वो भ्रम

27-09-2017

इंसान सवार है
निश्चित अनिश्चित की नाव पे
अपने पराये के बीच
किस पर विश्वास करे
मुश्किल है कहना
समय का फेर है
सब मुखौटों का खेल है
किसी ने देखा है मुखौटों के पीछे
का वह चेहरा!
है स्नेह या स्वार्थ
एक ने लूटा अब दूसरे की बारी
अंतिम निर्णय है करना
निश्चित या अनिश्चित
अपने या पराये
मुखौटा उतरने दो
भ्रम टूट जाएगा
तब तक निश्चित और अपने जा चुके होंगे
अनिश्चित और पराये
मृगमरीचिका की तरह
दूर से हँसते तुम्हारी नादानी
पे जश्न मनाते
किसी और की तलाश में
नई जगह नई पारी
जहाँ अपने स्वार्थ के लिये
ढूँढ लेंगे तुम्हारे जैसे किसी और को
नये मुखौटो को पहन
पहचान सकते हो, तो बच जाओ
वरना? तैयार रहो
फिर से? उसी भ्रम में!
जीने के लिये?

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें