विनय मिश्र – 001
डॉ. विनय मिश्रइससे ज़्यादा कुछ नहीं, दौलत मेरे पास
मज़हब है इंसानियत, ज़िन्दा है एहसास
रसवर्षा में बह गए, सब निषेध के नेम
मौनं स्वीकृति लक्षणम्, पढ़े सुभाषित प्रेम
रहना चाहे ज़िन्दगी, कल्पवृक्ष की छांँह
सपने हैं आकाश में, मेरी छोटी बाँह
इनसे ही धनवान हूँ, इनके बिन धनहीन
मेरा सब कुछ ले मगर, मुझसे शब्द न छीन
मुट्ठी बंँधती और फिर, उठता इक प्रतिवाद
जब भी कहते ज़िन्दगी, तुझको ज़िंदाबाद
जब से मेरे गांँव का, मुखिया बना बबूल
कांँटों की मर्ज़ी बिना, खिला न कोई फूल
मौला मेरी चाह है, ऐसा हो संसार
सबके होठों पर हँसी, सबके दिल में प्यार
ख़र्च लगाए क़हक़हे, बचत सँभाले चीर
वेतनभोगी ज़िन्दगी, ये तेरी तक़दीर
अपनी धरती छोड़कर, कहीं न जाऊंँ फाँद
बाँहों में भरने मुझे, बुला रहा है चांँद
दिन रूठे संवाद के, सूखी मन की झील
दरक रहे विश्वास की, सुनता कौन अपील
मेरे घर के सामने, कुचल गया मासूम
अगले दिनअखबार से, मुझे हुआ मालूम
रक्षक ही भक्षक हुए, जनता हुई अचेत
दुर्दिन ऐसे आ गए, बाड़ खा रही खेत