तुझे हो यक़ीं न हो यक़ीं

15-04-2024

तुझे हो यक़ीं न हो यक़ीं

संजीव प्रभाकर (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

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मुझे और कोई नहीं है डर, तुझे हो यक़ीं न हो यक़ीं, 
मैं जो चुप हूँ तो तुझे सोचकर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं। 
 
तू ने जिस जगह पे कहा मुझे, “न तू याद कर न तू याद आ,” 
मैं खड़ा रहा वहीं उम्रभर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं। 
 
तू ख़्याल में कहीं और था, तुझे रोकता भी तो किस तरह, 
मेरी चीख भी रही बे-असर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं। 
 
यूँ तो दरमियान तेरे मेरे, न थे ताल्लुकात बचे मगर, 
तेरी रख रहा था मैं हर ख़बर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं। 
 
तेरे बाद क्या क्या नहीं हुआ, जो न चाहिए था वो सब हुआ, 
मिली ठोकरें मुझे दर-ब-दर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं। 
 
वहाँ और कुछ न रहा है अब, वहाँ सिर्फ़ एक मकान है, 
वो जो घर था अब न रहा वो घर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं। 
 
तेरा रास्ता मेरा रास्ता, हुआ जिस जगह था अलग-अलग, 
मैं अभी भी हूँ उसी मोड़ पर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं। 

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