उपहार

कुमारी अन्नुश्री (अंक: 240, नवम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

अन्नु आज सुबह से ही व्यस्त थी। क्योंकि भाई-बहन का प्रवित्र त्योहार रक्षाबंधन आज ही था। उसे यह त्योहार महीनों से इंतज़ार था। वह सुबह जल्दी उठकर घर के काम से निपट रही थी। राखी बाँधने का समय अपराह्न दो बजे के बाद था। फिर भी वह अपने भैया को राखी बाँधने के लिए बहुत उत्सुक थी। वैसे तो वह प्रतिदिन सुबह नौ बजे तक नाश्ता कर लेती थी, लेकिन आज उसे भूख और प्यास नहीं . . .

बार-बार अपने हाथ के घड़ी को देखती और निराश हो जाती है। अभी शुभ मुहूर्त में दो घंटे देर है। तब तक वह अपने भैया के लिए उनके मन-पसंद पकवान बनाने के लिए जुट गई। वैसे तो खाना बनाने से जी चुराती थी। 

कुछ समय बाद उनकी प्रतीक्षा पूर्ण हुई। 

"माँ! भैया को जल्दी तैयार होने कहो . . .” अन्नु चहकती हुई बोली। उसके भैया ने नए कपड़े पहन कर आसन ग्रहण किया। अन्नु ने ख़ुशी और उल्लास से अपने भैया को आरती दिखाई, फिर-चंदन से तिलक किया और राखी बाँध कर मिठाई खिलाई। उसने अपने रक्षा के लिए कुछ नहीं माँगा . . .

अब उसके भैया ने अन्नु को एक बड़ी-सी थैली देते हुए कहा, “लो तुम्हारा महँगा उपहार!”

उपहार देखकर अन्नु ज़्यादा ख़ुश नहीं हुई और कक्षा में पढ़ा चुके अमित सर के कथन बार-बार उसके मन में हिंडोले मार रहे थे, ‘जो बेटा माँ-पिता का इतना प्यारा होता है, शादी के बाद लड़का बदल जाता है, अपना माता-पिता का ख़्याल नहीं रखता’ इन्हीं ख़्यालों में वह खो गई। 

एकाएक उसके भैया सर में मारते हुए पूछा, “उपहार कैसा लगा?”

लेकिन अन्नु उदास होकर कहा, “मुझे उपहार नहीं, आपसे प्राॅमिस चाहिए कि . . .”

“क्या चाहिए बताओ?” उनके भैया ने पूछा। तब तक उसकी भाभी भी वहाँ आ चुकी थी। 

अन्नु कुछ नहीं कह सकी। 

सिर्फ़ मन ही मन अमित सर के कथन को दोहराती रही, ‘मुझे यह उपहार चाहिए कि, माँ-पिताजी का हमेशा ख़्याल रखिएगा। उनके सुख-दु:ख में साथ रहिएगा। मुझे यही उपहार चाहिए।’

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