वर्तमान समय का तज़क़िरा 'मैं द्रौपदी नहीं हूँ'
प्रवीण प्रणवसमीक्षित पुस्तक: मैं द्रौपदी नहीं हूँ (लघुकथा संग्रह)
रचनाकार: डॉ. रमा द्विवेदी
प्रथम संस्करण: 2023
प्रकाशक: शब्दांकुर प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य: ₹250/$15.00 (हार्ड कवर); ₹200/$12.00 (पेपरबैक)
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‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ लघुकथा संग्रह है, जिसकी लेखिका डॉ. रमा द्विवेदी हैं। संग्रह, शब्दांकुर प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित है (संस्करण 2023, पृष्ठ संख्या 133, कहानियाँ 111, मूल्य ₹250/-हार्डकवर के लिए, मूल्य ₹200/-पेपरबैक के लिए)। संग्रह का शीर्षक आकर्षक है जो पाठकों में मन में एक कौतूहल जगाता है। शीर्षक से ऐसा आभास होता है कि यह स्त्री विमर्श पर आधारित संग्रह है, लेकिन ऐसा नहीं है। इस संग्रह में कई कहानियाँ हैं, जिन्हें स्त्री विमर्श से जोड़ा जा सकता है। लेकिन संग्रह का फ़लक इससे कहीं ज़्यादा है। किताब की छपाई और पेपर की गुणवत्ता अच्छी है। काश, प्रकाशक ने किताब की बाइंडिंग पर थोड़ा ध्यान दिया होता तो बेहतर होता। कहानी पढ़ते समय यदि कहानी के पन्ने किताब से निकल कर, आपके साथ चलने को आतुर हो उठें, तो इसे प्रकाशक की कमज़ोरी कही जाएगी।
संग्रह का शीर्षक, संग्रह की पहली कहानी के शीर्षक से लिया गया है। कहानी की नायिका प्रज्ञा, पढ़ी-लिखी लड़की है। उसकी शादी अच्छे घर में होती है। शादी के बाद पति, पढ़ाई करने दूसरे शहर चला जाता है। इधर उसका देवर, प्रज्ञा के साथ भद्दी हरकतें करता है। वह उसे प्रेम पत्र भी लिखता है। प्रज्ञा जब अपने पति से, अपने देवर की शिकायत करती है, तब उसका पति अपने भाई की ही तरफ़दारी करते हुए कहता है “वह अभी बच्चा है, अगर यह सच भी है, तो क्या हुआ, सब चलता है।” प्रज्ञा के सब्र का बँध टूट जाता है और वह कह उठती है “मैं द्रौपदी नहीं हूँ जो तुम्हारे कहने से दाँव पर लग जाऊँगी। मैं अपने सम्मान की रक्षा स्वयं करूँगी।” संग्रह की पहली कहानी ही इस संग्रह की कहानियों के विषय तय कर देती है। आर्थिक परिस्थितियों की वजह से पति का नौकरी से लिए बाहर जाना और पत्नी का घर रहना, आज भी आम बात है। ऐसे में पति-पत्नी के बीच संबंधों में दूरी और जटिलता होना स्वाभाविक है। संग्रह की कई कहानियाँ इस जटिलता को दर्शाती हैं। समाज में नैतिक मूल्यों का जिस तरह क्षरण हो रहा है, उसकी बानगी आए दिन देखने को मिलती है। स्त्री आज अपने घर की चहारदीवारी के अंदर भी सुरक्षित नहीं। आत्मीय संबंधों के बदलते स्वरूप पर कई कहानियाँ ध्यान आकृष्ट करती हैं। कहानी में जिस तरह स्त्री अपने सम्मान की रक्षा के लिए आवाज़ उठाती है, वह दर्शाता है कि अब स्त्रियाँ ‘गूँगी गुड़िया’ का चरित्र निभाने के लिए तैयार नहीं। कई विषयों को एक साथ उभारने वाली इस कहानी का चयन, शीर्षक के लिए उपयुक्त है। इस किताब की भूमिका में वरिष्ठ साहित्यकार रामकिशोर उपाध्याय लिखते हैं, “मैं द्रौपदी नहीं हूँ, आधुनिक शक्ति संपन्न नारी का उद्घोष है कि आज नारी भोग की वस्तु नहीं है, बल्कि नारी, समाज की स्वतंत्र चेतना संपन्न इकाई है, और इसके सिद्धांत की स्थापना भी है।”
लेखिका डॉ. रमा द्विवेदी, हैदराबाद की वरिष्ठ साहित्यकार हैं, कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि उनके साहित्य जगत से जुड़े कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अनुभव हैं। सम्भव है कि इस संग्रह की कई कहानियों की संरचना में उन अनुभवों ने भूमिका निभाई हो। रामकिशोर उपाध्याय ने भी लिखा है, “लेखिका के निजी अनुभवों और आंतरिक चेतना से प्राप्त स्फुरण भी संकलित लघुकथाओं के सृजन का संभावित स्रोत है। रचना में रचनाकार की उपस्थिति कहीं न कहीं, किसी न किसी पात्र अथवा घटना के माध्यम से अवश्य होती है, इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है; लेकिन रचना साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में पाठकों की सम्पत्ति हो जाती है।”
‘मेरा नाम नहीं, क्यों’ कहानी पढ़ते हुए यशपाल की कहानी ‘अखबार में नाम’ याद आती है जिसमें प्रसिद्धि के लिए कुछ भी करने की ललक दिखाई देती है। वर्तमान समय में साहित्यकारों में भी नाम की भूख देखी गई है। कई लोग किसी कार्यक्रम से जुड़ते ही इस उद्देश्य से हैं कि उनका नाम समाचारपत्रों में आएगा। इस कहानी में इसी मानसिकता पर कटाक्ष है। कहानी में एक महिला, एक साहित्यिक संस्था से पूछती है कि उनके समाचार में उसका नाम हर सत्र के लिए क्यों नहीं लिखा गया। संस्था के समाचार में सिर्फ़ एक बार इस महिला के नाम का उल्लेख है, लेकिन महिला अपना नाम हर सत्र में चाहती है। नाम की चाह में ऑनलाइन आजकल जिस तरह कविता मैराथन करवाए जा रहे हैं जहाँ मल्टी लेवल मार्केटिंग की तरह एक कवि, दूसरे को नामित करता है, ‘सरतार बनिया, नून चबेना’ कहानी कटाक्ष करती है। सोशल मीडिया पर इस तरह की सक्रियता के अपने नुक़्सान भी हैं। ‘चैलेंज’ कहानी सोशल मीडिया पर आए दिनों चलने वाले कपल चैलेंज, सिंगल चैलेंज, लवर चैलेंज जैसे चलन से लोगों को आगाह करती है। इन जैसे पोस्ट से व्यक्तिगत जानकारी के दुरुपयोग से लोगों को सावधान किया गया है।
प्रशंसा पाने के लिए आज साहित्य में लोग किसी भी सीमा तक जा रहे हैं। रचनाओं की चोरी आम बात हो गई है। एक कहानी ‘कविता चोर’ में एक पात्र, दूसरे की कविताओं को चोरी कर, अपने नाम से फ़ेसबुक पर डालती है। पूछने पर वह ‘उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे’ की तरह दूसरों पर ही भड़क जाती है। उसे कोर्ट केस का भी कोई डर नहीं है। कहानी भारत में लचर कॉपीराइट नियमों पर भी कटाक्ष है। एक कहानी ‘प्रशंसा का भूत’ में लेखिका लिखती हैं, “लोग झूठी प्रशंसा से भी इतना ख़ुश हो जाते हैं जैसे नोबेल पुरस्कार मिल गया हो। प्रशंसा पाने के लिए ही तो सैकड़ों लोग अपनी रचना पर टैग कर देते हैं, हालाँकि वे ख़ुद टैग होना पसंद नहीं करते। पर प्रशंसा पाने के लिए वे अपने ही नियम को ताक पर रख देते हैं।” लेखिका ने एक नायाब शब्द भी गढ़ा है ‘टैगीयासुर’ और इसी शीर्षक से एक कहानी लिखी है जो फ़ेसबुक पर किसी भी पोस्ट में अनचाहे लोगों तो टैग करने पर कटाक्ष है।
वर्तमान समय में जिस तरह सोशल मीडिया में कविताओं की बाढ़ आई हुई है, उसमें कई कवि अपने आप को गुरु घोषित किए बैठे हैं और कविता सिखाने की दुकान खोल ली है। इन अधकचरे गुरुओं से, आधा-अधूरा सीखते ही, चेला भी अपने आप को गुरु घोषित कर लेते हैं और अपने लिए नए चेलों की जुगत बिठाने में लग जाते हैं। यह गोरखधंधा यूँ ही चलता रहता है। कहानी ‘लोभी गुरु, लालची चेला’ इसी प्रवृति पर कटाक्ष है। प्रशंसा या नाम कमाने की यह चाह आज एक ऐसी आदत की तरह हो गई है जिससे छुटकारा पाना आसान नहीं। कहानी ‘चुंबक सा आकर्षण‘ हर दिन कई ग्रुप में अपनी रचना डालने पर व्यंग्य है। इसकी वजह पूछने पर कहानी की पात्र प्रतिमा कहती है, “सुकून मिलता है। वाह, वाह, लाजबाव, बहुत ख़ूब आदि पढ़ कर मैं थ्रिल महसूस करती हूँ और हाँ अक़्सर किसी न किसी ग्रुप से सम्मान-पत्र भी तो मिलते रहते हैं। कितनी ख्याति और बधाइयाँ भी तो मिलती हैं।” वह कहती है, “कई बार मैंने सोचा है कि फ़ेसबुक में लिखना सीमित कर दूँ और इस भागदौड़ के जीवन से दूर रहूँ, लेकिन मेरी लाख कोशिश के बाद भी, मैं यहाँ आना बंद नहीं कर पाती। इसमें चुंबक सा आकर्षण है जो हर समय मुझे अपनी ओर खींचता है और मैं चाह कर भी इसे छोड़ नहीं पा रही।” नाम की भूख इतनी बढ़ चुकी है कि ‘मी-टू यश की सीढ़ी’ कहानी में एक महिला साहित्यकार मी-टू विषय पर चर्चा करते हुए कहती है कि “काश, मैं भी ऐसा कर पाती।” वह कहती है “मी-टू तो जैसे यश की सीढ़ी बन गई है जिसमें हर कोई चढ़ने को लालायित है।” इन सारे उपक्रमों और तिकड़मों का साहित्यिक गुणवत्ता पर जो असर पड़ा है उसे रेखांकित करती हुई ‘हर धान रुपये में बाईस पसेरी’ कहानी में लेखिका लिखती हैं, “रचना का उचित मूल्यांकन न होने से ही फ़ेसबुक का साहित्य आत्ममुग्धता के गहरे तिलिस्म में डूब गया है। वाह-वाह ने तो रचनाधर्मिता का बेड़ागर्क कर रखा है।”
साहित्य के नाम पर ठगी को आज कई लोगों ने अपनी आजीविका का साधन बना रखा है। कई संस्थाएँ विदेश यात्रा के नाम पर लोगों से पैसे लेने का काम रही हैं और नाम के भूखे साहित्यकार अपनी मेहनत से कमाई जमा-पूँजी इन संस्थाओं के मठाधीशों के हवाले कर रहे हैं। ‘ठगुआ कवि’ कहानी ऐसे ही आयोजनों पर कटाक्ष है जिसमें कवि को लगता है कि येन-केन-प्रकारेण यदि एक बार विदेश में कविता पढ़ने का मौक़ा मिल जाए, तो उनका सम्मान बढ़ जाएगा। ‘साहित्यिक विदेश यात्रा मुफ़्त’ कहानी, साहित्य के नाम पर विदेश यात्रा के आयोजन पर कटाक्ष है। एक आयोजक, एक महिला साहित्यकार को आठ लाख रुपये में ब्रिटेन के पाँच शहर दिखाने और साहित्यिक सम्मान भी करवाने का ऑफ़र देता है। महिला के यह कहने पर कि उसके पास इतने पैसे नहीं हैं वह ऑफ़र देता है कि आप इस यात्रा के लिए सात लोगों को ले कर आएँ और आपको हम मुफ़्त में ले जाएँगे, सम्मान भी करवाएँगे।
साहित्यिक संस्थाएँ चलाना आसान काम नहीं है। आर्थिक संसाधनों के बिना संस्था चला पाना बहुत मुश्किल है। ‘लक्ष्मी की माया’ कहानी में साहित्यिक संस्था चलाने के गुर बताती हुई एक महिला कहती है, “लक्ष्मी के वाहन धनाढ्य उल्लुओं को पकड़ो, जो कार्यक्रम करने के लिए मोटी धनराशि अनुदान दें। बस उन्हें मंच पर बिठाओ। एक शॉल-माला पहनाओ, दो-चार शब्द में उनके गुण गाओ और दो इंच की मुस्कान दिखाओ। बस मनवांछित फल पाओ।” साहिर ने एक गाना लिखा था, “क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिन की फ़ितरत छुपी रहे। नक़ली चेहरा सामने आए असली सूरत छुपी रहे।” ‘घिनौनी सोच’ एक ऐसी ही कहानी है जिसमें कहानी की पात्र सत्यभामा, एक महिला क्लब का संचालन करती है। वह प्रत्यक्ष तौर पर तो कमज़ोर स्त्रियों को आगे बढ़ाने का ढोंग करती है, भाषण देती है। लेकिन अमीर, और महत्वाकांक्षी औरतों पर उसकी पकड़ अच्छी है जिसकी वजह से वह संस्था चला पाने में सक्षम है। बाहर तो उसकी छवि समाजसेवी की है लेकिन घर में वह एक तेरह-चौदह साल की लड़की को नौकर रखती है, उसके साथ ख़राब व्यवहार करती है।
कुछ कहानियाँ पाठकों को संवेदनात्मक स्तर पर छूती हैं। ‘ग्रीन लाइट’ एक ऐसी ही कहानी है जिसमें फ़ेसबुक पर एक नाम के आगे ग्रीन लाइट दिखता है जबकि इस व्यक्ति की मृत्यु दो वर्ष पहले ही हो चुकी है। सोशल मीडिया के इस दौर में, जहाँ व्यक्तिगत सम्बन्ध कम होते जा रहे हैं और आभासी दुनिया के सम्बन्ध ही महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हैं, यह कहानी दर्शाती है कि हमारे आपसी सम्बन्ध, मशीनीकरण की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। आजकल साहित्य में रचनाओं की बाढ़ आई हुई है, हर दिन न जाने कितनी किताबें प्रकाशित हो रही हैं। ऐसे में हर साहित्यकार चाहता है कि उसकी किताब पर समीक्षक अपनी समीक्षात्मक टिप्पणी लिखें जिससे उसे पाठक-वर्ग में अपनी पहचान बनाने में मदद मिले। लेकिन विडंबना यह है कि साहित्यकार, समीक्षकों से सिर्फ़ अच्छी टिप्पणियाँ ही चाहते हैं, सकारात्मक सुझाव उन्हें परेशान करते हैं। ‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्’ से ‘सत्यं ब्रूयात्’ गौण हो गया है, अपेक्षा सिर्फ़ ‘प्रियं ब्रूयात्’ की है। ‘रिमार्क’ कहानी में एक किताब पर कोई शोध छात्रा शोध करने को तैयार नहीं है क्योंकि उस किताब में बहुत ही खुल्लम-खुल्ला देह विमर्श वर्णित है और उस पर पहले से ही एक वरिष्ठ नामचीन एवं सजग लेखिका ने रेखांकित करने वाला रिमार्क लिख दिया है जो छप कर सार्वजनिक हो गया है।
इस संग्रह की कई कहानियाँ वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर भी कटाक्ष करती हैं। एक पाँच वर्ष का बच्चा अपने दोस्त के घर इसलिए नहीं जाना चाहता कि दोस्त के पास बी.एम.डब्ल्यू. कार है जबकि उसके पास नहीं है। एक स्कूल में पढ़ने वाले दोस्तों के बीच भी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था किस तरह आर्थिक आधार पर दरार पैदा करती है, कहानी दर्शाती है। एक कहानी ‘सज़ा क्यों’ महँगे पब्लिक स्कूल में शिक्षा की गुणवत्ता पर कटाक्ष है। हिंदी की शिक्षिका को शुद्ध हिंदी लिखनी नहीं आती। बच्चे की माँ द्वारा प्रिंसिपल को इसकी शिकायत करने पर वह शिक्षिका, बच्चे को ही क्लास में सज़ा देती है। स्थिति सिर्फ़ बच्चों की शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। उच्च शिक्षा में भी धांधली व्याप्त है। ‘मानद उपाधि’ कहानी पैसे ले कर डी लिट की मानद उपाधि देने पर व्यंग्य है। ‘धंधा’ कहानी पैसे ले कर पीएच. डी. की थीसिस लिखने पर कटाक्ष है। ‘शिक्षा शिरोमणि’ कहानी पैसे ले कर सम्मान बाँटने वालों पर व्यंग्य है।
लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं लेकिन वर्तमान में हो रही घटनाओं और बदलावों पर उनकी पैनी नज़र है। कई कहानियाँ ऐसी हैं, जिनके विषय में आधुनिकता है। यौन सम्बन्धों पर कहानी लिखना आसान नहीं है लेकिन इस संग्रह में कई कहानियाँ इस विषय पर हैं। अपने लेखन के सम्बन्ध में लेखिका ने लिखा है, “किसी भी कृति का मूर्त आकर यूँ ही सृजित नहीं होता, इसके लिए हृदय की सूक्ष्म अनुभूतियों को सृजन की अनिवार्य प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। लेकिन यह लेखक के स्वयं के सूक्ष्म अनुभवों पर निर्भर करता है कि वह युग और समय के अंतःस्पंदनों को कितना आत्मसात कर पाता है, और चिंतन-मनन करके उसे वास्तविकता के अनुरूप शब्दों में उकेरने की क्षमता रखता है। कोई भी लेखक सिर्फ़ कल्पना के आधार पर लेखन नहीं कर सकता। उसे अपने अन्तर्द्वन्दों से जूझना पड़ता है तब कहीं वह विषय के अनुरूप सार्थक शब्दों की पृष्ठभूमि तलाश कर रचना को शब्दबद्ध करता है।” संग्रह में कुछ कहानियाँ पुरुष समलैंगिकता पर हैं। ‘क्या बताऊँ यार’ कहानी समाज में हो रहे बदलावों की कहानी है। अमेरिका में तीस साल से बसे एक भारतीय के लड़के ने अपने लिए एक रिश्ता पसंद किया। पिता ने जब तस्वीर देखी तो वह एक लड़के की थी। यह स्थिति सिर्फ़ विदेश में ही नहीं है। भारत में भी पुरुष समलैंगिकता की ख़बरें आम हैं। एक कहानी ‘धोखे कैसे-कैसे’ में एक इंजीनियर लड़के की शादी सुंदर और नौकरी करने वाली लड़की से होती है। लड़की बैंगलोर में काम करती है और छुट्टियों में पति से मिलने हैदराबाद आती है। लड़का अपनी पत्नी के साथ नहीं सोना चाहता, वह अपनी पत्नी को दूसरे कमरे में सोने के लिए कहता है। पति-पत्नी के बीच कोई शारीरिक सम्बन्ध नहीं है। लड़की को कमरे की तलाशी में लड़कियों के मेकअप का सामान मिलता है। घर में पत्नी द्वारा CCTV लगाने से पता चलता है कि उसका पति ‘गे’ है। वह अपने पति से तलाक़ ले लेती है। एक आम धारणा है कि पुरुष समलैंगिकता सिर्फ़ आर्थिक रूप में संपन्न लोगों में है लेकिन कहानी ‘उसे क्या हुआ था’ इस धारणा का खंडन करती नज़र आती है। कहानी में मज़दूरी करने वाला एक युवक, जिसकी पत्नी और एक लड़का भी है, कभी-कभी स्त्रियों जैसी हरकत करता है। उसकी यह हरकत बढ़ती जाती है और एक स्त्री पात्र कहती है, “एक दिन मैंने देखा कि वह साड़ी-ब्लाउज पहने है और बाल लंबे करके जूड़ा बनाकर क्लिप लगाए हुए है। माथे पर तिलक, हाथों में चूड़ियाँ और गले में माला पहने हुए है। लोग उसे देख कर हँस रहे हैं। किसी ने मुझे बताया कि उसकी बीवी उसे छोड़कर चली गई है। लोगों ने बताया कि देर रात कुछ युवक आकर उसे कार में ले जाते हैं और छोड़ जाते हैं।”
कहानी सिर्फ़ पुरुष समलैंगिकता ही नहीं बल्कि स्त्री समलैंगिकता के विषय को भी समेटती है। कहानी ‘लाइफ़ पार्टनर’ अमेरिका में रह रही दो लड़कियों की है जो समलैंगिक सम्बन्ध में हैं। उनमें से एक, लिसा ने शादी की थी पर उसका पति उसे अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक यातनाएँ देता था। इसलिए उसने तलाक़ ले लिया और मानसिक दहशत के कारण इस समलैंगिक रिश्ते में आ गई। पुरुष और स्त्री समलैंगिकता से आगे, आजकल सोलोगैमी की भी ख़बरें आ रही है। सोलोगैमी वह स्थिति है जिसमें कोई व्यक्ति ख़ुद के साथ रिश्ते में रहे। कहानी ‘यह कैसी शादी’ सोलोगैमी शादी के बारे में है जिसमें एक लड़की, ख़ुद से ही शादी करती है। उसका कहना है, “प्यार में धोखा खाने से और तलाक़ लेने से तो अच्छा है कि ख़ुद से ही विवाह करो और ख़ुद से ही प्यार करो।” लिव-इन आज के समाज की सच्चाई बन गई है। कहानी ‘स्वतंत्र जीवन’ इसी विषय पर आधारित है। एक लड़का और लड़की किराये के लिए मकान देख रहे हैं। उन दोनों का शादी का कोई इरादा नहीं और वे संतान भी बिना शादी किए पैदा करना चाहते हैं। लड़की कहती है, “वास्तव में शादी करके हम सामाजिक बंधनों में नहीं बँधना चाहते और अगर हम दोनों में से किसी एक की मृत्यु हो जाए, तो न मैं विधवा हूँगी और न ये विधुर होगा और हाँ हमारे ऊपर घर-परिवार एवं समाज की परंपराओं का भी किसी प्रकार का दबाव नहीं होगा तथा हम स्वतंत्र जीवन जी सकेंगे।” यौन सम्बन्धों पर आधारित रिश्तों में ‘शुगर डैडी’ का शुमार होता है। युवा लड़कियाँ अपने ऐश आराम और सुख सुविधाओं के लिए पैसों की व्यवस्था करने वाले किसी डैडी-नुमा शख़्स की तलाश कर लेती हैं, जिनके साथ वो समय भी बिताती हैं, तो उस शख़्स को शुगर डैडी कहा जाता है। ‘राज खुल गया’ कहानी में शालिनी एक पात्र है जिसके बच्चे अमेरिका में रहते हैं। बच्चों के भी बच्चे हो चुके हैं। लेकिन शालिनी के पति शालिनी के साथ नहीं रहते। शालिनी पहले तो कहती है कि उसके पति सिंगापुर किसी काम से गए हैं लेकिन वर्षों तक वे नहीं आते। एक दिन बातों-बातों में शालिनी कह उठती है, “आजकल की लड़कियाँ पैसों के लिए बुड्ढों को फँसाती हैं। सात साल से ऐसा ही चल रहा है।” और उसके पति के न आने का भेद खुल जाता है।
वर्तमान समय में यौन सम्बन्धों को ले कर मान्यताऐं भी बदल रही हैं। एक कहानी ‘दशहत’ अमेरिका में रह रही एक भारतीय लड़की की कहानी है जिसकी अरेंज मैरेज हुई थी लेकिन लड़की ने रिश्ता तोड़ लिया। कारण बताते हुए लड़की कहती है कि उसके पति को पॉर्न फ़िल्में देखने की लत थी और इसी वजह से उसे पुलिस भी पकड़ कर जेल में डाल चुकी थी। लड़की कहती है. “कोई विकृत मानसिकता के आदमी के साथ इतनी मानसिक दहशत में कैसे और कब तक रह सकता है?” एक और कहानी ‘सब स्वीकार है’ में एक महिला पात्र है जो उच्च शिक्षित है। दो कॉलेज में पढ़ाती है। उसके पति इंस्पेक्टर हैं लेकिन फिर भी वह देह व्यापार करती है। अपनी सहकर्मी द्वारा इसकी वजह पूछने पर कहती है, हमारी आमदनी से घर नहीं चलता। सहकर्मी जब कहती है कि तुम्हारे बच्चों को जब इसका पता चलेगा तब तुम्हें सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेंगे। महिला कहती है, “बच्चे पैसा देखते हैं, सुख-सुविधा देखते हैं, पैसा किस माध्यम से आता है यह नहीं देखते। आज दोनों बच्चे आस्ट्रेलिया में पढ़ रहे हैं। दोनों बहुत ख़ुश हैं। मैंने जो किया अपने बच्चों के लिए किया और मेरा लक्ष्य पूरा हो गया। अब मुझे मान मिले या अपमान, मुझे सब स्वीकार है।” यह कथन समाज में हो रहे बदलाव को दर्शाता है। ‘तेते पाँव पसारिए, जैती लाँबी सौर’ जैसे कथन अर्थहीन होते जा रहे हैं। अच्छे और संपन्न परिवारों में भी अपनी ज़रूरत से ज़्यादा ख़र्च करने की वजह से अनैतिक आचरण में लिप्त होना पड़ता है और ऐसी परिस्थिति की कोई शर्मिंदगी भी नहीं होती। कहानी संग्रह में इस विषय को उठाने पर सवाल किया जा सकता है लेकिन इस विषय में रामकिशोर उपध्याय का कथन महत्त्वपूर्ण है–“लेखक का काम समाज सुधार करने का नहीं है लेकिन सामाजिक सरोकारों को अपनी लेखनी से उजागर कर समाज के सामने आईना रखने का काम उन्होंने अवश्य ही सफलतापूर्वक किया है इन लघु कथाओं में समसामयिक नैतिक और सामाजिक विषयों की बहुतायत है क्योंकि सभी लघुकथाएँ अंत में कुछ ना कुछ संदेश छोड़ जाती है।”
यह संग्रह कोरोना काल के ठीक बाद का है, इसलिए कई कहानियों में कोरोना विषय के रूप में विद्यमान है। कोरोना काल में मानवीय संवेदना को दर्शाती कुछ कहानियाँ हैं, तो कुछ कहानियाँ इस काल में स्वार्थ के वशीभूत हो कर अमानवीय कृत्यों में संलग्न होने पर भी है। किताब के बारे में साहित्यकार शब्द मसीहा ने लिखा है, “डॉ. रमा द्विवेदी की लघुकथाओं को ‘लॉलीपॉप में लिपटा सच्चाई का नीम’ नाम भी दिया जा सकता है उनकी लघुकथाओं में एक चिंतन और समाज के प्रति चिंता प्रखर रूप में दिखाई देती है।
समाज में आज भी हमारी प्रतिष्ठा, परंपरा और हमारा समाज इतना महत्त्वपूर्ण बन जाता है कि इनकी वजह से परिवार के लोग सही निर्णय लेने से कतराते हैं। कहानी ‘नाक कट जाएगी’ एक ऐसे लड़की की है जिसकी शादी पिता ने ज़मीन गिरवी रख कर की। शादी के दस दिन बाद लड़की ससुराल से अपने घर आई और पति बैंगलोर नौकरी करने चला गया। उसका पति उसे फोन से बताता है कि उसकी तबीयत ठीक नहीं रहती। वह उसे बताता है कि उसे ब्लड कैंसर है। कुछ दिनों में उसकी मृत्यु हो जाती है। उसके ससुराल वाले लड़की को सारे गहने के साथ ससुराल बुलाते हैं। लड़की अपने पिता के साथ जाती है। वहाँ लड़की के पिता यह भाँप लेते हैं कि उन्हें सिर्फ़ गहने लेने के लिए बुलाया गया है। रात में वह अपनी बेटी को ले कर घर से निकल जाते हैं। जिस बेटी की उन्होंने रक्षा की, उसकी दुबारा शादी करवाने की उनकी कोई मंशा नहीं। वे कहते हैं, “ठाकुरों की परंपरा है कि विधवा लड़की का दूसरा विवाह नहीं होता। हम दूसरी शादी की सोच भी नहीं सकते, समाज में हमारी नाक कट जाएगी।” एक और कहानी ‘कुल-गोत्र’ में पंडित भोला राम के लिए कुल गोत्र का बहुत महत्त्व है। अपनी बेटी के लिए एक अच्छा रिश्ता उन्होंने महज़ इसलिए ठुकरा दिया कि गोत्र नहीं मिला। और अंततः शादी एक ऐसे जगह कर दी, जहाँ गोत्र तो मिला लेकिन लड़के की माली हालत बहुत ख़राब थी। शादी के बाद लड़की को बहुत कष्ट उठाने पड़े। एक दिन जब खाने के लिए घर में सिर्फ़ महुआ बचा था और लड़की उसे ही भून रही थी तभी पंडित भोला राम उसके घर आए और पूछा, “बेटी क्या कर रही हो’। लड़की ने कहा ‘कुल-गोत्र’ को भून रही हूँ।” लेकिन आज लड़कियाँ अपने निर्णय स्वयं लेने की क्षमता रखती हैं। कहानी ‘ढोंग-दिखावा’ में प्रो. चतुर्वेदी का परिवार अत्यंत दकियानूसी-परंपरावादी लेकिन उच्च शिक्षित है। उनके बेटी ने एक अन्य जाति के लड़के से प्रेम कर लिया और शादी की इच्छा ज़ाहिर की। आरंभ में तो किसी ने इसकी स्वीकृति नहीं दी लेकिन अंत में परिवार में सबको झुकना पड़ा।
अक़्सर कहा जाता है कि साहित्यकार की उपस्थिति अपनी रचनाओं में होती है। प्रेमचंद ने भी इस कथन को सहमति दी। लेकिन ज़रूरी नहीं कि रचनाओं में लेखक/लेखिका की सीधी भूमिका हो। साहित्यकार के पास यह कला है कि वह समाज में घट रही घटनाओं से प्रभावित हो कर कुछ ऐसा लिखे, जो पाठकों के दिल तक पहुँचे। मुझे इस संदर्भ में जावेद अख़्तर के एक साक्षात्कार का स्मरण होता है जो उन्होंने किसी मीडिया को दिया था। उन्होंने कहा कि एक महिला ने उनसे कहा कि आप ख़ुद को नास्तिक कहते हैं लेकिन आपके द्वारा लिखा गया भजन ‘हे पालन हारे, निर्गुण और न्यारे, तुम्हरे बिना हमरा कोउ नाहीं’ सुनने के बाद मैं यह नहीं मान सकती कि आप नास्तिक हैं। जावेद अख़्तर ने उस महिला से कहा कि शुक्र है आप मुझे डाकुओं के गिरोह का सदस्य नहीं समझतीं क्योंकि फ़िल्म शोले के डायलॉग मैंने ही लिखे थे। डॉ. रमा द्विवेदी की कहानियों में भी समाज में हो रही घटनाओं का ही उल्लेख उनकी कहानियों में दिखता है। ‘नियति का खेल’ कहानी गार्गी नाम के लड़की की है जिसकी शादी के बाद दो बच्चे हुए और अचानक एक दिन पति की मृत्यु हो गई। गार्गी ने पति की मृत्यु के बाद अपने सास-ससुर के साथ ही रहने का निर्णय लिया। सास-ससुर ने भी एक योग्य लड़का (गजानन) देख कर अपने बहू की शादी उसके साथ करवा दी। शादी के बाद गजानन पहले तो गार्गी से पैसे माँगता रहा और बाद में घर के काग़ज़ात, घर बेचने के लिए माँगने लगा। स्थिति बिगड़ने के बाद अपने ससुर के कहने पर गार्गी ने गजानन से तलाक़ ले लिया। एक और कहानी ‘विश्वासघात की पीड़ा’ में शहर में रहनेवाले एक भाई के छोटे भाई की मृत्यु, गाँव में हो जाती है। मरने से पहले उसने शहर में रहने वाले भाई की ज़मीन को अपने बेटों के नाम करवा लिया। यही नहीं अपने बेटों को बिना बताए, उस ज़मीन पर लाखों का क़र्ज़ भी ले लिया। उसके मरने के बाद बड़ा भाई इस विश्वासघात से हैरान है। ‘मौत की प्रतीक्षा’ कहानी में आंचलिक भाषा में संवाद है। एक बूढ़ी औरत गाँव में रह रही है। उसका घर जीर्ण हो चुका है, फिर भी वह गाँव में रहने पर मजबूर है। एक बार शहर में बेटे के यहाँ गई थी लेकिन बहू ने उसके साथ अच्छा सुलूक नहीं किया। खाना तक नहीं दिया, नौकरानी जैसा व्यवहार किया, उसका सारा सामान भी ले लिया। बूढ़ी औरत अब गाँव में मौत की प्रतीक्षा कर रही है। लेखिका ने एक और कहानी में आंचलिक भाषा का प्रयोग किया है। हालाँकि शहर में लंबे समय से रहने की वजह से आंचलिक भाषा पर उनकी पकड़ कुछ कमज़ोर लगती है। ‘पिंडदान क्यों’ कहानी एक ऐसे दम्पती की है जिनकी दो बेटियाँ अपनी मर्ज़ी से शादी कर के विदेश चली जाती हैं। अकेलेपन से परेशान दम्पती कहते हैं, “नई पीढ़ी कितनी स्वार्थी हो गई है कि माँ-बाप की भावनाओं का अब कोई मूल्य ही नहीं रहा।” दम्पती गया जा कर अपना पिंड दान ख़ुद ही कर आते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है समाज में सब कुछ ग़लत ही हो रहा है। ‘भाई हो तो ऐसा’ कहानी दो भाइयों की है जिनमें बहुत प्यार है। बड़े भाई की पत्नी अपने पति पर दबाव डालती है कि छोटे भाई की शादी करवा कर उसे अलग कर दो। बड़े भाई की पत्नी ने छोटे भाई पर लांछन भी लगाया कि उसने मेरे साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश की। लेकिन इन सबसे भी दोनों भाइयों के संबंधों पर असर नहीं पड़ा। कुछ दिनों बाद बड़े भाई की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई। उन्होंने बहुत सारा क़र्ज़ ले रखा था। छोटे भाई ने बहुत मेहनत कर सारा क़र्ज़ चुकता किया। रिश्तेदारों ने कहा कि भाभी पर चुन्नी डाल कर उससे शादी कर लो लेकिन छोटे भाई ने इनकार कर दिया और सारी उम्र भाभी और उसके बच्चों की देख-भाल करता रहा। ‘माई की ममता’ कहानी में एक बूढ़ी औरत फ़ुटपाथ पर रो रही है। एक इंस्पेक्टर उससे वजह पूछता है तो वह बताती है कि उसके तीन बेटे हैं लेकिन किसी के पास उसके लिए जगह नहीं। इंस्पेक्टर तीनों बेटों को थाने बुला कर उन पर कार्रवाई की बात करता है लेकिन बूढ़ी औरत, इंस्पेक्टर से, बच्चों पर कार्रवाई न करने का अनुरोध करती है। बच्चों की आँखें खुल जाती हैं।
स्वार्थ आज इस क़द्र मनुष्य पर हावी है कि संबंधों के तार टूटते जा रहे हैं। ‘इच्छा मृत्यु’ कहानी में पत्नी अपने पति से कहती है कि अब इच्छा मृत्यु का क़ानून बन गया है, आपके पिता वर्षों से अल्जाइमर से पीड़ित हैं और बिस्तर पर पड़े हैं। पति और पत्नी दोनों प्लान बनाने में व्यस्त हो जाते हैं। कहानी पढ़ते हुए पाठक स्तब्ध रह जाने को विवश हो जाता है। ‘बहू से बचाओ’ कहानी में एक नई बहू, सास-ससुर को घर से निकालने का दबाव बनाती है। ऐसा नहीं होने पर मायके चली जाती है। वह एक करोड़ का मुआवज़ा चाहती है वरना झूठे केस में फँसाने की धमकी देती है। परिवार का मुखिया प्रधानमंत्री को पत्र लिखता है जिसमें वह लिखता है, “आपने बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा दिया है तो क्या बहू के ज़ुल्मों से बचने का भी कोई क़ानून बनाया है?”
आज भी स्त्री की निर्भरता अपने पति पर कितनी है यह ‘विकृत मानसिकता’ नामक कहानी में देखने को मिलती है। एक बड़ा बिज़नेस करने वाला व्यक्ति अपनी पत्नी से बहुत क्रूरता करता है, उसे मारता-पीटता है। ग़ुस्सा शांत होने पर वह उसे प्यार भी करता है, होटल ले जाता है, गहने दिलवाता है। पत्नी की रिश्तेदार उसके चेहरे पर मर-पीट के निशान देखकर पुलिस बुला लेती है और घरेलू हिंसा के जुर्म में पति गिरफ़्तार हो जाता है। पत्नी फिर भी कहती है, “वह जितनी यातना देता था उससे कहीं अधिक प्यार भी तो करता था।” दहेज़ भी आज कई बेमेल विवाह की वजह है। ‘मानसिक शांति’ कहानी में प्रणीता एक ऐसे आदमी से शादी करती है जिसे स्नायु कम्पन की बीमारी से ग्रसित है। वजह पूछने पर बताती है कि उसकी भाभी हर दिन कलह करती थी, भाई के पास दहेज़ के लिए पैसे नहीं थे, शादी की उम्र निकली जा रही थी, इसलिए रोज़-रोज़ के झगड़े से छुटकारा पाने के लिए उसने यह शादी कर ली। पति शारीरिक रूप से असमर्थ है लेकिन दिल से अच्छा इंसान है। उसकी सहेली कहती है, “कुँवारी पत्नी रहकर भी तुमने जीवन को सोचने-समझने की एक नई दृष्टि प्रदान की।” दहेज़ से बचने के लिए कई बार ऐसी शादियाँ भी देखने को मिलती हैं जहाँ एक परिवार के भाई-बहन की शादी दूसरे परिवार की बहन और भाई से होती है। ‘एक्सचेंज मैरिज’ एक ऐसी ही कहानी है जहाँ एक साथ दो शादियाँ होती हैं लेकिन संबंधों में प्यार न होने से एक शादी तलाक़ तक जा पहुँचती है और इसका असर दूसरी शादी पर भी होता है और वे भी अलग रहने पर मजबूर हो जाते हैं। ‘खरीदी हुई औरत’ कहानी एक ऐसे ग़रीब लड़की की कहानी है जिसे पैसों के लालच में उसके माँ-बाप ने बेच दिया और उसे मार-पीट कर बूढ़े आदमी से शादी करने पर विवश किया गया। ऐसा नहीं है कि दहेज़ का दावानल सिर्फ़ लड़कियों के लिए है। लड़कियाँ भी आज अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए शादी का इस्तेमाल कर रही हैं। ‘मरता क्या न करता’ कहानी में अमन की शादी मोक्षा से होती है। शादी के कुछ दिनों बाद मोक्षा, मायके चली जाती है और पति पर दबाव डालती है कि वह अपनी नौकरी छोड़ कर यहीं आ कर रहे। बहुत समझाने पर भी जब वह नहीं मानती तब अमन तलाक़ की अर्ज़ी देता है। मोक्षा तलाक़ तो देती है लेकिन बदले में 50 लाख रुपये लेती है। कहानी के अंत में एक पात्र कहती है, “क्या लड़की के घर वाले भी पैसों के लिए इस तरह के साज़िश भरे खेल खेल रहे हैं।” ‘कम्पैटिबिलिटी’ कहानी में एक लड़की अपने पति को यह नोट लिख कर छोड़ कर चली जाती है कि हमारी कम्पैटिबिलिटी नहीं है, अब हम कोर्ट में मिलेंगे। तलाक़ की प्रक्रिया में पति अपनी सारी कमाई गँवा देता है।
इस संग्रह में कई और कहानियाँ हैं जिनमें लेखिका चुनाव प्रक्रिया में गड़बड़ी, सरोगेसी, विश्वासघात, घुटन आदि विषयों के समेटती हैं। कहानियों के शिल्प के बारे में रामकिशोर उपाध्याय ने लिखा है, “लघु कथाओं की प्रक्रिया के निर्धारित तीनों पक्ष-मानसिक सांस्कृतिक और भाषिक का उन्होंने उचित निर्वहन किया है।” लघुकथा के अनिवार्य तत्वों की बात करें तो इस संग्रह की कुछ कहानियाँ उस कसौटी पर खड़ी नहीं उतरती। लेकिन साथ भी यह भी ध्यान देना चाहिए कि तय मानकों का पालन कर, कुछ नया करना मुश्किल है। मंटो ने अपनी लघुकथाओं के लिए जिस विषय को चुना और जिस तरह से उन्हें लिखा, वह पहले नहीं लिखी गई थीं। ऐसे में मानकों से बग़ावत स्वीकार्य है लेकिन रोचकता के पैमाने पर कई कहानियों पर और काम किया जा सकता था। जौन एलिया ने भी लिखा—ज़िंदगी क्या है इक कहानी है/ ये कहानी नहीं सुनानी है। राहत इंदौरी ने भी लिखा—शहर की सारी अलिफ़-लैलाएँ बूढ़ी हो चुकीं/ शाहज़ादे को कोई ताज़ा कहानी चाहिए। डॉ. रमा द्विवेदी ने अपने संग्रह में जिन विषयों को समेटा है और जिस तरह उन्हें अपने पाठकों के सम्मुख परोसा है, उससे उनकी आगामी संग्रहों की प्रतीक्षा पाठकों को अवश्य रहेगी। डॉ. रमा द्विवेदी की पंक्तियाँ इस प्रतीक्षा को पंख देती हैं।
“लक्ष्य ले के रास्तों पे बढ़ते जायेंगे
ढूँढ़ लेंगे मंज़िलें या निशां बनायेंगे,
रास्ते की अड़चनों से टकरायेंगे
दर्द में भी ज़िन्दगी को जीते जायेंगे॥
ज़िन्दगी के क़र्ज़ को हम यूँ चुकायेंगे॥
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