उम्मीद
हरविंदर सिंह 'ग़ुलाम'उदास रातों में उम्मीद की शमां जलाओ यारो
सन्नाटे की दीवारों पर ख़ुशियाँ सजाओ यारो
फिर ये ख़ामोशी भी छेड़ेगी तराना कोई नया
इस वीराने में गीत कोई भला गुनगुनाओ यारो
उम्र के साथ बढ़ती गईं मुश्किलें तो क्या
तज़ुर्बे की तपिश से इसे सुलझाओ यारो
सब्र से काम लेना जो फिर से तूफ़ां आए
ज़िन्दगी की कश्ती को लेना कसके थाम यारो
और जब गुज़र जाए रात मुश्किल अँधेरों भरी
नई सुबह को देना फिर से नयाँ पैग़ाम यारों
ज़िन्दगी यूँ ही गुज़री है मेहनत में तो क्या
नस्ले रखेंगी अपने दिलों ताज़ा अपना नाम यारों
ग़ुलाम के होने न होने में क्या रखा है हुज़ूर
वो तो लिखा ही करता है सुबह-ओ-शाम यारो
न जाने किस मुक़ाम पे ले जाकर छोड़ेगी ये आशिक़ी
बदनामी में भी जिससे रौशन हुआ उसका नाम यारो