दूसरा ब्रह्मा

15-01-2020

दूसरा ब्रह्मा

डॉ. मो. इसरार (अंक: 148, जनवरी द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

‘महाराज कॉलेज ऑफ़ मैसूर’ में उसकी पहचान अत्यधिक सुंदर लड़की के रूप में की जाती थी। और वह थी भी वास्तव में बहुत ख़ूबसूरत और प्यारी। कुछ स्टूडेंट्स तो इस बात का भी दावा किया करते थे कि उसके जैसा हसीन किसी संकाय, किसी विभाग या किसी क्लास में है ही नहीं। यहाँ तक कि उसके शिक्षक-शिक्षिकाओं को भी विश्वास था कि यदि वह मिस वर्ल्ड या मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में भाग लेगी तो अवश्य ही प्रथम स्थान प्राप्त कर लेगी। इसलिए उसकी कई सहेलियों ने उसे मॉडलिंग के लिए उकसाना भी आरम्भ कर दिया था। 

बड़ी-बड़ी हिरनी सी आँखें, जिनकी उपमाएँ अक्सर काव्य-साहित्य में दी जाती हैं। काले-काले घने बाल, जो अपनी सम्पूर्ण लम्बाई के मध्य से कटे थे। वे अक्सर उसके शानों पर बिखरे दिखाई देते। पर जब कभी उन्हें कसकर बाँध दिया जाता, कुंडली जमाए काले नाग के समान लगते। छरहरा शरीर न अधिक मोटा और न पतला। मन मोहिनी मटकवा चाल। शरीर का प्रत्येक अंग मुक़म्मल, जिनमें दोष ढूँढ़ पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी था। उसकी आवाज़ में खनक थी। और उसके बोलते समय कई बार ऐसा लगता था जैसे स्वर के साथ घुँघरू बज रहे हों। 

जब उसने बी.ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया, वह कुछ ही महीनों में लड़कों के बीच कौतूहल का विषय बन गई थी। कॉलेज में ऐसा कोई नहीं था जो ‘सारिका’ नामक इस न्यू प्रवेशिता के नाम से वाकिफ़ न हो चला हो। सीनियर हो या फिर उसके कक्षा-सहपाठी, सभी उसे जानने-पहचानने लगे थे। मनचले उसे देखते ही दिल पर हाथ रखकर कसक भरी आह! भरने से नहीं चूकते थे। 

नर्म-नाज़ुक, ताज़ा खिले फूल सी सारिका प्रात: दस बजे के आस-पास कॉलेज आती और अपने पीरियड्स एटेंड कर लगभग दो बजे घर लौट जाती। ड्राईवर उसे गाड़ी से लेकर आता और उसके लौटने तक कॉलेज कैंटीन में बैठकर अपने साथ लाए हुए अख़बार पढ़ने के साथ-साथ चाय की चुस्कियों का मज़ा लेता रहता। या वहीं चलने वाले टी.वी. पर धारावाहिकों और फ़िल्मों को देखकर अपने समय का सदुपयोग करता रहता। बीच-बीच में बिन किसी से कुछ बोले कभी इधर-उधर टहल आता।

वह गुप्त रूप से सारिका के पीछे रहता, शायद उसकी प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान रखने के लिए। लड़के उसे ड्राईवर कम सारिका का बॉडीगार्ड अधिक मानते थे। और वास्तव में ऐसा था भी। वह एकदम हष्ट-पुष्ट, भीमकाय आकृति वाला था। उसने कराटे में ब्लैकबैल्ट अर्जित की हुई थी। इसलिए कोई उससे भिड़ता नहीं था। 
सारिका अट्ठारहवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी थी और कौन नहीं जानता इस उम्र तक लड़कियाँ जवान हो जाया करती हैं। प्रत्येक अंग कपड़ों के अन्दर से ही झाँक-झाँककर उसके जवान होने का संकेत देता था। संक्षिप्त शब्दों में कहें तो उसकी फ़िगर बहुत ही आकर्षक थी। 

जब वह हाई स्कूल की छात्रा थी तभी लम्बे समय से बीमार, कैंसर पीड़िता उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिछले तीन वर्ष से रोगग्रस्त थी, बेचारी। 

अब सारिका और उसकी छोटी बहन ‘सिन्धु’ अपने पिता गौतम भोसले के साथ बड़े से फ़्लैट में रहती हैं। सात कमरों वाला बड़ा फ़्लैट। गौतम भोसले उसी में अपनी दोनों बेटियों के साथ रहते हैं। एक ड्राईवर और खाना बनाने के लिए एक अधेड़ नौकर। कुल मिलाकर पाँच प्राणी ही रहते हैं उसमें।

गौतम भोसले रियल स्टेट के मालिक और काफ़ी धनी व्यक्ति हैं। प्रोपर्टी की देखभाल के लिए स्थायी मेनेजर नियुक्त किया हुआ है, जो उनका रिश्तेदार ही है। हफ़्ता-दस दिन में उससे हिसाब-किताब की जाँच कर लेते हैं। अन्यथा पूरे दिन पेंटिंग्स बनाने में मग्न रहते हैं। कई बड़ी प्रदर्शनियों में भी नाम कमाया है उनकी पेंटिंग्स ने।

लेकिन काफ़ी शक्की आदमी हैं। किसी को घर आमंत्रित नहीं करते, बाहर का काम बाहर ही निपटा लेने की आदत है उनकी। वे नहीं चाहते कोई उनकी बेटियों से मिले। बहुत कम समय उन्हें स्वयं से जुदा रखते हैं। शायद, उनके स्कूल टाइम तक। बेटियों की सुख-सुविधा का पूरा-पूरा ख़्याल रखते हैं। सारिका की कई पेंटिंग्स बनाकर उन्होंने अपने शयन-कक्ष में लगाई हुईं हैं। वे दस में से दो पेंटिंग सारिका की बनाते ही हैं। बस अपनी ही तरह के इन्सान हैं। उनके ड्राइंग रूम में जाने की किसी को अनुमति नहीं............। 

सारिका पहले बहुत हँसोड़ थी। सब पर व्यंग्य करना, शरारतें करते हुए दूसरों को छेड़ना उसकी आदत थी। चुलबुली सी सिन्धु के साथ भी झगड़ते रहती थी। पर अब कुछ समय से रिज़र्वड सी हो गई है। कम बोलना, किसी से अधिक मिलना-जुलना नहीं। अपने कमरे में अकेले मूर्तिवत मौन बैठे रहना या पुस्तकों के पन्ने इधर से उधर पलटते रहना। बात-बात पर खीजने भी लगी है। कहीं घूमने-फिरने के लिए कहो, ‘मूड नहीं।’ या सरदर्द का बहाना बनाकर टाल देना। किसी प्रकार की चिंताओं पर गहराई से विचारते हुए स्वयं तक सीमित। 

इस उत्तर आधुनिकता के युग में वह एकांतवासी योगी का सा जीवन जीने लगी है। इस प्रकार का परिवर्तन उसमें कुछ ही महीनों पूर्व आया है। ऐसी दशा अक्सर प्रमियों की देखी जाती है। उसके सहपाठी चाहते हैं, ‘सारिका उनसे मिले-जुले, गप्पें-शप्पें लगाए, पिकनिक पर जाए। उनकी पार्टियों में शामिल हो।’ पर सारिका समय का बंधन टूटते ही डरने लगती है। चिंतित हो उठती है। शायद पापा का डर है, जिनकी हिदायत है, ‘समय पर कॉलेज जाओ और पीरियड ऑफ़ होते ही सीधे घर लौट आओ।’

जब सारिका ने कॉलेज में प्रवेश लिया था तो तीन-माह पश्चात ही उसके दिल में एक मासूम-सा चेहरा समा गया था। वो धीरे-धीरे उसके दिल की गहराइयों में इतने नीचे उतर गया कि उसे बाहर निकाल फेंकना कठिन हो गया। ये कमबख़्त दिल भी अजीब चीज़ है, जिस पर मचल उठे, फिर चाहे जितना समझाओ उसी ओर झुकता जाता है।

अनवर की बैटिंग, उसका सेक्सी खेल, शोर्ट लगाने का अंदाज़, रन चुराने की कला आदि सारिका के दिल को छू गई। अनवर का नेतृत्व, टीम के प्रति समर्पण, प्रत्येक खिलाड़ी को उत्साहित करना, सारिका को आकर्षित कर गए। वैसे भी वह क्रिकेट की दीवानी थी। अनवर का व्यक्तित्व, भोले-भाले चेहरे की कशिश, सारिका को भा गई। जी-जान से मर मिटी वह उस पर। शायद उसे ऐसे ही साथी की तलाश थी। 

फिर क्या था, बस उसने सोच लिया, ‘अगर किसी को जीवन साथी बनाना है तो वह सिर्फ़ अनवर को।’ अपना प्यार भरा सन्देश उसने एक सहेली के माध्यम से अनवर तक पहुँचा दिया। पर अनवर ने अधिक रेस्पोंस नहीं दिया। हल्के में लेकर अनदेखा सा कर दिया। इससे चोट खाई मुहब्बत और अधिक जवान हो उठी। 

अनवर की कुछ मजबूरियाँ थीं, तो कुछ सामाजिक सरोकार। उसे केवल एक ही धुन थी- वह था उसका कैरियर और क्रिकेट के प्रति समर्पण। इसी में वह अपना भविष्य खोजने के लिए प्रयासरत था। क्रिकेट के जूनून ने उसे अपने कॉलेज की टीम कप्तान के ओहदे तक पहुँचाया था। अपनी टीम को वह पूर्णत: समर्पित था और नहीं चाहता था कि उसकी टीम कभी भी पराजित हो। सम्पूर्ण ध्यान अपनी टीम, अपने खेल पर केन्द्रित। अनवर का विचार था, ‘यदि क्रिकेट में कैरियर बन गया तो वर्षों की ग़रीबी से छुटकारा। घर-परिवार की स्थिति बेहतर होगी। राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलने का अवसर मिल गया तो, एक हज़ार सारिकाएँ मिल जाएँगी।’ इसलिए उसने इस समय प्यार को अधिक वरीयता नहीं दी। 

दूसरे, उसे हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक डॉ. नामदेव गौड़ा के एहसानों का कर्ज़ भी उतारना था, जो पिछले तीन वर्षों से उसकी कॉलेज-फ़ीस भरते आ रहे थे। माँ-बाप से बढ़कर सहायता की थी उन्होंने उसकी। वह उनके घर पर रहकर ही अपनी शिक्षा अर्जित कर रहा था। दूसरों को बताने के लिए अनवर का घर था। पर उसमे ग़रीबी के अतिरिक्त कुछ और था ही नहीं। यदि गौड़ा साहब उसकी मदद न करते, वह एक कक्षा भी आगे न पढ़ पाता। और फिर कहाँ सारिका जैसी बड़े बाप की बेटी और कहाँ ग़रीब अनवर, दोनों का मिलाप अत्यन्त कठिन था। इसी प्रकार की कई अन्य बातों पर विचार करते हुए अनवर ने प्रेम जाल के फंदे में फँसने का विचार त्याग दिया। पर किसी के प्यार भरे अनुरोध को ठुकराने की कसक उसके हृदय में रह गई। 

लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, वक़्त बदला, फ़िज़ा बदली, अनहोनी होनी में बदल गई। धीरे-धीरे अनवर सारिका से प्रेम करने लगा। शायद उसकी सुन्दरता पर रीझकर। और कहते हैं न ‘ख़ूबसूरती के आगे सब कुछ टांय-टांय फिस्स हो जाता है।’ या फिर अपने ऊपर पड़ने वाली उसकी चाह भरी दृष्टि का क़ायल होकर, वह उस पर मरने लगा हो। फिर मुख़्तसर क़िस्सा ये हुआ कि दोनों एक-दूसरे से अत्यधिक प्यार करने लगे। उनके मध्य इतनी प्रगाढ़ता बढ़ी कि उनके बीच जो नहीं होना चाहिए था वह भी हो गया। 

अब अनवर को एहसास होने लगा, ‘सारिका के मिलाप के विषय में वह जैसा सोच रहा था, वैसा कुछ हुआ नहीं। उसने ग़लत अवधारणा बना ली थी। न उसके खेल पर कोई विपरीत या कुप्रभाव पड़ा और न उसकी प्रेक्टिस में व्यवधान आया। बल्कि उसे अपनी शक्ति बढ़ी हुई दिखाई दी। सारिका का प्यार उसे उत्साहवर्धन कैप्सूल के रूप में दिखाई दिया। उसने उसे हमेशा ही उत्साहित किया। अब उसके खेल में और भी निखार आ रहा था।

अनवर ख़ुश था और चाहने लगा था, सारिका उसकी जीवन संगिनी बने। पर अपनी आर्थिक समस्याओं का भी उसे एहसास था। गृहस्थ जीवन में आख़िर ज़िम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। अब दोनों एक-दूसरे का जीवन साथी बनने को तैयार थे। उन्होंने धर्म, जात-पात, अमीरी-ग़रीबी सबको अनदेखा कर दिया था। प्यार में सब कुछ जायज़ हो गया. . . .।

इसी बीच हफ़्ते-दस दिन में अचानक सारिका की तबीयत ख़राब होने लगी। ऐसा कोई एक दिन नियत तो नहीं था, पर ऐसा दिन आता अवश्य था। चक्कर आने लगते, कभी मितली का मन बनता, ब्लडप्रेशर कम हो जाता। आँखे भर्राई सी रहती, जिनमे निद्रा अपनी दस्तक दिए जाती। ऐसी हालत में वह कॉलेज तो आती -शायद अनवर से मिलने- पर शीघ्र ही लौट जाती। पूर्व के दिन उसकी सहेलियाँ या अनवर उससे कितना भी विश्वासपूर्ण वादा कराते हों, पर ऐसे दिन वह अवश्य ही लेट हो जाया करती। लगभग उसी दिन सारिका की तबीयत भी बिगड़ती। 

सारिका के साथ ऐसा क्यों होता, इसका रहस्य कोई नहीं जानता था। यहाँ तक कि स्वयं सारिका भी इस विषय में अनभिज्ञ थी। किसी सहेली ने कारण पूछा तो सारिका ने बताया, ‘पता नहीं किसी एक दिन क्यों मैं नींद से नहीं जाग पाती? रात में सोती हूँ तो सुबह 9-10 बजे से पूर्व उठा ही नहीं जाता। जबकि मैं शाम को 9-10 के बीच सो जाती हूँ। प्रतिदिन की भाँति बिस्तर पर जाती हूँ पर कुछ अनहोना सा होता है। नौकर को डाँटती हूँ, तुमने मुझे क्यों नहीं जगाया, मेरा कॉलेज था?’ वो जवाब देता है, ‘मैंने कई बार आपको उठाया था, आप जागी ही नहीं।’ फिर अक्सर बाबूजी आकर डाँट देते हैं, ‘क्यों परेशान करते हो, सोने दो।’ उसी दिन बदन टूटा-टूटा रहता है। मन की दशा विचित्र सी होती है। कुछ भी अच्छा नहीं लगता।

दिन, महीनों में तबदील हो-होकर गुज़रते रहे। उसी प्रकार के वातावरण में सारिका और अनवर की मुहब्बत भी परवान चढ़ती रही। लेकिन वे हमेशा छुप-छुपाकर ही मिलते थे। क्योंकि सारिका का ड्राईवर उर्फ़ बॉडीगार्ड उसकी प्रत्येक गतिविधि का ध्यान रखता था। अब वह पहले से अधिक सचेत हो गया था। यह उसकी ज़िम्मेदारी थी और सारिका के पिता द्वारा सौंपा हुआ कर्तव्य। वह उन दोनों के विषय में न कुछ जानते हुए भी बहुत कुछ जान गया था। ड्राईवर से बचकर मिलने के तीन स्थान थे- लायब्रेरी, ज्यूलोजी लैब या फिर बॉयज़ हॉस्टल के पीछे का बग़ीचा। आँख मिचौनी का यह खेल महीनों तक चलता रहा। 

कॉलेज कैलेंडर के अनुसार फरवरी माह में कॉलेज-गेम तथा मार्च में परीक्षाएँ होना तय थीं। दौड़, चक्का-गोला फेंक, ऊँची-लम्बी कूद, खो-खो, बैडमिन्टन आदि ऐसे खेल थे जो कॉलेज स्तर पर आयोजित होने थे। लेकिन क्रिकेट एक ऐसा खेल था जो कॉलेज के अतिरिक्त विश्वविद्यालय स्तर पर भी आयोजित होना था। प्रस्तावित टूर्नामेंट मे मैसूर विश्वविद्यालय से सम्बद्धता प्राप्त विभिन्न कॉलेजों की पन्द्रह क्रिकेट टीमों का खेला जाना सुनिश्चित था। महाराज कॉलेज से जो टीम चुनी गई उसका नेतृत्व अनवर के हाथों में था। उसका कुशल नेतृत्व, उसकी बैटिंग और साथ ही अन्य चयनित खिलाड़ियों की योग्यता को सभी जानते थे। क्योंकि कड़े अभ्यास के पश्चात टीम का चुनाव किया गया था। क्रिकेट में रुचि रखने वाले अधिकांश विद्यार्थियों को अपने कॉलेज टीम के कौशल पर गर्व था। इसलिए यही क़यास लगाया जा रहा था कि महाराज कॉलेज की टीम ही फ़ाइनल जीतेगी। 

समय आने पर विश्वविद्यालय के खेल परिसर में क्रिकेट टूर्नामेंट का आयोजन आरम्भ हो गया। प्रतिदिन तीन-तीन मैचों के हिसाब से एक सप्ताह में फ़ाइनल होना था। कुल मिलाकर सभी टीमों ने अच्छा प्रदर्शन किया और जैसी सम्भावना व्यक्त की जा रही थी वैसा ही हुआ। अनवर के कुशल नेतृत्व से टीम फ़ाइनल तक पहुँच गई। उनकी प्रतिद्वन्दी टीम के रूप में मैसूर विश्वविद्यालय की टीम फ़ाइनल में पहुँची। पुरस्कार के रूप में विजेता टीम को ट्राफ़ी के साथ दो लाख की धनराशी मिलना तय था। 

फ़ाइनल मैच से एक दिन पूर्व अनवर और सारिका गुप्त रूप से मिले। सारिका अपनी एक सहेली के बर्थडे में जाने का बहाना कर उससे मिलने आयी थी। अनवर ने सारिका से कल का फ़ाइनल मैच देखने का वादा कराया। यदि वह नहीं आयेगी तो वह हताश हो जाएगा। अनवर जानता था सारिका ने उसके सभी मैच देखे हैं और उसे बहुत उत्साहित भी किया है। 

उन दोनों में तय हुआ कि यदि टीम जीत गई तो दोनों कोर्ट मेरेज करेंगे। बाद में जो होगा देखा जाएगा। एक पवित्र पेड़ के नीचे खड़े होकर उन्होंने साथ जीने-मरने की क़सम खाई। उनके मध्य इतनी प्रगाढ़ता हो गई थी कि अब जुदा नहीं रह सकते थे। 

ठीक उसी दिन सारिका के ड्राईवर ने सारिका-अनवर की प्रेम कहानी के विषय में उसके पिता को सब कुछ बता दिया। वह गुप्त रूप से उसका पीछा करता हुआ आया था। मोबाइल कैमरे से ली गई तस्वीरें भी उसने उन्हें दिखाई। फिर जैसी आशंका सोची जा सकती है वैसा ही हुआ। 

दूसरे दिन महाराज कॉलेज और मैसूर विश्वविद्यालय की टीमों के मध्य फ़ाइनल मैच आरम्भ हुआ। दोनों टीमों के प्रशंसक, उत्साहवर्धक, हितैषी व्यक्ति मैदान में पधारे। लेकिन सारिका, जिसके आने का पूर्ण विश्वास था, वह नहीं आयी। अनवर इस बात से बहुत आहत हुआ। वह जो नहीं चाहता था, वही हो गया। उसका आत्मविश्वास ढह गया। नेतृत्व बिखर गया। परिणाम स्वरूप उसकी टीम बिखर गई और मैच हार गई। उसे दो सदमे एक साथ लगे- फ़ाइनल हारने और विश्वास टूटने का।

एक दिन, दो दिन, चार दिन. . . और फिर महीना गुज़र गया। उसके बाद सारिका फिर कभी कॉलेज में दिखाई नहीं दी। 

इस छोटी सी प्रेम कहानी को घटित हुए जब तीन महीने गुज़र गए। धीरे-धीरे कई गहरे राज़ खुलने लगे। अनवर के आग्रह पर डॉ. नामदेव गौड़ा ने सारिका के आस-पड़ोस के लोगों से मिलकर कुछ गुत्थियाँ सुलझने की कोशिश की। उन्हें कुछ ऐसी विचित्र बातें ज्ञात हुई, जिन्हें सामाजिक दृष्टि से बिलकुल अच्छा नहीं कहा जा सकता। सारिका के पापा अपनी समस्त प्रोपर्टी बेचकर मैसूर से गोआ शिफ़्ट हो गए। ड्राईवर उर्फ़ बॉडीगार्ड के माध्यम से उन्हें सारिका की प्रत्येक गतिविधि ज्ञात हुई थी। अनवर और सारिका के विवाह बंधन में बँधने से वे अवगत हुए तो उनके सीने में जलन की आग दहक उठी। और उन्होंने आनन-फानन में कई विचित्र फ़ैसले लिए।
वह सारिका को स्वयं से अधिक समय तक जुदा नहीं रखते थे। साये के समान हमेशा साथ रहते थे। सारिका पर अपना मालिकाना हक़ बताते थे। रात में नशे की गोलियाँ खिलाकर उसका यौन-शोषण किया करते थे। गोलियाँ दूध में डालकर खिलाई जातीं या खाने में, यह कोई नहीं जानता। किसी न किसी दिन यह कुकर्म होता अवश्य था। उसी दिन सारिका देर से जगती और कॉलेज लेट पहुँचती। शरीर पर बुरा असर होता, दिन भर जी मचलता रहता, मितली सी आती। 

सारिका पर वह अपना मालिकाना हक़ समझते थे या प्यार करते थे यह निर्णय करना थोड़ा कठिन है। लेकिन जब उन्होंने अपने द्वारा खिलाए गए फूल को दूसरे के गले की माला का हिस्सा बनते देखा, वे तैश में आ गए। और दूसरा ब्रह्मा बनकर पुत्री को ही पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। 

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