपट का वाचन ज्योति जैन द्वारा किया गया। सत्र का संचालन गरिमा संजय दुबे ने किया। 

द्वितीय सत्र का विषय था “प्रवासी और मुख्यधारा साहित्य के मध्य मैत्री सेतु”।

विषय की प्रस्तावना रखते हुए चर्चाकार पद्मा राजेंद्र ने कहा कि प्रवासी साहित्य का सम्बन्ध प्रवासी लोगों के द्वारा लिखित साहित्य से है। सवाल यह है कि यह प्रवासी लोग कौन हैं और इनके साहित्य की विशेषता अथवा सुंदरता क्या है और किस तरह वह सेतु के रूप में काम कर रहा है! प्रवासी विमर्श की विशेषता यह है कि इसके अंतर्गत रचनात्मक साहित्य अधिक लिखा गया है और यह लेखन एक सांस्कृतिक सेतु की तरह है प्रवासी साहित्य वर्तमान दशा, संभावनाएँ, भारतीय साहित्य की मुख्यधारा में प्रवासी साहित्य का समावेश कई बातों को ओर इंगित करता है। प्रवासी हिंदी साहित्य के अंतर्गत कविताएँ, उपन्यास, कहानियाँ, नाटक, एकांकी, महाकाव्य, खंडकाव्य, अनूदित साहित्य, यात्रा वर्णन आदि का सृजन हुआ है इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के द्वारा नीति, मूल्य, मिथक, इतिहास, सभ्यता के माध्यम से भारतीयता को सुरक्षित रखा है यह सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण बात है। प्रवासी साहित्य से हमें अपने देश की ख़ुश्बू मिलती है उन्होंने अनेक प्रवासी साहित्यकारों द्वारा लिखे गए साहित्य का उल्लेख किया। 

प्रवासी साहित्य के बीच सेतु विषय पर बोलते हुए डॉ. प्रतिभा कटियार ने कहा कि आज का दौर ऐसा है जिसमें सभी स्त्रियाँ प्रवासी हो गई हैं और यहाँ तक की मज़दूर भी प्रवासी हैं लेकिन इसके बावजूद जो बाहर के देशों में रह रहे हैं और लिख रहे हैं वे भारतीय संस्कृति के साथ-साथ उन देशों की संस्कृति से भी जुड़ गए हैं। यही वजह है कि उनके लेखन में विविधता झलकती है। दो देशों की संस्कृति के बारे में जब हम पढ़ते हैं तो हमें नवीनता का आभास होता है। प्रतिभा कटियार ने आगे कहा, कि भारत में जो लड़ाइयाँ लड़ी जा रही है क्या उन्हें प्रवासी साहित्यकार अपने लेखन में ला रहे हैं! यह भी हमें देखना होगा। उन्होंने कहा कि भारत में स्त्री को जिन स्थितियों का सामना करना पड़ता है क्या अमेरिका की स्त्री भी उन स्थितियों का सामना कर रही है इन सब को भी देखना होगा। 

प्रवासी साहित्य का सेतु इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है इसके माध्यम से विदेश की ख़ुश्बू हमारे देश आती है और हमारे देश की ख़ुश्बू वहाँ तक पहुँचती है उन्होंने बताया कि विदेश में रह रहे साहित्यकारों ने वहाँ की स्त्रियों के दर्द को भी व्यक्त किया है। महिला लेखन ने बहुत संघर्षों के बाद आज अपने लिए ख़ुद ज़मीन बनाई उन्होंने कहा कि महिला लेखन को पहले दोयम दर्जे का समझा जाता था लेकिन धीरे-धीरे महिला लेखन ने ख़ुद अपनी ज़मीन तैयार की। 

सिंगापुर से पधारी प्रसिद्ध लेखिका शार्दूला नोगजा ने कहा कि प्रवासी साहित्यकार जब भारत के बारे में लिखते हैं तो क्या सचमुच उसमें भारत के संघर्ष से उभर कर आते हैं! उन्होंने कहा कि भारत में रहने वाले बहुत कम ऐसे लोग हैं जिन्होंने प्रवासी साहित्यकारों की किताबें पढ़ी हैं, ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को प्रवासी साहित्य पढ़ना चाहिए तभी प्रवासी साहित्य मुख्यधारा में शामिल में हो पाएगा। हालाँकि आधुनिक टेक्नॉलोजी के माध्यम से भारत के लोग प्रवासी साहित्य से जुड़ गए हैं उन्होंने बताया कि उन्होंने एक समूह बनाया है “हिंदी से प्यार है” इसके माध्यम से हम लोग लेखकों को जोड़ने का काम कर रहे हैं उन्होंने कहा कि सेतु बनाने के लिए चर्चा और विमर्श के साथ ही और भी प्रयास करना चाहिए। इस विषय पर डॉ. शोभा जैन ने शोध पत्र वाचन किया और सत्र का संचालन बबीता कड़ाकिया ने किया।

तृतीय सत्र “स्त्री अस्मिता, अदम्य जिजीविषा के संघर्ष एवं स्त्री लेखन ” विषय पर केंद्रित था इस विषय पर तीन वरिष्ठ लेखिका द्वारा परिचर्चा की गई। 

वरिष्ठ लेखिका ज्योति जैन ने अपने सारगर्भित उद्बोधन को, मैं कर सकती हूँ, मैं करूँगी, मैं कुछ बनकर ही रहूँगी प्रण लेती हूँ इन पंक्तियों से प्रारंभ किया। आपने नारी सशक्तिकरण पर यह कहा कि शिक्षा प्राप्त करना या आत्मनिर्भर हो जाना ही सशक्त होना नहीं है। उसके निर्णय लेने की क्षमता ही उसका सशक्त होना है। आज हिन्दी में साहित्य भी समृद्ध है और स्त्री लेखन भी। ज्योति जैन ने अपनी लघुकथाओं के माध्यम से बताया कि किस तरह से उनके पात्र अपने जीवन को जीने के लिए संघर्ष करते हैं उन्होंने कहा कि आज का महिला लेखन वास्तव में बहुत सार्थकता साबित कर रहा है। 

स्त्री अस्मिता को लेकर प्रसिद्ध लेखिका जया सरकार ने कहा कि अहिल्याबाई से लेकर मंडन मिश्र की पत्नी तक ने स्त्री अस्मिता और स्त्री की गरिमा को समय-समय पर साबित किया है उन्होंने कहा कि गंगूबाई काठियावाड़ी भी स्त्री अस्मिता का प्रतीक है इस मौक़े पर उन्होंने एक सशक्त कविता भी सुनाई। 

इस कविता में स्त्री के अस्तित्व और उस पर उठते सवालों को रेखांकित किया गया है। उन्होंने कहा कि स्त्री की अस्मिता को समझने के लिए हमें उन पात्रों को भी देखना होगा जिन्होंने संघर्ष का जीवन जिया है। 

स्त्री अस्मिता को लेकर अपने विचार रखते हुए वरिष्ठ लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ ने कहा कि अब हमें दायरों की आवश्यकता नहीं है। स्त्री विमर्श और पुरुष विमर्श जैसी विभाजन रेखा को तोड़ना होगा। उन्होंने कहा कि बचपन में हमें दायरों में रहना सिखाया जाता था लेकिन मेरा यह कहना है कि स्त्री लेखन किसी का भी मोहताज नहीं है। उन्होंने कहा कि लेखन को कभी भी विभाजित नहीं किया जाना चाहिए उसी तरह से उन्होंने कहा कि उन्हें अभिमन्यु अनत जो कि मारीशस में रहते थे वह कभी प्रवासी नहीं लगे। कहानियों में पात्र सबक़ सिखाते हैं ऐसा ही वास्तविक जीवन में भी होना चाहिए इस मौक़े पर उन्होंने सशक्त कविता का वाचन भी किया पहले कई महिलाएँ पुरुषों के नाम से लेखन करती थीं भारतेंदु की प्रेरणा मल्लिका रही है। स्त्री की जिजीविषा गुलाबों में से काँटे निकाल देती है। पहले महिलाएँ लिखने के बाद उसे आटे के डब्बे में दबा देती थीं लेकिन आज स्त्री लेखन मुखर होकर सामने आया है। लेखिकाओं की पूरी जमात जो कृष्णा सोबती से शुरू होती है उसका सिलसिला आज तक जारी है। आपने अपने वक्तव्य में महादेवी वर्मा एवं सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर नासिरा शर्मा, मन्नू भण्डारी से होते हुए आधुनिक काल की लेखिकाओं के बारे में बताया। 

बीते समय में कैसे लेखिकाओं को संघर्ष करना पड़ता था, उसके बाद समय बदला जिस तरह से मन्नू भण्डारी ने राजनीति को लेकर महाभोज उपन्यास की रचना की वो स्त्री की जिजीविषा एवं अदम्य साहस का परिचय देती है। 

सत्र के अंत में वामा मंच की डॉ. अंजना मिश्र के शोध पत्र का वाचन डॉ. शोभा प्रजापति द्वारा किया गया। सत्र का संचालन मधु टाक द्वारा किया गया। 

चतुर्थ सत्र अप्रचलित विधाएँ जैसे ललित निबंध यात्रा, वृत्तांत, व्यंग्य लेखन इत्यादि पर केंद्रित था। महिला का अकेला यात्रा करना वाक़ई एक रोमांचक अनुभव है। ट्रैवल ब्लॉगर कोपल जैन ने अपने अनुभव बताते हुए कहा कि उन्हें पहले ऐसा लगता था कि महिलाओं के लिए अकेले यात्रा करना सुरक्षित नहीं है। लेकिन पिछले कई वर्षों में उन्हें अनुभव हुआ कि यह बात पूरी तरह से ग़लत है। उन्होंने कहा कि यात्रियों के माध्यम से अलग-अलग देशों की तथा अपने ही देश की संस्कृति को जानने का मौक़ा मिलता है। उन्होंने बताया कि उनका प्रिय देश वियतनाम रहा है जहाँ पर वह वहाँ की संस्कृति को नज़दीक से देख कर बेहद आनंदित हुई। 

प्रसिद्ध व्यंग्य लेखिका समीक्षा तैलंग ने कहा, कि अबू धाबी के कबूतर और भारत के कबूतर में क्या अंतर है इस पर भी मैंने अपने अनुभव लिखे हैं इसलिए मैं कह सकती हूँ कि किसी भी विषय को देखने के लिए दृष्टि चाहिए इसके बाद तो लेखन बहुत आसान हो जाता है। विषय कोई भी हो सकता है सबसे बड़ी बात यह है कि आपकी दृष्टि क्या है? हमारे आस पास बहुत सारी विसंगतियाँ हैं जो लेखन का विषय होती है। महिला व्यंग्यकार के पास सबसे बड़ा काम बाहर की गंदगी का सफ़ाया करना है और उसे समाज के बीच लाना है। इसलिए आज महिला लेखन का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है। 

इस सत्र का संचालन गरिमा मुद्गल ने किया। 

पाँचवाँ सत्र साक्षात्कार का था जिसमें वामा साहित्य मंच की अध्यक्ष अमर चड्ढा ने जम्मू कश्मीर से आई प्रसिद्ध लेखिका क्षमा कौल का साक्षात्कार लिया। क्षमा कौलजी ने साक्षात्कार के उल्लेखनीय प्रश्नों के उत्तर में बताया कि किस तरह से इन्होंने कश्मीर में दमन और अत्याचार का माहौल देखा है। उन्होंने कश्मीरी पंडितों के दर्द की बात बताते हुए कहा कि एक बार प्रसिद्ध लेखक नागार्जुन भी उनके साथ कश्मीर गए थे जहाँ वे 1 महीने रहे इस दौरान उन्होंने भी इस बात को महसूस किया था कि यहाँ पर जो कुछ हो रहा है वह बहुत ग़लत है और उन्होंने इस बात की ज़रूरत को महसूस किया था कि यहाँ पर मज़बूत संगठन होना चाहिए उन्होंने कहा कि पहले हमें चुन-चुन कर नहीं बल्कि तिल-तिल करके मारा जाता था। उन्होंने कहा कि एक लेखक के रूप में उन्होंने महसूस किया है कि कश्मीरी पंडितों के दर्द का कोई अंत नहीं है लेकिन अब जागरूकता आ रही है। 

सांध्यकालीन सत्र “ओपन माइक” में विभिन्न शहरों से पधारी लेखिकाओं ने काव्य प्रस्तुतियाँ दीं। स्थानीय युवाओं ने, नवांकुरों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। इस सत्र का संचालन दिव्या मंडलोई और प्रतिभा जैन ने किया। 

दूसरे दिन की शुरूआत वर्तमान दौर की लोकप्रिय विधा लघुकथा से हुई यह सत्र लघुकथा पाठ पर आधारित था। इस सत्र में देश विदेश से आई लेखिकाओं द्वारा सशक्त लघुकथाओं का पाठ किया गया। सत्र की की मुख्य अतिथि थी वरिष्ठ लेखिका कांता राय और पत्रकार श्रीमती निर्मला भुराडिया। 

सत्र में लेखिकाओं द्वारा सामाजिक विसंगतियों, महिला संघर्ष पर केंद्रित लघुकथाओं का वाचन किया गया। प्रसिद्ध लेखिका कांता राय ने लघुकथा लेखन हेतु मार्गदर्शन किया। उन्होंने कहा कि समाज में एकल परिवार बढ़ते जा रहे हैं इसके कारण भी बहुत सारी परेशानियाँ सामने आ रही है। बुज़ुर्गों को वृद्धाश्रम में रखा जा रहा है, इसकी विसंगतियाँ भी हमें देखने को मिल रही है। उन्होंने कहा कि आज हमारे समाज में जो बदलाव आ रहे हैं उन सब को अभिव्यक्त करती हैं लघुकथाएँ। आपके अनुसार इस सत्र में जितनी भी लघुकथाओं का पाठ किया गया उनमें कहीं न कहीं कुव्यवस्थाओं और समस्याओं का चित्रण हुआ है। 

वरिष्ठ लेखिका निर्मला भुराडिया ने कहा कि लघुकथा को लघु ही होना चाहिए और सबसे बड़ी बात यह है कि उसमें पंच आना चाहिए अभी यह देखने में आता है कि कई लघुकथाएँ लंबी हो जाती हैं लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता कि वह किस उद्देश्य से लिखी गई हैं। इस सत्र का संचालन रूपाली पाटनी और शिरीन भावसार ने किया। 

अंतरराष्ट्रीय समागम के नवे सत्र में हिंदी भाषा और साहित्य की प्रधानता को परिलक्षित किया। यह सत्र मार्गदर्शन सत्र रहा। इस सत्र की मुख्य अतिथि केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली की सहायक निदेशक डॉ. नूतन पांडेय थी। उन्होंने अपने वक्तव्य में बताया की भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने राजभाषा विभाग की स्थापना 14 सितंबर 1949 को की और हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। इसके अनुसार तब से लेकर अब तक हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है इस पखवाड़े में हिंदी भाषा में लेखन कार्य करने वाले लेखकों को राजभाषा हिंदी पुरस्कार, राजभाषा गौरव पुरस्कार से सम्मानित किए जाने का प्रावधान है। यदि आप ज्ञान विज्ञान, योग, पत्रकारिता, मीडिया पर्यावरण पर पुस्तक लिख चुके हैं तो उसे राजभाषा वेबसाइट पर प्रेषित करें। अगर आपकी पुस्तक राजभाषा मापदंडों पर खरी उतरती हैं तो उस पुस्तक को नगद पुरस्कार और राजभाषा गौरव पुरस्कार से सम्मानित किया जा सकता है। उन्होंने हिंदी भाषा में लेखन कार्य से सम्बन्धित सभी सरकारी योजना को विस्तार पूर्वक समझाया। किस तरह सरकारी योजना के माध्यम से लेखक अपने लेख, पांडुलिपियाँ, अनुवाद, शोध पत्र, आलेख और अपनी रचनाओं को त्रैमासिक हिंदी विश्व पत्रिका के माध्यम से प्रचार-प्रसार कर उसे जनमानस तक पहुँचा सकते हैं। अगर आप अच्छे लेखन के पश्चात भी पुस्तक के प्रकाशन में असमर्थ हैं तो केंद्रीय हिंदी निदेशालय प्रकाशन की पांडुलिपि योजना के अंतर्गत ज्ञान विज्ञान मनोविज्ञान, पर्यटन, संस्कृति, धर्म किसी भी विषय में आप अपनी पांडुलिपि का अनुमानित व्यय लिखित में उन्हें प्रेषित कर उसका 80% केंद्र निदेशालय से प्राप्त कर सकते हैं अगर आपकी पांडुलिपि उत्कृष्ट और प्रकाशन हेतु उचित पाई जाती है। साथ ही उन्होंने बताया कि अगर दूसरी भारतीय भाषाओं में आपने अनुवाद कर रखा है तो आप वह भी भेज कर अनुदान राशि प्राप्त कर लाभ उठा सकते हैं। प्राध्यापक व्याख्यानमाला जिसके अंतर्गत विभिन्न विधाओं में आप तीन विश्वविद्यालयों में हिंदी साहित्य में व्याख्यान दे सकती हैं। हिंदी के प्रचार-प्रसार हिंदी की बढ़ती लोकप्रियता ने रोज़गार के नए आयाम उद्घाटित किए हैं। उन्होंने बताया भारत में 800 से ज़्यादा रजिस्टर्ड कंपनियाँ हैं जो हिंदी में अपना कार्य कर रही है। उन्होंने कहा कि हिंदी कि सारी बोलियों को यदि मिला दिया जाए तो हिंदी को विश्व की नंबर एक की बोली माना जा सकता है। हिंदी को विश्व स्तर पर स्वीकार कर लिया गया है और इसकी लोकप्रियता में दिनोंदिन बढ़ोतरी हो रही है। हिंदी सीखने में विश्व के कई देश रुचि ले रहे हैं। हिंदी सीखने के कारण रोज़गार के अवसर भी बढ़ते चले जा रहे हैं। डॉ. नूतन ने हिंदी को को विश्व की भाषा कहते हुए उन्होंने अपनी बात समाप्त की। 
इस सत्र संचालन संगीता परमार ने किया। 

अगला सत्र “अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी की स्थापना वैश्विक अपेक्षाएँ व वर्तमान स्थिति” इस विषय पर केंद्रित था। प्रसिद्ध भाषा सेवी साहित्यकार और अनुवादक अंतरा करवड़े ने कहा कि आज टेक्नॉलोजी का जिस तरीक़े से विस्तार हो रहा है उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि आने वाले समय में एलेक्सा मालवी भाषा में ना केवल बात करने लगेगी बल्कि हमारे द्वारा बोले गए ग़लत शब्दों को सुधार भी देगी। उन्होंने कहा कि टेक्नॉलोजी ने भाषा के विकास का रास्ता खोल दिया है कई ऐसे उपकरण आ गए हैं जिनकी सहायता से सिर्फ़ बोलकर ही टाइप किया जा सकता है इसके अलावा एलेक्सा ने भी हिंदी अँग्रेज़ी अनुवाद के साथ-साथ बहुत सारी जानकारियों को हमारे तक आसानी से पहुँचा दिया है। 

उदयपुर से आई प्रसिद्ध लेखिका रीना मेनारिया ने कहा कि हिंदी भाषा को सम्मान देना ज़रूरी है। घर के बच्चों से भी हमें हिंदी में ही बात करनी चाहिए। विदेशों में जाकर रहने वाले भारतीयों की यही विशेषता है कि भारतीय जहाँ पर भी जाते हैं वह अपनी लोक संस्कृति को नहीं भूलते। 

मॉरीशस से पधारी प्रसिद्ध लेखिका प्रोफ़ेसर डॉक्टर अंजली चिंतामणि ने विश्व में हिंदी की वैश्विक स्थिति और उसके विकास पर चर्चा करते हुए कहा कि भारत से जो भी लोग मॉरीशस सहित विदेशों में गए उन्होंने वहाँ पर हिंदी के विकास के साथ-साथ भारतीय संस्कारों को भी प्रसारित किया है। आपके अनुसार मारीशस में हिंदी संस्थान के माध्यम से हिंदी के विकास का कार्य चल रहा है। हिंदी के विकास के लिए अभी तक 11विश्व हिंदी सम्मेलन हो चुके हैं। मॉरीशस में विश्व हिंदी सचिवालय कार्य कर रहा है लेकिन इसके बावजूद हमें एक सेतु की आवश्यकता है ताकि सामूहिक रूप से कार्य किए जा सकें उन्होंने कहा कि विश्व के 180 विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई कराई जा रही है। 

अगले सत्र का विषय था “भारतीय संस्कृति का बदलता स्वरूप और भाषायी शुचिता”।

इस सत्र में नेपाल से विशेष रूप से पधारी अतिथि केन्द्रीय हिन्दी विभाग, त्रिभुवन विश्वविद्यालय, कीर्तिपुर, काठमांडू, नेपाल की पूर्व विभागाध्यक्ष एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं संपादक डॉ. श्वेता दीप्ति ने अपने उद्बोधन में कहा कि नेटफ्लिक्स का कल्चर हमारी संस्कृति और देश दोनों की बर्बादी कर रहा है। आज के बच्चे जितनी आसानी से गालियाँ सीख रहे हैं वह सब इसी कल्चर की देन है। 

उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति को बचाने के लिए बच्चों को संस्कारित करना होगा। भाषाई शुचिता पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि बच्चों के सीखने की शुरूआत घर से ही होती है इसलिए जो भी वह सीख रहे हैं उस पर हमें ध्यान देना चाहिए। किसी भी भाषा का एक पक्ष नहीं होता। भाषा राजनीति, संस्कृति और पारिवारिक माहौल से निकल कर आती है। बच्चों में भाषा रोपने के लिए उन्हें समय दें, उनसे बात करें और क्वालिटी टाइम दें। उन्हें अपने आप इधर-उधर से सीखने के लिए, समझने के लिए स्वतंत्र ना छोड़ें। उन्होंने परिवार की अवधारणा को बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया। 

सत्र में चर्चाकार, हिंदी एवं मराठी भाषा की लेखिका एवं अनुवादक डॉ. वसुधा गाडगिल ने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हमें भारतीय संस्कृति में निहित मूल्यों को सम्हाल कर रखना चाहिए। आयातित संस्कृति में विदेशी भाषाएँ आईं और हमारी संस्कृति में धीरे से घुल मिल गईं। आयातित उत्पादों के साथ आयातित भाषा ने भी हमारी भाषा में घुसपैठ कर ली जो कि चिंताजनक है। भारतीय संस्कृति और हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में हिंदी सिनेमा और गीतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। तमिल की बाहुबली नामक अनूदित फ़िल्म में शिवतांडव स्तोत्र और संस्कृतनिष्ठ, तत्सम, तद्भव शब्दों से युक्त हिंदी संवादों के माध्यम से युवाओं में सनातन संस्कृति, मानवीय मूल्य और सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार हुआ है जो हिंदी भाषा की सफलता का उत्कृष्ट है। आज मशीनी अनुवाद में भी भाषाई शुचिता को लेकर सजग रहने की ज़रूरत है। उन्होंने भाषाई शुचिता को भिन्न-भिन्न प्रकार के उदाहरणों के साथ अपनी बात बहुत ही रोचक तरीक़े से प्रस्तुत की। 

सत्र के अंत में वैजयंती दाते जी ने विषय पर सारगर्भित शोध पत्र का वाचन किया। कार्यक्रम का सफल संचालन शिवानी जयपुर ने किया। 

आगामी सत्र पुरुष सत्र था इसका विषय “स्त्री लेखन पुरुषों की दृष्टि से” था। इसमें प्रसिद्ध अनुवादक और साहित्यकार डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद मिश्र ने कहा कि कृष्णा सोबती से अमृता प्रीतम तक और उसके पश्चात अनेक लेखिकाओं ने लेखन के माध्यम से स्त्री लेखन की नई इबारत लिखी है और स्त्रियों को लेखन हेतु प्रोत्साहित किया है। स्त्री लेखन की पराकाष्ठा यह है कि अब तक सोलह महिलाओं को नोबेल पुरस्कार मिला है। महिला लेखन का महत्त्व दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार भी कई महिलाओं को मिले हैं, आशापूर्णा देवी को तो 1976 में ही ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका था। महाश्वेता देवी को भी यह पुरस्कार मिल चुका है। नीदरलैंड से पधारे डॉक्टर रामा तक्षक ने कहा कि महिलाओं को जीवन से जुड़े ज्वलंत मुद्दों पर क़लम चलानी चाहिए। उन्होंने कहा की यूक्रेन युद्ध में महिलाओं और बच्चों की जो दुर्दशा हुई है वह वास्तव में शर्मनाक है। 

केंद्रीय हिंदी निदेशालय, दिल्ली के सहायक निदेशक डॉ. दीपक पांडेय ने इस विषय पर उदात्त विचार व्यक्त करते हुए कहा कि प्राचीन काल से आज तक स्त्री लेखन, साहित्य में सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रहा है। साहित्य की समृद्ध परंपरा में स्त्री लेखन के माध्यम से महिलाओं का उल्लेखनीय योगदान रहा है। आपने यह भी कहा की लेखन को दो धाराओं में नहीं बाँटना चाहिए। हमें यह देखना, समझना आवश्यक है कि आज का साहित्य कितना प्रासंगिक और उपयोगी है। समागम के आयोजक राजेश राठौर ने भी महिला लेखन पर विचार रखें।

इस सत्र के मॉडरेटर लेखक विश्वास व्यास थे उन्होंने वर्तमान में स्त्री लेखन पर विचार व्यक्त किए। 

वामा साहित्य मंच, घमासान डॉट काम के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय समागम के अंतिम सत्र में मुख्य अतिथि डॉ. अनुपमा जैन (एडिशनल रिप्रेज़ेंटेटिव संयुक्त अखिल भारतीय शाह बेहराम बग सोसाइटी मुंबई) एवं अध्यक्षता डॉ. नूतन पांडेय (सहायक निदेशक केंद्रीय हिंदी निदेशालय नई दिल्ली) ने की। डॉ. नूतनजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि हिंदी का जैसे-जैसे विकास हो रहा है, उसके साथ ही हिंदी में रोज़गार के अवसर भी बढ़ते जा रहे हैं। जनसंपर्क का कारोबार भी हिंदी के कारण विकसित हो रहा है हिंदी की यही शक्ति उसे दूसरी भाषाओं से अलग करती है। सरकार के कई विभाग हिंदी के विकास को बढ़ावा देने के लिए कार्य कर रहे हैं। हिंदी के सृजन एवं प्रचार-प्रसार हेतु प्रोत्साहित करते हुए विभिन्न वेबसाइट्स की जानकारी दी। आयोजन में लखनऊ से पधारी दिव्यांग लेखिका कंचन सिंह चौहान को अहिल्या शक्ति सम्मान से सम्मानित किया गया। डॉ. अनुपमा जैन-एडिशनल रिप्रेज़ेंटेटिव संयुक्त अखिल भारतीय शाह बेहराम बग सोसाइटी, मुंबई संस्था की ओर से साहित्य और भाषा सेवा तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सफल एवं सुनियोजित संगोष्ठी हेतु वरिष्ठ लेखिका पद्मा राजेंद्र, ज्योति जैन अमर चड्ढा, डॉ. वसुधा गाडगिल एवं अंतरा करवड़े का सम्मान किया। 

घमासान डॉट कॉम की ओर से श्री अर्जुन राठौर जी की गरिमामय उपस्थिति मंच पर रही। समापन सत्र में आभार शिशिर सोमानी एवं समस्त सत्रों का आभार वामा संस्थापक अध्यक्ष पद्मा राजेंद्र ने व्यक्त किया। कार्यक्रम का संचालन प्रीति दुबे ने किया। 

यह अंतरराष्ट्रीय साहित्य समागम विचारों को प्रकट करने का न केवल एक माध्यम बना अपितु वैश्विक समाज, हिंदी भाषा और अन्य भाषाओं को जोड़ने वाला साहित्य संवाद सिद्ध हुआ। इस समागम से साहित्य, भाषा और स्त्री लेखन को नई दिशा मिली। निःसंदेह यहाँ पल्लवित शब्द पुष्प विश्व साहित्य जगत को सुरभित करेंगे। 

– अंतरा करवड़े डॉ. वसुधा गाडगिल। 

अंतर्राष्ट्रीय महिला साहित्य समागम में साहित्य और भाषा पर वैश्विक चिंतन