तुमको रंगों में
सूर्य प्रकाश मिश्र
तुमको रंगों में ढाला तो
लेकिन कल्पना अतृप्त रही
गढ़ डाले कितने शब्द नये
लेकिन साधना अतृप्त रही
कोई शिखर कभी ना आ पाया
शब्दों की व्याकुल बाँहों में
कोई सागर नहीं समा पाया
इनकी बेचैन निगाहों में
सोचा प्राणों से प्राण छुएँ
लेकिन कामना अतृप्त रही
मौसम की मस्ती और कभी
ऋतु की अलसायी अँगड़ाई
रंग डाले पन्नों पर पन्ने
फिर भी वो बात नहीं आई
चाहा तुमको कुछ और पढ़ें
लेकिन भावना अतृप्त रही
साँसों का तेज़-तेज़ चलना
ये रंग कहाँ कह पायेंगे
संवाद, बोलती आँखों के
शब्दों में कहाँ समायेंगे
माँगा ऐसे पल और जियें
लेकिन याचना अतृप्त रही