उलझन

डॉ. मो. इसरार (अंक: 234, अगस्त प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

गली में खड़े होकर इकरार ने नवाज़ को ज़ोर-ज़ोर से दो-तीन आवाज़ लगाई, “ए नवाज़! ए नवाज़! आज कॉलेज का पहला दिन है और तुम आज भी देर कर रहे हो। अपनी ये लेट-लतीफ़ी की आदत कब छोड़ोगे? मैं गाँव से समय पर यहाँ पहुँच गया और तुम अभी तैयार भी नहीं हुए हो?” 

नवाज़ ने अपने दुमंज़िले मकान की खिड़की से झाँककर कहा, “बस दो मिनट वेट कर। अभी नीचे आया।” 

हुआ भी ऐसा ही। इकरार को अधिक इंतज़ार नहीं करना पड़ा। नवाज़ सज-सँवरकर गली में पहुँच गया और इकरार से हाथ मिलाया। फिर दोनों बातचीत करते हुए कॉलेज की ओर चल दिए। 

“तुम्हें पता है कि नहीं, अदिबा ने भी हमारे कॉलेज में ही एडमिशन लिया है,” इकरार ने फ़रमाया। 

“उसका घर तो कॉलेज से चालीस किलोमीटर दूर है। वह प्रतिदिन घर से कैसे आया-जाया करेगी?” नवाज़ की जिज्ञासा होंठों पर आयी। 

“अरे नहीं, यहीं देवबंद में ख़ाला के घर रह कर पढ़ाई करेगी और सप्ताह में घर जाया करेगी,” इकरार ने अपने उत्तर से नवाज़ की जिज्ञासा को शांत किया। 

बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ना आरंभ हुआ। इकरार और नवाज़ में छुट्टियों में घूमने-फिरने, नए पाठ्यक्रम की पुस्तकों की व्यवस्था, आगे करियर के चुनाव आदि को लेकर कई प्रकार की चर्चा-परिचर्चा हुई और वे बातचीत करते हुए कॉलेज पहुँच गए। 

इकरार, नवाज़ और अदिबा अच्छे दोस्त होने के साथ ही रिश्तेदार भी थे। तीनों ने एक साथ ‘राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, देवबंद’ में स्नातक प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया। तीनों के जीवन-जीने, पढ़ने-लिखने के अलग-अलग उद्देश्य थे। 

इकरार का गाँव कॉलेज से बारह किलोमीटर की दूरी पर था। वह पब्लिक ट्रांसपोर्ट के माध्यम से कॉलेज आवागमन करता। ख़ूब पढ़ाकू, किताबी कीड़ा, करियर बॉय, संवेदनशील लड़का आदि के ख़िताब उसे दोस्तों, परिवार वालों और रिश्तेदारों से मिले हुए थे। उसे अपनी किताबों के सिवा कोई भी सुंदर वस्तु अच्छी नहीं लगती थी। कोई भी किताब ख़रीदकर एक-दो दिन में ही पढ़ डालने की आदत थी, उसकी। किताबों में उसकी आत्मा बसी हुई थी। 

नवाज़ भावुक प्रवृत्ति का लड़का था। उसके दो शौक़ थे—नए-नए फ़ैन्सी कपड़े पहनना और सुंदर लड़कियों के साथ बातचीत करना। कॉलेज की किसी भी सुंदर लड़की से बात करने के लिए वह बड़ी से बड़ी शर्त दोस्तों से लगा लेता था। इस काम में उसे महारत हासिल थी। जब कभी स्वयं से काम नहीं बनता तो वह अदिबा को मोहरा बनाकर इस काम को अंजाम देता। नवाज़ का इस प्रकार कॉलेज की लड़कियों से हमेशा बातें करना कुछ लड़कों को अखरता भी था। इस प्रवृत्ति के कारण नवाज़ और कुछ अन्य लड़कों का एक-दो बार झगड़ा भी हुआ। लेकिन नवाज़ के सहयोगियों ने बीच-बचाव करके मामले को शांत कर लिया। 

अदिबा कुछ संकोची स्वभाव की लड़की थी। वह अपनी बातें कभी भी स्पष्ट रूप में नहीं कह पाती थी। नवाज़ के प्रति उसका विशेष प्रकार का आकर्षण था। इसलिए विभिन्न अवसरों पर नवाज़ को गिफ़्ट देती थी। जिसके लिए वह कोई न कोई बहाना खोज लेती थी। कैसा भी काम हो वह नवाज़ का सहयोग करने में तत्पर रहती थी। पढ़ाई में वह मध्यम स्तर की छात्रा थी। 

अपने-अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए तीनों ने एक साथ स्नातक उत्तीर्ण कर लिया। नवाज़ के अंक और श्रेणी बिलकुल संतोषजनक नहीं रही। इसलिए उसने आगे किसी भी पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने के स्थान पर पढ़ाई छोड़कर पुस्तकों और स्टेशनरी की दुकान आरंभ कर दी। 

इकरार अपने करियर के प्रति जुनूनी था। उसका सपना ऑफ़िसर या प्रोफ़ेसर बनने का था। इसलिए उसने आगे स्नातकोत्तर में प्रवेश लिया और शहर में किराए पर कमरा लेकर पढ़ाई करने लगा। 

अदिबा का कोई निश्चित लक्ष्य या उद्देश्य नहीं था। उसने शिक्षण संबंधी एक सामान्य से पाठ्यक्रम ऐन.टी.टी. में प्रवेश ले लिया। उसकी ख़ाला की कोई बड़ी संतान नहीं थी इसलिए ख़ाला के विभिन्न कामों में हाथ बटाते हुए वह देवबंद में ही रहने लगी। 

जीवन यात्रा का पहिया घूमने लगा तो तीनों अपनी-अपनी राहों पर चलने लगे। 

नवाज़ का नियम सा बन गया कि वह शाम के समय जब भी अपनी दुकान के छिटपुट सामान की भरपाई के लिए होलसेलर के पास पुस्तकें और स्टेशनरी आदि सामान लेने जाता तो अदिबा से ज़रूर मिलता। क्योंकि अदिबा की ख़ाला नवाज़ की फुआ लगती थी इसलिए शाम का खाना खिलाए बिना, वह कभी भी उसे विदा न करती। नवाज़ खाना खाता, कुछ समय टीवी पर किसी प्रसिद्ध वेब सीरीज़ का कुछ अंश देखता, अदिबा से बातें करता। खाना समाप्त होते ही नवाज़ फुआ से विदा लेता। अदिबा उसको गेट तक छोड़ने आती और उसके बाहर निकलते ही दरवाज़े की कुंडी बंद कर लेती। 

नवाज़ सीधा इकरार के कमरे पर पहुँचता और अदिबा के साथ बिताए लम्हों की बढ़ा-चढ़ाकर चर्चा करता। 

नवाज़ सप्ताह में दो-तीन बार अदिबा से अवश्य मिलता और उसके साथ की गयी हँसी-मज़ाक को प्यार के आवरण में लपेटकर इकरार को सुनाता। इकरार को इस मामले में न अधिक दिलचस्पी थी और न रूखापन। नवाज़ जैसा क़िस्सा, घटना, मामला आदि बताता वह वैसा ही मान लेता। 

जैसा कि ऊपर वर्णित है, अदिबा का नवाज़ के प्रति पहले से ही विशेष आकर्षण था। इसलिए नवाज़ को भी अदिबा के प्रति हमदर्दी सी होने लगी। दोनों साथ खाना खाते, टीवी देखते और ख़ूब बतियाते। धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे थे। फुआ भी चाहती थी कि दोनों का विवाह हो जाए। लेकिन समस्या यह थी कि नवाज़ के दादा ने मरने से पहले अपने एक दोस्त के यहाँ उसकी मंगनी तय कर दी थी। नवाज़ के अब्बू से वादा कराया था कि वे उसका विवाह वहीं करेंगे। 

जैसा कि नियम सा बन गया था-नवाज़ शाम को अक़्सर फुआ के घर खाना खाता, अदिबा से गप्पें करता और इकरार के कमरे पर वापस आकर उसे अपने और अदिबा के भावात्मक क़िस्से सुनाता। एक दिन नवाज़ ने इकरार को बताया कि आज उसने अदिबा को अपने दिल में छुपी सभी बातें कह डालीं। अदिबा ने भी स्वीकार किया है कि वह भी उसे पिछले तीन वर्ष से चाहती है, लेकिन कभी ऐसा अवसर नहीं मिला कि कुछ कह सके। 

फिर एक दिन नवाज़ ने इकरार को बताया कि आज जब अदिबा उसे गेट तक छोड़ने आई तो उसने अँधेरे का लाभ उठाकर उसका हाथ पकड़ लिया। इससे वह सहम गई, उसने शीघ्रता से हाथ छुड़ाकर दरवाज़ा बंद कर लिया। 

एक दिन जब अदिबा नवाज़ को गेट तक छोड़ने आयी, उसने उसका हाथ चूम लिया। एक दिन चुम्मा ले लिया। एक दिन होंठों का किस्स कर लिया। एक दिन अपने आलिंगन पाश में बाँध लिया . . . आदि, आदि। कई अन्य गंभीर बातें भी नवाज़ ने इकरार को बताई। एक वर्ष तक यही सिलसिला चलता रहा। 

उक्त मामले की कोई ऐसी बात नहीं छूटी थी, जो नवाज़ ने इकरार को न बताई हो। कई बार तो वह किसी घटना को काफ़ी बढ़ा-चढ़ाकर बताता। जिस दिन कुछ नहीं होता, उस दिन कोई नया क़िस्सा गढ़कर यह दर्शाने का प्रयास करता कि अदिबा जैसी लड़कियाँ उसकी कितनी दीवानी हैं। 
इकरार जब ये सारी बातें सुनता तो उसका मन भी प्यार करने का होता। लेकिन इसका कोई न कोई तोड़ निकालकर वह स्वयं को नियंत्रित कर लेता। 

परिस्थितियों ने करवट बदली तो, किसी विवाह में अदिबा और इकरार के अब्बाओं की मुलाक़ात हो गयी। दोनों में गपशप होने लगी तो हँसी-मज़ाक में दोनों में अदिबा और इकरार के विवाह की बात छिड़ गयी। दोनों ने सोचा पुरानी रिश्तेदारी को क्यों न नया बना लिया जाए। जब एक-दो रिश्तेदारों के सामने इस मामले को रखा गया तो सबने सहर्ष सहमति दी। नवाज़ के अब्बा से मशविरा किया तो वे चट मँगनी, पट विवाह करने को कहने लगे। चर्चा इतनी फैली कि लगा एक-दो सप्ताह में ही इकरार और अदिबा का विवाह हो जाएगा। 

अदिबा और इकरार को इस बारे में तनिक भी जानकारी नहीं। जबकि उनके रिशतेदारों में यह बात दूर तक फैल गयी। इस मामले की थोड़ी सी सूचना नवाज़ को भी मिल गयी। वह अदिबा के साथ शादी तो करना चाहता था, लेकिन जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, उसके दादा ने मरने से पहले उसका रिश्ता अपने एक दोस्त के परिवार में तय कर दिया था। 

नवाज़ काफ़ी चिंतित हो उठा। एक द्वंद्व सा उसके मन में छिड़ गया। कभी उसे बिना किसी कारण ही बहुत ग़ुस्सा आता तो कभी गुमसुम, खोया-खोया एक स्थान पर बैठा रहता। अजीब सी उलझन उसके दिल व दिमाग़ में गाँठ सी-बन गयी। प्रतिक्षण यही सोचता रहता कि इकरार को कैसे समझाए? कैसे यक़ीन दिलाए कि उसने अदिबा के साथ कोई ग़लत काम नहीं किया? अदिबा के साथ वह जो कुछ भी करता था, सब कुछ बढ़ा-चढ़ाकर तो इकरार को बताता था। 

यदि अदिबा और इकरार की शादी हो गयी तो क्या होगा? उनकी शादी अधिक दिन चल पाएगी? इकरार, अदिबा और नवाज़ के बीच होने वाली प्रत्येक बात जानता है। क्या वह अदिबा को पत्नी के रूप में स्वीकार कर पाएगा? वह हमेशा उसे बदचलन समझता रहेगा। ऐसे ही प्रश्नों की उलझन में नवाज़ आज तक उलझा हुआ है। 

इस उलझन को कैसे सुलझाया जाए आप भी ज़रा सोचिए। 

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