तोरपा का साहसी क़दम
शिबु टुडू"चाचा जी, चाचा जी, चाइना में वुहान कहाँ है?" ढ़ाई साल की तोरपा अपने चाचा से पूछा। स्कूल में मैडम से जो बातें चाइना के वुहान शहर के बारे में सुनी थीं, जानना चाहती थी। तोरपा ने फिर आगे कहा, "चाचा जी, हमारी मैडम कह रही थी, वुहान में ना बहुत बड़ी महामारी फैल गई है। बहुत सारे लोग रोज़ मर रहे हैं। इसकी दवा ना अभी नहीं बनी है।"
इस पर तोरपा का चाचा, बच्ची को टाल-मटोल जवाब देता दिखाई दिया। उसने बच्ची के डर को कम करने के अंदाज में जवाब दिया, "नहीं बेटा ऐसी कोई बात नहीं है। मैडम लोग ना बच्चे को डराते रहते हैं। बेटा, चाइना, में कोई वुहान नहीं है, कोई बीमारी नहीं है।"
चाचा के इस जवाब से तोरपा संतुष्ट होती हुई नज़र नहीं आयी, क्योंकि उसने ख़ुद तीनों मैडम को इसके बारे में बातें करते सुना था। बातें करते समय सभी की चेहरे फीके पड़े थे। एक बता रही थी, बाक़ी दो बड़े ध्यान से, डरी, सहमी उसकी बातों को सुन रही थीं। उसे चाचा की बातों में कुछ छिपा हुआ लगा था। चाचा का जवाब तोरपा के बालमन को अविश्वास की गहरी खाई की ओर ले जा रहा था। चाचा पर से तोरपा का विश्वास उठ रहा था। वह सोचने लगी थी, "जो चाचा हमें सच, सच बताने, बोलने को कहते थे, वह आज मेरे बातों पर यक़ीन क्यों नहीं कर रहे हैं? मैंने तो एकदम सुनी हैं, यह तो झूठ नहीं हैं।"
कुछ देर के बाद तोरपा ने अपने चाचा के दाहिने हाथ की हथेली पकड़ कर फिर से वही रटा-रटाया प्रश्न पूछा, "चाचा, बताओ न वुहान कहाँ है? वहाँ क्या हुआ है?"
इस बार भी चाचा वही घिसा-पीटा जवाब देते नज़र आये। चाचा के जवाब से निराश, तोरपा अब मानों निश्चित हो गई कि- जवाब नहीं मिलेगा। वह चाचा को बताने के अंदाज़ में आगे कहने लगी, "चाचा हम लोगों ने एक दिन लुमी के घर के सामने बहुत सारी दवाई बनाई थी। हम लोग गुड़िया शादी खेल रहे थे, तो हमारी एक गुड़िया बीमार हो गई थी। बीमार गुड़िया को लालू भैया ने वही दवाई दी थी और तुरन्त ठीक हो गयी . . ." तोरपा अपने बातों को बोलती जा रही थी, चाचा, हाँ-हुँ में जवाब देता जा रहा था।
एक तरफ़ तोरपा वुहान शहर में फैली बीमारी की रोक-थाम के लिए सिरियस थी, तो दूसरी तरफ़ चाचा उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था। तोरपा, चाचा को दवाई के बारे में बताकर मानों, अपनी रिसर्च सफल हो गई थी, जो उसके अपने बाल-मन को ढाढ़स देने के लिए काफी था कि- अब लोग नहीं मरेंगे। हमने दवाई बना ली है।
रास्ते पर चलते-चलते वह जगह भी आ पहुँची जहाँ, तोरपा और उसके साथियों ने मिट्टी की छोटी-छोटी गोलियाँ बनाकर छोड़ दी थीं। जिस रास्ते पर जा रहे थे, उससे दायीं तरफ़ सिर्फ़ सौ-डेढ़ सौ क़दम की दूरी पर वह जगह थी। तोरपा अपने चाचा को खींच कर वहाँ ले गई, अपनी दवाई के बारे में ढेर सारी बातें बताईं। चाचा, अब तोरपा की हरकत से तंग आ चुका था, वह किसी तरह से तोरपा का पिंड छुड़ाना चाहता था। पर यह क्या- तोरपा तो हफ़्ते भर पहले बनीं उस दवा को वहीं बैठकर समेटने लग गई।
"बड़ा आदमी एक गोली, छोटा बच्चा आधी गोली, गरम पानी के साथ खाएगा, बीमारी दो दिन में भाग जाएगी . . ." तोरपा अपने महानतम अविष्कार की दवाई को समेटते-समेटते बुदबुदा रही थी।
चाचा, दवाई समेटने में मशग़ूल बच्ची को छोड़, बगल में खड़े एक वृद्ध से बातें करने लगे थे। चाचा, बात करते-करते बच्ची को एक तरह से भूल ही गये। तोरपा, अपनी सारी दवाई को अपनी पहनी हुई गंजी के एक छोर में पेट का सहारा लेकर समेटे हुए, बगल के टोले में जा पहुँची, और अपनी दवाई वुहान की बीमारी से बचने की ख़बर बता-बताकर सबको बाँटती जा रही थी। तोरपा को देखकर टोले के लोग जमा हो गए। तोरपा के बारे में खूब चर्चाएँ हो रही थीं। परन्तु, तोरपा पर चर्चा का कोई असर नहीं था। वह अपने काम में व्यस्त थी, टोले में सिर्फ़ और सिर्फ़ उसकी बोली ही ऊपर थी, वह किसी की सुनती नहीं थीं। "बड़े को एक गोली और छोटे को आधी गोली" पूरे टोले में बाँटती जा रही थी। टोले में क़रीब 10-12 घर थे, दो-तीन घर से पहले ही उसकी दवाई ख़त्म हो गई थी। तोरपा ने एक कटोरे में पानी माँगा, मिट्टी में मिलाया, मिट्टी-गूँथी, और तुरन्त बनकर तैयार हो गई वुहान की बीमारी की दवाई। बाक़ी घरों में दवाई बाँटने के साथ ही तोरपा ने मानों एक विजय हासिल कर ली है, के अंदाज़ में धूल से धूसरित अपने हाथ से मिट्टी को छुड़ाते हुए, अपने चाचा की ओर टोले के लोगों से कुछ बोले बिना चल दी।
कुछ दूर जाने के बाद,सामने से दौड़ते हुए आ रहे चाचा को देखकर तोरपा चौंक गई। उसे लगा कि अब डाँट पड़ेगी, पर ऐसा हुआ नहीं। चाचा ने उसे यह कहते हुए चूमा, "तुम कहाँ चली गई थी, बेटा? मैं कितना परेशान हो गया था, तुम्हें वहाँ नहीं पाकर। तुम्हें इधर-उधर ढूँढ़ रहा था, मैं। कहाँ चली गयी थी तुम?"
"चाचाजी मैं तो अपनी दवाई बाँटने गयी थी। सबको दवाई बाँट दी मैंने। अब कोई भी वुहान के बीमारी से नहीं मरेगा। चलो, चाचाजी, जल्दी घर चलो, बहुत भूख लगी है।"
इस बार चाचा के आँखों में आँसू थे। भीगी आँखों के साथ अपने भतीजी को कंधे पर लिए अपने घर की ओर यह सोचते हुए चल पड़े थे कि- "तोरपा के बालमन को मैडम की बातों ने कितनी गंभीर समस्याएँ हल करने के लिए प्रेरित किया है।"