सपनों के पीछे-पीछे मैं

15-08-2022

सपनों के पीछे-पीछे मैं

शिबु टुडू (अंक: 211, अगस्त द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

इंसानों के मस्तिष्क में कुछ घटनाएँ ऐसे होती है, जो भुलाए नहीं भूलतीं हैं। वर्ष 2017 में मेरे साथ भी ऐसा ही हूआ। चूँकि मैं पेशे से शिक्षक एवं रुचि से संताली-हिन्दी भाषा के एक लेखक हूँ। मेरा सपना था कि बड़े-बड़े साहित्यकारों की तरह मैं भी साहित्य-सृजन के कामों से सरकारी ख़र्चों पर देश के भिन्न-भिन्न शहरों में मुफ़्त में उड़न खटोले पर उड़ता फिरूँ। यह सपना 26 मार्च 2017 को सुबह क़रीब 10 बजे सच होने जा रहा था। चूँकि, मुझे साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित “नॉर्थ-ईस्ट एंड नॉर्दन राइटरस् मीट 2017” के सम्मेलन में भाग लेने हेतु दिल्ली जाना था। हवाई टिकट बुकिंग के साथ ही मेरी उत्सुकता इतनी बढ़ गयी थी कि इसे मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता। यात्रा के एक सप्ताह पहले से ही मैंने यूट्यूब में हवाई सफ़र के नियमों को, सीट बेल्ट लगाना, बोर्डिंग पास, बैगेज क्लेम एरिया, केबिन क्रू, बैगेज चेक इन, आदि की जानकारी इकट्ठा कर रहा था। इस प्रयास में मैंने कई बार सपने में हवाई यात्राएँ कर लीं थीं, लेकिन हर सपने के दृश्य एवं अनुभव मुझे अलग-अलग दिखाई दिये थे। इतना कुछ होने के बाद भी मेरे उत्साह में कोई कमी नहीं थी। मैं रोज़ ऊपर्युक्त नियम-क़ानूनों को देखा करता था। जिन लोगों की हवाई यात्रा की जानकारी मुझे थी, मैंने उनसे भी सम्पर्क करके हवाई सफ़र के नियमों को जानने का प्रयास किया। अब क़रीब-क़रीब मुझे लगने लगा था कि मैं आराम से बिना किसी परेशानी का हवाई यात्रा कर लूँगा। 

24 मार्च 2017 को मेरी यात्रा शुरू हुई, दोस्त, मसीह मरण्डी के साथ रेलगाड़ी द्वारा। हमने पाकुड़ (झारखंड) स्टेशन से 4 बजे शाम वाली एक वर्दमान लोकल ट्रेन पकड़ी। यह ट्रेन लगभग 11 बजे रात में वर्दमान स्टेशन पहुँची। हम वर्दमान में उतर गए। सुबह वाली ट्रेन kI प्रतीक्षा में हमने वहीं पर स्टेशन के सामने खुले मैदान में कुछ देर विश्राम करने का विनिश्चय किया। दोस्त, मसीह दस-दस रुपये के दो प्लास्टिक ख़रीद लाया, उसे बिछाया और हमने उसमें आड़ा-तिरछा, जगह के हिसाब से अपने आप को व्यवस्थित किया। सोने के प्रयत्न के क्रम में, मच्छरों के झुंड ने मुझे काफ़ी परेशान किया। नींद लग रही थी, मगर सामान चोरी होने का डर और मच्छरों के डंक ने मुझे गहरी नींद लेने से वांछित रखा। दूसरी तरफ़ दोस्त, मसीह आराम से उन्हीं मच्छरों की सुरीली आवाज़ के बीच खर्राटे मार रहा था। सुबह क़रीब 4 बजे सफ़ाई कर्मी के आने से हमें उस जगह को ख़ाली करना पड़ा। हम वहाँ से हटे। आँख में पानी के छींटे मारने के बाद, टिकट काउन्टर पर जाकर टिकट लिये। 4:20 बजे पूर्वाह्न की ट्रेन पकड़ हमारी यात्रा हावड़ा के लिए आगे बढ़ी। 6:30 बजे हावड़ा पहुँचे। पहुँचने पर, ढेर सारे कंपनी दोस्तों के साथ भेंट हो गई। 25-26 मार्च 2017 को हमारे सीनियर लीडरों के द्वारा संतरागाछी के एक पाँच सितारा होटल में ट्रेनिंग होनी फ़िक्स थी। हमने हावड़ा स्टेशन से झुंड में एक बस पकड़ कर होटल की ओर रुख़ किया, पहुँचे, एक दिन की ट्रेनिंग ली। ट्रेनिंग बहुत ही बढ़िया थी, कम्पनी के बारे में मुझे काफ़ी जानकारी मिली, मेरा हर अहं दूर हो रहा था, जसवीर एवं विकास महागुरू के हर शब्द में एक अदद वज़नदार ज़िन्दगी जीने की शिक्षा मिल रही थी, पिछली रात को न सो पाने का ग़म बिल्कुल भी नहीं था। ट्रेनिंग में कम्पनी का डायमंड बनने का भूत सवार हो गया। मैंने पूरी तन्मयता के साथ ट्रेनिंग में भाग लिया। ट्रेनिंग का प्रथम दिन शाम के 8। 30 बजे डिनर के साथ समाप्त हो गया था। हम सभी अपने-अपने कमरे के अंदर चले गए। सोने से पहले मैं बड़ा उधेड़-बुन में था, क्या करें? क्या नहीं? वाली स्थिति। क्योंकि, 26 मार्च के लिए, दो में से एक को चुनना था। ट्रेनिंग या हवाई सफ़र। ट्रेनिंग भी ऐसी थी, जो मेरी ज़िन्दगी, लाइफ़ स्टाइल, को बदलने वाली थी और इधर मेरा कई सालों का सपना हवाई सफ़र भी, जिसके लिए मैंने एक सप्ताह पहले से रिहर्सल की है। अंत में मैंने, हवाई सफ़र को तरजीह दी। क्योंकि, यह अवसर मेरे लेखनी के दम पर मिल रहा था, जो मेरा सपना भी था। 

26 मार्च की सुबह मैं दोस्त, मसीह के साथ जल्दी ही तैयार हो गया था। रिसेप्शन में जाकर, एक कैब बुलायी और हम दोनों दमदम हवाई अड्डे के लिए निकल पड़े। समय से पहले ही हम पहुँच गये थे। कुछ देर तक दोनों दोस्त, कौतूहल पूर्वक हवाई अड्डे की एक-एक चीज़ को बड़े ही उत्सुकता पूर्वक देख रहे थे। ट्रॉली के ऊपर सामान चढ़ाना हो या आवागमन की जानकारी पट्टी का प्रदर्शन। एक के बाद एक आती-जाती कैब की क़तारें हो या उनमें से उतरते भाँति-भाँति के लोगों की मनमोहक विभिन्नताओं की दृश्य। हमें कुछ अलग ही दुनियाँ नज़र आ रही थी। ऐसा लग रहा था, मानो हम कोई दूसरी दुनियाँ अचानक जा पहुँचे हों। ऐसा दृश्य हमने सिर्फ़ फ़िल्मों में ही देखा था। दोस्त, मसीह एक-दो सेल्फ़ी लेने से नहीं चूके। जानकारी के अभाव में मैंने अपना सैमसंग मोबाइल दोस्त को दे दिया था। मुझे पता चला था कि एंड्रयड मोबाइल अंदर नहीं ले जाने देंगे; जो बाद में ग़लत साबित हुआ। कुछ देर बातें करने के बाद निर्धारित समय से ठीक दो घंटे पहले शेड्युल के हिसाब से दोनों दोस्त बिछड़े। 

मैं टिकट और आधार कार्ड दिखाकर अंदर चला गया। अंदर जाने के बाद मुझे बोर्डिंग पास कहाँ से मिलेगा, यूट्यूब की सारी जानकारी बेकार साबित हो रही थी। बैग कहाँ से चेक-इन होगा, कोई पता नहीं चल रहा था। किसी को बिना पूछे क़रीब आधा घंटा इधर से उधर भटकता रहा। ऐसा करते-करते मैं घरेलू उड़ान से अन्तरराष्ट्रीय उड़ान की ओर चला गया। थक-हार कर मुझे एक शौचालय दिखाई दिया। वहाँ गया, हल्का होने के बाद, आँख में पानी के छींटे मारे और फिर से इधर-उधर नज़र दौड़ाते हुए आगे बढ़ रहा था। तभी मुझे यूनीफॉर्म पहने हुए एक शख़्स दिखाई दिया। उनसे पूछा, बोर्डिंग पास कहाँ से मिलेगा? उसने तुरन्त, मेरा टिकट देखा और एक स्लटॉनुमा ढाँचे की तरफ़ इशारा किया। जहाँ पर एयर इंडिया लिखा हुआ था। उसने मुझे क़तार संख्या भी बता रखी थी, मैं वहाँ गया। चेहरे पर संकोच भाव के साथ एक 13-14 आयु वर्ग के लड़की के पीछे पंक्ति में खड़ा हो गया। मैं उसके साथ क्या-क्या हो रहा है, सब कुछ बड़ा ही गंभीर पूर्वक देख रहा था, क्योंकि, अगले ही क्षण मेरी बारी आने वाली थी। उनसे आधार कार्ड माँगा गया। मैंने भी झट से अपना आधार कार्ड अपने हाथ में ले लिया। मेरी बारी आयी। टिकट दिया। आधार कार्ड दिया। सामान को मशीन में चढ़ाया। वहीं से मेरा सामान अंदर चला गया। अब मैं ख़ाली हाथ हो गया। साथ में एक छोटा बैग था। उसमें भी एयर इडिंया का एक टैग लगा दिया गया। बोर्डिंग-पास अब मेरे हाथ में था। मुझे वहाँ पर बोर्डिंग टाइम और गेट संख्या बता दी गई। मैं थोड़ा साहस पाकर हाथ में पास लिए आगे बढ़ा। वहाँ लोग टेढ़े-मेढ़े रास्ते होकर चेक-इन के लिए जा रहे थे। मैंने ग़लती से ग़लत रास्ता चुना और महिला-चेक इन काउन्टर पर जा पहुँचा। मुझे थोड़ी डाँट सुननी पड़ी। फिर से पुरुष वाली पंक्ति में आना पड़ा। सभी लोग, बेल्ट, घड़ी, पर्स, मोबाइल, सिक्के, लैपटॉप सब ट्रे में सजा रहे थे। मैं भी एक आदर्श बालक की तरह हर क्रियाकलाप का ईमानदारी से पालन कर रहा था। कुछ ही देर में चेक-इन की पंक्ति में खड़ा हो गया। मेरे आगे खड़े शख़्स की चेकिंग चल रही थी, तभी मैंने ग़लती से यैलो लाइन को पार कर लिया था। तुरन्त, ही मुझे सुधारा गया। मेरी बारी आयी। जाकर दोनों हाथों को ऊपर उठाते हुए खड़ा हो गया। पैंट की पॉकेट में एक सिक्का फँसा पड़ा था, उसके चलते मुझे रोका गया। सिक्का निकाला, तब मुझे आगे जाने दिया गया। बाक़ी लोगों की तरह मैंने भी अपना सामान उठाया। बेल्ट, घड़ी, आदि पहने, तब फिर आगे बढ़ा। अब मैं गेट खोजने में लग गया। चूँकि, मैं बाहर पसीना-पसीना हो गया था, मुझे प्यास भी लगी हुई थी। एक जगह पानी पीने गया। दो-तीन यंग लेडी पानी पी रहीं थीं। उनके हटने के बाद जब वहाँ गया, तो मेरे लिए मुसीबत खड़ी हो गई। क्योंकि, पानी पीने का तरीक़ा अलग था। घुंडी घुमाने पर पानी ऊपर की ओर फेंकता था। मैं पानी पीने से वांछित रह गया। अब गेट की तलाश जारी थी। गेट 19 मिला, 20 भी मिला, अब 21 की बारी थी। अब मैं अपने गेट संख्या के पास अपने को पाकर बहुत ख़ुश था। गेट के अगल-बग़ल पड़ी चेयर पर मैंने अपना बैग रखा और वहीं बैठ गया। लंबी साँस लेकर मैं आराम से बैठ गया, मानो, एक राउन्ड में जीत हासिल कर लिया हो। बोर्डिंग के लिए अब भी एक घंटा समय बचा हुआ था। बैठे-बैठे मैं पारदर्शी काँच के पार से उड़ती-उतरती हवाई जहाज़ को बाक़ी लोगों से नज़रें छिपाते हुए देख रहा था। कुछ देर बैठने के बाद प्यास तेज़ हो गई और फिर एक बार पानी पीने के प्रयास में निकल पड़ा। इस बार उस तरह का सिस्टम नहीं था। पानी पी लिया तथा बोतल में भी भर लिया। अब बारी आती है भूख की। मैंने एक दो दुकान पर देखा। घुघनी मुढ़ीं सदृश कुछ खाने को नहीं मिली। अंत में मैंने एक पवरोटीनुमा चीज़ ख़रीदी, जिसका दाम मेरे हिसाब से 15-20 रुपये के आस-पास होगा, परन्तु, उसके लिए मुझे 150 रुपये देने पड़े। 200 मिली पानी बोतल का दाम 60 रुपये देने पड़े। मैं पुन: उस जगह गया बैठकर रोटी खायी और पानी पीया। अब मैं सुकून से उड़ान के इंतज़ार में था। 

हवाई अड्डा के उन सारे व्यवस्थाओं को देखते-देखते कब समय गुज़रा मुझे पता नहीं चला। बोर्डिंग के लिए एनाउंसमेंट हो गया, लोग क़तार में खड़े होने लगे। मैंने भी खड़े होने में देर नहीं लगाई। परन्तु, एक ग़लती यहाँ भी कर दी। मैंने ग़लत पंक्ति में लोगों के साथ खड़ा हो गया था। मुझे पीछे किया गया। बाद में मैं सही पंक्ति के साथ खड़ा हो गया। अब मैं अंदर जा रहा था, मन में तमाम तरह के प्रश्न लिए हुए, कि अंदर में क्या वतावरण होगा, सीट कैसे मिलेगी, बेल्ट कैसे बाँधेगे आदि-आदि। लंबी सी सुरंग नुमा टेढ़े-मेढ़े रास्ते ने मुझे ठीक विमान के गेट में ला खड़ा किया। वहाँ, सभी यात्रियों को टिकट स्क्रीनिंग के बाद अंदर जाने दिया गया। अंदर प्रवेश करते ही गेट पर स्वागत करने के लिए कुछ युवतियाँ खड़ीं थीं। सभी लोग अंदर गये, मैं भी अंदर गया। सीट की कोई जानकारी नहीं होने के कारण, मैंने एक युवती को अपना टिकट दिखाया। इशारे से उन्होंने सीट बता दिया। बैठने के कुछ देर बाद पता चला कि यही लोग केबिन-क्रू हैं। हम सारे लोग बैठ चुके थे। क्रू के द्वारा उड़ान के पहले कुछ चीज़ें बतायी गईं, कुछ कान में तो कुछ बाहर चली गईं। परन्तु, एक बात पक्की कान में आयी थी और वह थी, पानी में लैंडिंग वाली बात। कुछ देर के लिए मैं डर गया था, परन्तु, एक सकारात्मक सोच ने फिर से मुझे उबार लिया था, मैं अकेले थोड़े न हूँ, इस विमान में। इतने सारे लोग आते-जाते हैं, विमान में। मन में पूरा साहस आ गया था। लेकिन, साथ ही एक उत्सुकता जग गयी थी। धरती को ऊपर से देखने की। लेकिन, केबिन के बाद तीसरी रो में डी न. सीट मेरी थी। जहाँ से नीचे देखना सम्भव नहीं था। एक बुज़ुर्ग ने सीट एक्सचेंज करने की ऑफ़र दी थी, परन्तु, जानकारी के अभाव में मैं सीट किसी को देना नहीं चाहता था और यह कहकर मना कर दिया कि विमान में यह मेरी पहली यात्रा है। वह मुझे बिज़नेस क्लास में जाने के लिए कह रहा था। बाद में फिर एक बुज़ुर्ग महिला ने एक खिड़की वाली सीट ऑफ़र की, तो इस बार नीचे देखने के लालच ने मुझे सीट एक्सचेंज करने की हिम्मत दे दी। मेरी सीट अब खिड़की के बग़ल वाली हो गई। अब नीचे देखने के सपने भी सच हो रहे थे। विमान ने उड़ान भरी, कुछ देर थोड़ा उथल-पुथल के बाद विमान सामान्य हो गया। क्रू का लंच रेडी हो गया। मेरे पास भी आया। परन्तु, जानकारी के अभाव में हाथ नहीं बढ़ा रहे थे, क्योंकि, पावरोटी का दाम मुझे पता चल चुका था। क्रू की अँग्रेज़ी भी मेरे समझ से बाहर थी। बाद में क्रू को हिंदी में बोलना पड़ा, ‘आपको अलग से पैसा देना नहीं होगा। यह टिकट के साथ शामिल है’। इस पर मुझे शर्म तो आयी, पर मजबूरी भी था। बग़ल वाली लड़की मुझे घूर रही थी। कोई बात नहीं, मुझे सहना पड़ा, अनाड़ी जो हूँ। 

अब, विमान अपने ऊपरी उड़ान पर था, बग़ल के सब लोग सो रहे थे, मैं बीच-बीच में इस मौक़े का फ़ायदा उठा रहा था, नीचे देखता था, कभी-कभी जब डर लगता था, तो अचानक सिर को झटके से खिड़की के दूसरी ओर कर लेता था। फिर जब थोड़ा डर सामान्य हो जाता, नीचे देखता था। इस तरह से यह आँख-मिचौनी खेल अंत तक चलता रहा। लगभग दो घंटे सफ़र के बाद एनाउन्समेंट होता है, कि अब लैंडिंग होने वाली है, अपना-अपना सीट बेल्ट बाँध लें, हालाँकि, मुझे परेशानी नहीं हुई। मैंने बेल्ट मुश्किल से बाँधी थी, खुला नहीं थी। कुछ देर बाद मेरे परेशानियाँ, बढ़ने लगीं, कान से कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था, कान में हल्का दर्द महसूस हो रहा था। क्रू मेम्बर की बात सुनने में दिक़्क़त हो रही थी, मैं चिन्ता में पड़ गया था, कुछ ज़रूरत पड़ेगी, तो क्रू को कैसे बुलाऊँगा? क्योंकि मैं किसी की बात को सुन नहीं पा रहा था। कनपट्टी का दर्द बढ़ रहा था। इसी उधेड़-बुन में ही कुछ देर के बाद दिल्ली इंटरनेशनल हवाई अड्डे पर हमारा विमान लैंड हो गया। लैंड होने पर सभी सहयात्री अपने-अपने परिवार वाले को लैंड होने की ख़बर दे रहे थे, मैंने भी अपना छोटा मोबाइल निकाला और घर पर फ़ोन लगाया कि मैं दिल्ली पहुँच गया हूँ। एयरपोर्ट से बाहर निकलते-निकलते मैं किधर निकल गया, फिर से प्रस्थान की तरफ़ चला गया था। मेरे रिसीविंग के लिए आये हुए, दोस्त का भतीजा अन्नु, एरायवल में मेरा राह देखते रहे। काफ़ी देर तक नहीं पहुँचने पर उन्होंने फ़ोन किया, मैं कहाँ हूँ, के बारे में जाना, तब कैब लेकर आया और घर सरोजिनी नगर सरकारी क्वॉटर ले गया। इस तरह से मेरी हवाई सफ़र कुछ खट्टे-मीठे अनुभव के साथ समाप्त हो गया। 

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