संभावनाओं के बीज बाँटता कवि–लाल्टू
प्रवीण प्रणवसमीक्षित पुस्तक: दिन भरा क्या किया? (काव्य संग्रह)
लेखक: लाल्टू
प्रकाशक: एकलव्य फ़ाउंडेशन
मूल्य: ₹75.00
बचपन में पढ़ी गई बात याद रह गई—‘महाजनों येन गतः स पन्था:’ यानी महापुरुष जिस रास्ते चले हों, वही सही रास्ता है। यहाँ अभिप्राय अपने-आप को उस ज्ञान परंपरा से जोड़ने का भी है, जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। लेखन के क्षेत्र में भी ऐसा ही है। कुछ अच्छा लिखने के लिए, कुछ अच्छा पढ़ने की अनिवार्यता तो है ही। लेकिन जैसे विज्ञान के क्षेत्र में नित नये खोज हो रहे हैं, वैसे ही साहित्य में भी समय के साथ कई बदलाव आए हैं। इसलिए आवश्यक है कि हम नई पीढ़ी को जब रास्ता सुझा रहे हों, तब उन्हें सड़क के साथ-साथ फ़्लाइओवर और अंडरग्राउन्ड टनल्स की भी जानकारी दी जाए, यानी तमाम विकल्प उनके पास हों, और तब अपने लिए सही रास्ते चुनाव करने का निर्णय उनका अपना। प्रसिद्ध साहित्यकार लाल्टू इस दिशा में कई वर्षों से काम कर रहे हैं। उन्होंने नव-लेखकों, नव-साक्षरों के लिए बहुत लिखा है। एकलव्य फ़ॉउंडेशन द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह ‘दिन भर क्या किया?’, लाल्टू की कविताओं का ऐसा ही संकलन है जिसे किशोरों को तो पढ़ना ही चाहिए, साथ ही उन सभी लोगों को भी पढ़ना चाहिए जो नई कविता को जानने-समझने के इच्छुक हैं।
इस किताब की शीर्षक कविता एक ऐसे दिन की कल्पना करती है, जिसमें कोई तनाव नहीं है, कोई दुख नहीं और न ही किसी तरह की ग्लानि। ‘दिन भर’ कविता में लाल्टू लिख़ते हैं “दिन भर क्या किया? क्या पढ़ा? क्या लिखा?/सोचा, बहुत सोचा। कहानी पढ़ी। ख़त लिखा।/नहीं की नफ़रत किसी से।/हीं किया लालच।/नहीं किसी को मारा।/आसमान देखा।/देखा पेड़ों पर चढ़ते बच्चे।/देखी लाल चोंच वाली चिड़िया।/कल भी हो ऐसा ही जीवन।/ओ मन।” इस कविता को पढ़ते ही, जी करता है, कहें–आमीन। पूरी दुनिया आज जिस अशान्ति से जूझ रही है, उसमें शान्ति की कामना, ख़ुशहाली की कामना, बड़ी बात लगती है। लेकिन लाल्टू नाउम्मीद नहीं हैं। ‘बच्ची बोलेगी’ कविता में लाल्टू लिख़ते हैं “बच्ची बोलेगी माँ एक दिन/ एक दिन बोलेगी बापू/ बोलेगी दूध, गाड़ी, फूल/../../इक दिन आएगा तूफ़ान/ बच्ची बोलेगी माँ/ जब हर कोई बोलेगा युद्ध/ बच्ची बोलेगी/ फूल, दूध, धूप।”
लाल्टू का कोलकाता से गहरा रिश्ता रहा है। कोलकाता की बात करते हुए ‘एक शहर कोलकाता’ कविता में लाल्टू इस शहर के बारे में लिख़ते हैं। आम जनता की बुनियादी ज़रूरतें आज भी कोलकाता में आसानी से पूरी हो जाती हैं—‘कोलकाता में क़ीमत है दस पैसे की’। कोलकाता बोलने की आज़ादी देता है, सभाओं की आज़ादी देता है। कविता में उन्होंने लिखा “कोलकाता में बस का किराया है/ एक रुपया या एक रुपया बीस भी/ कोलकाता में क़ीमत है दस पैसे की/ कोलकाता में क़ीमत है हर ऐसे तैसे की/ कोलकाता में होती हैं सभाएँ/ सभाओं का शहर कोलकाता/ अजब शहर कोलकाता/ गजब शहर कोलकाता”। लेकिन हर जगह की अपनी समस्याएँ भी होती हैं। पर्यटक पहाड़ों को देखने दूर-दूर से आते हैं लेकिन ‘पहाड़–2’ कविता में लाल्टू लिख़ते हैं “पहाड़ों पर रहने वाले लोग/ पहाड़ों को पसंद नहीं करते”। आप किसी की सुंदरता या किसी परिस्थिति को दूर से देख कर उसके बारे में अपने सही विचार नहीं बना सकते, जब तक आप उस परिस्थिति से ख़ुद को जोड़कर न देखें।
इस किताब की भूमिका में लाल्टू ने लिखा है “किशोरों के लिए आधुनिक शैली में कैसी कविताएँ हों—हिन्दी अदब में यह ज़रूरी सवाल है। आम तौर पर उन्हें कमतर उम्र के बच्चों से अलग नहीं देखा जाता और मान लिया जाता है कि किशोर छंद में लिखी रचना ही पढ़ना पसंद करेंगे। दरअसल किशोर मन वयस्कों का साहित्य पढ़ना चाहता है, समझना चाहता है कि वयस्क कैसे सोचते हैं। तेज़ी से बढ़ती चली सूचना-क्रांति के आज के ज़माने में यह बात पहले से भी ज़्यादा सच है”। इस संग्रह की कविताओं के विषय जटिल हैं, लेकिन कविताओं की भाषा सरल है। “भैया ज़िंदाबाद” कविता में लाल्टू, एक छोटी लड़की की बात लिखते हैं जो अपने भाई के मार खाने का बदला लेने के लिए दीवार पर ‘भैया जिन्दाबाद’ लिख देती है। कविता में लाल्टू यह पैग़ाम देते हैं कि कमज़ोर होने पर भी अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने की हिम्मत होनी ही चाहिए। “आ गया त्यौहार/ फैल गई रोशनी/ बड़कू ने रंग दी दीवार/ लिख दिया बड़े अक्षरों में/ अब से हर रात/ फैलेगी रोशनी/ दूर अब अंधकार/ हर दिन है त्यौहार/ छुटकी ने देखा/ धीरे से कहा/ अब्बू पीटेंगे भैया/ हुआ भी यही/ मार पड़ी बड़कू को/ छुटकी ने देखा/ धीरे से कहा/ मैं बदला लूँगी भैया/ फिर सुबह आई/ नया सूरज/ नई एक दीवार थी/ दीवार खड़ी थी/ अक्षर ढोती/ भैया ज़िंदाबाद।”
हिन्दी ग़ज़ल में विरोध की आवाज़ दुष्यंत की ग़ज़लों में सबसे ज़्यादा मुखर हुई। कम शब्दों में अपनी बात कहने के लिए आज की युवा पीढ़ी ने ग़ज़ल की विधा को ज़्यादा अपनाया है। लाल्टू, ‘इक बात बेबात चाहिए’ शीर्षक से इस विधा से भी किशोरों को अवगत करवाते हैं। इस कविता में उन्होंने लिखा “बात इतनी कि हाइवे के किनारे फ़ुटपाथ चाहिए/ कुछ और नहीं तो मुझे सुकूँ की रात चाहिए/ हो गाड़ीवालों के आगे कुछ औरों की भी हैसियत/ ज़्यादा नहीं तो बेधड़क चलने की औक़ात चाहिए”। हालिया कुछ उदाहरणों को देखें जहाँ महँगी कारों से रईसों द्वारा दुर्घटनाएँ हुई हैं, तब लाल्टू की यह ग़ज़ल बहुत प्रासंगिक लगती है। दुष्यंत ने ग़रीब और मजबूर लोगों के लिए लिखा “न हो क़मीज़ तो पाँव से पेट ढक लेंगे/ ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए”। लाल्टू की कविता में भी ग़रीब मज़दूर की बेबसी ‘गाँव में आए’ कविता में स्थान पाती है जहाँ लाल्टू लिख़ते हैं “सभा में महिलाएँ आईं/ किसान बोले मज़दूर बोले, औरतें बोलीं मरद भी बोले/ बच्चे बोले बुज़ुर्ग बोले/ बहुत बोले और नहीं थके/ कुछ थे जो चुप थे/ वो थक कर हुए चूर/ गाँव में आए शहर से मज़दूर”।
किशोरों के लिए कुछ लिखा जाय, तो उसकी प्रस्तुतीकरण का भी महत्त्व होता है। एकलव्य को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने इस किताब को बहुत प्यार से और अच्छे तरीक़े से पाठकों के सामने परोसा है। किताब का कवर अच्छे आर्ट पेपर का है जिसे हाथ में लेते ही मख़मली मुलायमियत का अहसास होता है। किताब के पन्ने बहुत अच्छे हैं और छपाई उम्दा। सिर्फ़ 75 रुपये मूल्य की यह किताब न सिर्फ़ किशोरों के लिए बल्कि सभी साहित्य प्रेमियों के लिए पठनीय और संग्रहणीय है। विशेषकर किशोरों को यह कविता संग्रह, अभिव्यक्ति के कई तरीक़ों से परिचित करवाती है। एक तरफ़ ‘शब्द-खिलाड़ी’ कविता में लाल्टू लिखते हैं “पागल हैं शब्दों को बाँधने वाले/ शब्द पाखी हैं/ फर-फर उड़ते हैं/ हम उन्हें हाथों से पकड़ते हैं/ धमनियों को पगडंडियाँ बना/ अँधेरी कोठियों तक साथ टहल आते हैं/ और काग़ज़ पर जड़ देते हैं/ कि उनसे रोशनी मिले/।../../फिर शब्दों को नाम देते हैं/ जैसे कि शब्द पहले शब्द नहीं थे”। इस कविता को पढ़ते हुए मख़दूम मोहिउद्दीन याद आते हैं जिन्होंने अपनी नज़्म नया साल में लिखा “ये दुनिया भी क्या मस्ख़री है/नए साल की शाल ओढ़े। बसद तंज़, हम सब से यह कह रही है/ के मैं तो ‘नई’ हूँ/ हँसी आ रही है”। एक तरफ़ तो लाल्टू ‘लिखने लायक़ बातें’ कविता में लिखते हैं “इतनी बातें/ कितनी बातें/../../ढूँढ़कर नहीं मिलतीं/ लिखने लायक़ बातें”। और वहीं दूसरी तरफ़ ‘बात कहो’ कविता में अपनी बात कहने के लिए प्रेरित करते हुए लिखते हैं “एक बात कहो जो धरती जितनी बड़ी हो/ एक बात कहो जो बारिश जैसी गीली हो/../../ बात जो दिन हो रात हो/ बात जो बातों की बात हो/ बात एक ऐसी बेबात हो/ एक बात कहो एक बात कहो”। लाल्टू अपनी कविताओं में धीरे-धीरे सत्य तक पहुँचने के लिए अपने पाठकों को तैयार करते हैं, और फिर उन्हें कड़वी दवाई का घूँट पिलाते हैं, जिससे कि वे हर तरह के तिलिस्म से बाहर आ सकें। ‘काश’ कविता में लाल्टू लिखते हैं “इसलिए लिखते रहना है, पल-पल अल्फ़ाज़ का सैलाब लाना है/ हटाए, धकेल दिए गए पल की जगह फिर से लानी है/ एक और पल की नई तस्वीर/ फिर से धकेले जाने को तैयार खड़ा सच”।
युवा पीढ़ी के लिए चित्रों का बहुत महत्त्व होता है। कॉमिक्स पढ़ते हुए किसी लड़ाई के दृश्य में ‘ढिशुशुशुशुशुशुशुशुम' जितनी लंबी लिखी होती थी, हमारे दिमाग़ में तस्वीरों को देखते हुए उतने ही ज़ोर की आवाज़ भी आती थी। इस कविता संग्रह के लिए हर पन्ने पर तविशा सिंह ने प्रभावी चित्र उकेरे हैं, जो इन कविताओं को बहुआयामी बना देती है। कविताओं द्वारा बनाए गए बिम्ब, जब चित्रों से मिलते हैं, तब पाठक देर तक इन चित्रों में कविताओं के अपने अर्थ तलाशता है। ‘इन दिनों जहाँ हूँ’ कविता में लाल्टू ने जो शब्द-चित्र बनाए हैं, पाठक कविता पढ़ते हुए उन्हें महसूस कर सकता है। “शाम को रौनक़ होती है/ रौनक़ में और जगहों की रौनक़ें ख़बर बन कर आती हैं/ शाम ढलते ही सन्नाटा फैलता है/ जैसे कोई कब्रगाह हो/ हालाँकि चारों ओर क़िस्म-क़िस्म के पंछी और दीगर जानवरों की आवाज़ें/ गूँजती हैं कि धरती पर इंसानों का राज ख़त्म होने को है”। लाल्टू काग़ज़ी शेर बनने की बजाय कुछ करने पर ज़ोर देते हैं। ‘कद्दू छीला’ कविता में लाल्टू लिखते हैं “खेत में बापू की देखा-देखी मैंने कुदाल उठा लिया था/../../छिलकों को सजाकर किसान बनाया/ आसान है कला में किसान बनाना/ मैं किसान बन सकता हूँ क्या?” लाल्टू किसी आडंबर की बजाय यथार्थवादी होने के समर्थक हैं। ‘बादलों ने’ कविता में उन्होंने लिखा “बादलों को हमारे बारे में क्या नहीं पता/ बादलों ने तो हमें नंगा देखा है”।
लाल्टू की कविताओं की एक विशेषता यह भी है कि वह अपनी कविता में सपाट शब्दों में कुछ कहने की बजाय सही बिम्ब चुनते हैं, और शब्दों से ऐसे चित्र उकेरते हैं कि पाठकों तक उनकी वह बात पहुँचे, जो लिखी नहीं गई है। बशीर बद्र की एक प्रसिद्ध ग़ज़ल का शेर है 'तुझे ऐतबारो यक़ीं नहीं, नहीं दुनिया इतनी बुरी नहीं/ न मलाल कर, मेरे साथ आ, जो गुज़र गया, सो गुज़र गया।” लाल्टू भी अपनी कविताओं में अतीत का रोना रोने की बजाय, आगे बढ़ने पर ज़ोर देते हैं, लेकिन उनके कहने का अंदाज़ जुदा है। ‘चोट’ कविता में लाल्टू ने लिखा “चोट लंबे समय तक साथ चली/ रात-रात वह नींद में साथ सोई/../../चोट कहाँ कैसे लगी मिलने वालों को/ खुलकर बखानने का वक़्त था/ चुपचाप बेमकसद जीते रहने का/ यह वक़्त था”। वर्तमान व्यवस्था से निराश और भविष्य के प्रति उम्मीद तो होती ही है, लेकिन भविष्य में बेहतरी की उम्मीद भी यदि धुँधलाने लगे, तब ‘फ़िक्र’ कविता में लाल्टू ने लिखा “गर्मी में बीच रात उठकर/ रज़ाई ओढ़ता हूँ/ माँ फिर से सुला देती है/ मुझे फ़िक्र है/गर्मी के बाद ठंड न आए तो”।
लाल्टू की विशेषता है कि वह आपको गमले में लगे-लगाए पौधे नहीं देते, वह आपको कई तरह के बीज देते हैं। इन बीजों को यदि आप मिट्टी में लगाएँ और इनका ख़्याल रखें तो यह भविष्य में विशाल वट-वृक्ष बनेंगे अन्यथा ये बीज, आपके शर्ट के पॉकेट में रखे-रखे सूख जाएँगे। किताब के शीर्षक में लाल्टू इसीलिए सवाल भी पूछते हैं ‘दिन भर क्या किया?।” संभावनाओं की जानकारी होना, उनके साकार होने की अनिवार्यता नहीं है जब-तक की उस दिशा में प्रयास न किए जाएँ। लेकिन लाल्टू जानते हैं कि किशोरों को प्रोत्साहित करना पड़ेगा, और एक दिन वे आने वाले दिनों के संघर्ष के लिए ख़ुद को तैयार कर पाएँगे। ‘उगना है” कविता में लाल्टू ने लिखा “उगना है/ जहाँ ज़मीं बंजर है/ न हवा/ न धूप न पानी है/ बे-हवा बेहया लहलहाना है/ अँधेरे से रोशनी खींचनी है/ पत्थरों से पानी निचोड़ना है/ हर हाल में उगना है/ कि वह बीज है”।
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