वचन

डॉ. अनुज प्रभात (अंक: 212, सितम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“अरे . . . ओ . . . बिरजू! . . . ओ बिरजू!” मंगलू चिल्लाता हुआ मेड़ पर घास काटते बिरजू के पास पहुँचा। 
बिरजू ने घास काटना छोड़ मंगलू की ओर देखा। पूछा, “का बात है, का होय गया जो दौड़े आये हो? कुछ बोलबो?” 

“हवेली में बड़की बहुरिया आई है। तोके याद करे है। बब्बन काका हमरे बोले तोके बुला लाबे के,” मंगलू एक ही साँस में बोल गया। 

हवेली से बुलाबा का नाम सुनते ही बिरजू के हाथ से घास काटने का कचिया छूट गया। उसके शरीर में कम्पन सा होने लगा . . . “आज तेरह वर्ष बाद . . . तेरह से ऊपर ही . . . ” उसके होंठों पे अस्फुट सा स्वर . . . 

और वह मंगलू के साथ चल दिया। 

हवेली में में क़दम रखने से पहले एक बार तो उसके पाँव रुक गये . . . लेकिन मंगलू के शब्द, “चलबो जल्दी . . . बब्बन काका . . . बहुरिया के कमरा के आगे ही खड़े हय . . .” उसके पाँव को जैसे बल दे दिया। 

बिरजू जब बहुरिया के कक्ष के सामने पहुँचा तो बब्बन काका इधर से उधर टहलते नज़र आये। किन्तु जैसे ही बिरजू को आया देखा, बोल उठे  “आओ बिरजू . . . देख लो अपनी मालकिन को . . . घर की लक्ष्मी को . . . बड़की बहुरिया को . . .” और उनकी आँखों से झर . . . झर आँसू बहने लगे। 

सुनते ही बिरजू सब कुछ भूल दौड़ गया। बहुरिया पलंग पर अचेतन अवस्था में पड़ी थी . . . आँखें शून्य में . . . और साड़ी सफ़ेद। 

बिरजू उनकी हालत देख रो पड़ा। सिसकियाँ उसकी आवाज़ों में फूटने लगी . . . तभी बब्बन काका के शब्द उसके कानों में सुनने को मिला। वे बहुरिया से कह रहे थे, “बहुरिया . . . बिरजू आ गया है . . . आ गया है।”

“बिरजू आ गया . . . बिरजू . . .! बिरजू . . . !” कहते हुए वह उठने की कोशिश करने लगी . . . लेकिन उठ नहीं पाई। फिर आँखें बब्बन काका की ओर गईं। बब्बन काका समझ गये। उन्होंने बिरजू को पास आने को कहा। 

बिरजू धीरे-धीरे क़दम बढ़ाते हुए बहुरिया के पास पहुँच गया। अब वह अपने को रोक नहीं पाया, उनके पाँव पकड़ रोने लगा। 

“ना रे . . . ना रे . . . मत रो . . . मत रो . . . होनी को कौन टाल सका है . . . होनी तो . . . होनी है . . . तुझसे जान-बूझकर कुछ थोड़े ही हुआ . . . मैंने तो . . . मैंने तो तभी तुझे माफ़ कर दिया था . . . ” वह बोलते-बोलते रुक गई और साँस लेने लगी . . . फिर बोली, “मालिक उसी . . . उसी ग़म में चले . . . गये . . . एक ही बेटा था . . . उनका। और बोल गए . . . एक बार हवेली चले जाना . . . बोलना बिरजू को मैंने भी माफ़ कर दिया,” बहुरिया अचेत सी हो गई।

“बहुरिया . . . बहुरिया!” बब्बन काका रोते-रोते पुकारने लगे। 

बहुरिया की आँखें फिर खुलीं, बोली , “बब्बन काका! मेरे सिरहाने में . . . सिरहाने में . . . एक कागज है। मैंने गौशाला और उसके बगल का इसके पिता राम शरण वाला घर . . . साथ में पाँच एकड़ जमीन इसके नाम कर दिया है . . . मैंने . . . बेटा माना था . . . इसकी . . . इसकी बिधवा माँ को बचन दिया था . . . बेटे की तरह पालूँगी . . . उस बचन का पालन करना है . . . काका . . . हाँ काका! . . . हाँ . . . इसलिए लिख दिया है . . . मेरा अग्नि संस्कार बिरजू करेगा . . . बिरजू करेगा . . . ” इससे आगे बिरजू सुन नहीं पाया। 

बिरजू दहाड़ मार कर रो पड़ा . . . “नहीं . . . मालकिन . . . नहीं। नहीं माँ . . . नहीं . . . मैंने मुन्ना को नहीं मारा . . . वह मेरा छोटा भाई था . . . हमरी जान से भी प्यारा . . . हमरी जान से भी प्यारा . . . वह खेल-खेल में दौड़ते हुए कुँए के पास पहुँच गया और . . . और . . .” इससे आगे बिरजू नहीं बोला पाया।  

1 टिप्पणियाँ

  • 30 Nov, 2023 11:29 AM

    ओहो! कितनी अच्छी लिखी है सर! मन भर आया!

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