तालियाँ नहीं बजीं तो क्या . . .?
डॉ. अनुज प्रभातमुझे
मेरी पहली कविता को
पढ़ने की याद आती है
जब हिम्मत जुटाकर
रुक-रुक कर
पढ़ने की कोशिश की थी।
तब चाहत थी, तालियाँ बजें
मेरी भी कविता के शब्दों पर
जैसे मुझसे पहले पढ़ने वाले पर
बजती आयीं थी।
. . . पर बजीं नहीं।
मैं देख रहा था
द्रौपदी के
चीरहरण जैसे शब्दों पर
तालियाँ ख़ूब बजा रहे थे लोग
अस्मत के
टुकड़े होने वाले शब्दों पर
अट्टहास ख़ूब लगा रहे थे लोग
लेकिन
किसी अबला के क्रंदन की बातें
न कोई करता था
और न कोई सुनने को था।
मैंने देखा
अब कविता ने भी
नई परिभाषा गढ़ ली है
हास्य ने रूप बदल लिया है
पोर्न जैसे शब्द ने
पाँव जमा दिए हैं
नये-नये जोक्स को लेकर
इसलिए कि
सभी को मिली है स्वतंत्रता
इन शब्दों को कहने के लिए
हमारी ही सभ्यता-संस्कृति पर
इसलिए कि
सुनने वाले तो
हम ही होते हैं।
सच यह है कि
हमने तालियाँ बटोरने का
हुनर अभी सीखा नहीं था
और न ही उन शब्दों को पढ़ा था
जो अँग्रेज़ी से आये थे
जोक्स के नाम पर
हिंग्लिश बनकर
हमने तो रट रक्खा था
दिनकर, निराला, महादेवी वर्मा
और कुछ-कुछ फ़ैज़, फ़िराक़ को
जो अबके ज़माने के नहीं थे।
मुझे याद है
तालियाँ नहीं बजी थीं मगर,
मंच से उतरने के बाद
एक बुज़ुर्ग ने
मेरे सर पर हाथ रख
केवल इतना ही कहा था—
“हमारी पीढ़ी का दायित्व
तुम ही निभाओगे”
1 टिप्पणियाँ
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सारगर्भित कविता की बधाई!