तुझ्या चरणीचा गंगा

15-05-2023

तुझ्या चरणीचा गंगा

प्रो. ललिता  (अंक: 229, मई द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

भारत देश में अनगिनत ऐसी अनेक जगह हैं जिसको देखना तथा उसके बारे में जानना अपने में ही एक अद्भुत कला है। मगर अपनी मन की इच्छा के अनुसार जगह बदलती है। तद्नुसार मैं विट्ठल बाबा के दर्शन हेतु बहुत दिनों से सोच रही थी। कहते हैं न समय सबसे बलवान होता है। इंतज़ार की बेला अब ख़त्म होने वाली है और जल्द उस परमतत्व का दर्शन होने जा रहा है, यही दिव्य अनुभूति ने मन में असीम आनंद को उत्पन्न करवाया। महाविद्यालय में NAAC कमेटी के आगमन का पिछले तीन महीने से इंतज़ार था। जैसे ही वे अपने दौरे को ख़त्म कर लौट गए थे तो दूसरे ही दिन तैसे ही पूर्व बुकिंग के अनुसार यात्रा को प्रारंभ किया। कोयंबत्तूर से चेन्नई फिर वहाँ से पुणे होकर पंढरपुर पहुँचने की प्लानिंग! आराम की यात्रा करते हुए हवाई जहाज़ पर क़रीब 3 बजे पुणे पहुँच गए थे। 

अब से शुरू हो गया असली यात्रा का मज़ा! क्या बताऊँ . . . पाठकों को अजीब-सा लगेगा, किन्तु सत्य को टाला नहीं जा सकता है न! जबकि इस जगह से अनभिज्ञ हम, लोगों के द्वारा जैसे कहा गया था उसके मुताबिक़ एक बस में चढ़ रहे थे, जिसकी शक्ल से तो घबराहट हो ही रही थी कि इतने पुराने लाल डिब्बे में यात्रा किसके भरोसे पर करें, जबकि इसको कभी से स्क्रैप में डाल दिया गया होना था। जिस बस में धक्कम-दुक्का लगाकर मुश्किल से कोने की सीट पकड़कर वह भी एक घंटे के इंतज़ार के बाद (!) बैठ गए थे। लोगों से जब मोटरबस भरी हुई थी तब भी उसकी आवाज़ तथा काँच की खिड़कियों की कड़कड़ाहट कान को भेद रही थी मानो बिजली गिर रही हो! कंडक्टर से पूछा कि बस कब पंढरपुर पहुँचेगी? जवाब ऐसा मिला कि किसीने गर्म तवे पर पानी छिड़क दिया हो! कि “साढ़े ग्यारह बजे!” सुनते ही तेज़ का झटका धीरे-से लगने लगा। मन की घबराहट आँखों में छिप न सकी। उसको छुपाने का उपाय तक न जानते हुए लगभग ६ घंटे की यात्रा इस बस में करनी पड़ेगी क्या? यही सवाल मन में आसन लगाकर बैठ गया। अब तक की यात्रा और अब जो कर रहे हैं, इस यात्रा में ज़मीन आसमान का अंतर था। यही तो जीवन है, कभी ख़ुशी कभी ग़म! इस कठिनाई में भी एक सुकून यही था कि मेरे पास बैठी चेतना नामक सहयात्री, जो सुकोमल एवं सौम्य युवती मुझे ढाढ़स बँधा रही थी और जैसे-तैसे गुज़र रहे थे उन जगहों की रोचक कहानियाँ सुनाती जा रही थी जो डेढ़ घंटे मेरे साथ थी। समय निकलते-निकलते यात्री एक-एक कर उतरने लगे। आख़िर १५ यात्रियों के साथ वह बस जैसे राक्षस को निगलने जा रही हो उसी प्रबलता के साथ दौड़ रही थी। एक समय ऐसा भी आया कि ‘लाँग जंप, हाई जंप’ भी अनायास करते गए। यह भी लगने लगा कि किसी भी वक़्त बस का दो टुकड़े हो जायेंगे तो भी उसमें आश्चर्य नहीं। 
एक बात समझ नहीं आती है कि महाराष्ट्र भारत में ज़्यादा राजस्व पाने वाला राज्य है। इतना होते हुए भी न सड़क पर उनका ध्यान है, न यातायात व्यवस्था पर! शायद यह भी हो सकता है कि इन जैसे आवागमन के उपभोक्ता ज़्यादातर ग़रीब हैं। बेचारे वे कब अपना ज़बान खोलते हैं। क्या सरकार का कर्त्तव्य यह नहीं कि उनको भी सही दर्जा दे? जिस तरह भेड़-बकरियों को ट्रैक्टर में बाँधकर ले जाते हैं उसी तरह इंसान को इस डिब्बे में? एक भारत, श्रेष्ठ भारत, भारत उन्नत अभियान आदि अनेकों योजनाएँ केन्द्र सरकार द्वारा निर्मित हैं, मगर कुछ इलाक़ों में इसका असर छू तक नहीं गया है। ख़ैर, ये राजनीति हमारे पल्ले की नहीं। जैसे ही पंढरपुर पहुँच रहे थे जल्दी जल्दी जिस तरह जेल से क़ैदी छूट भागता है उसी तरह बस से तथा बस अड्डे की मूत्र वास से बचते हुए अपने सामान को और वहाँ पर बिखरी अपनी रीढ़ की हड्डियों को भी समेटकर ऑटो की ओर भाग रहे थे। लगभग साढ़े बारह बजे विठ्ठल रुक्मिणी भवन के शानदार कमरे पर पहुँचकर आराम की साँसें ले रहे थे। तन-मन से मुक्त होकर उस दिन विश्राम बड़ा आनंददायक था। 
सवेरे होते ही पुरानी बातें मस्तिष्क से निकल जाती हैं और नई-नई बातें दिमाग़ में चलने लगती हैं। अपितु यह व्यवस्था इन्सान के प्रति ईश्वर का दिया हुआ उत्तम उपहार है। 

भूवैकुंठ पंढरपुर

श्रीक्षेत्र पंढरपुर भूवैकुंठ माना जाता है। कहा जाता है कि स्वर्ण द्वारिका को तज कर प्रभु श्रीकृष्ण अपने परम भक्त पुंडलीक की अनन्य भक्ति पर प्रसन्न होकर उससे मिलने वहाँ पहुँच गए थे तब वह वृद्ध माता-पिता की सेवा में रत था। उसके द्वारा दी गई ईंट पर भक्त की प्रतीक्षा में कमर पर हाथ रखकर, कटिबद्ध होकर खड़े हो गए थे। ऐसी अनेकानेक कहानियाँ यहाँ सुनने को मिलती हैं। ये जगह ख़ास अपने प्रिय भक्तजनों के लिए विठोबा का रूप लेकर श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है। भक्त और भगवान दोनों का चोली-दामन का साथ है—शायद इसी क्षेत्र को देखकर ही कहा गया हो! सही में यह शहर उतना विस्तारित तो नहीं बल्कि पुराने आवरण को पहनकर संतों की भूमि सिद्ध होता है। हर घर में विठ्ठल से जुड़ी कुछ न कुछ ख़ास बातें सुनने को मिलती हैं। बड़ी बड़ी इमारतें और आलीशान महल से दूर साधारण नागरिक जो ज़्यादा पढ़ने=लिखने की घमंड से दूर, स्वाभाविक तौर पर सीधे-सादे लोग वहाँ देखने को मिलते हैं। 

चंद्रभागा नदी 

चंद्रभागा—इस नदी के छोर पर ही दिव्य मंदिर स्थित है। वास्तव में इस नदी का नाम भीमा है, परन्तु चंद्राकार जैसे होकर बहती है अतः इसे चंद्रभागा कहते है। संत जनाबाई कहती है—“भीमा आणि चंद्रभागा। तुझ्या चरणीचा गंगा।” यहाँ आने के पश्चात इस पवित्र नदी में स्नान नहीं किया तो क्या किया! कँपकँपाती ठंड ज़्यादा होते हुए भी हम नदी स्नान के लिए पहुँचे गए थे। पानी से भरी हुई नदी को देखकर मन में फैले आनंद की सीमा नहीं, क्योंकि सुना है कि यहाँ हमेशा पानी नहीं बहता। देखा तो लोगों की भीड़ बहुत ज़्यादा थी। इसलिए हम सामने वाले तट पहुँच गए थे जहाँ शानदार ISKON मंदिर भी था। वहाँ पहुँचकर नियमित रूप से स्नान इत्यादि करते हुए श्रीकृष्ण दर्शन और आरती में भाग लिया था। 

दक्षिण में ज़्यादातर मूर्ति को छूकर पूजने की परंपरा नहीं बल्कि दूर से होकर देखने की अनुमति है। जबकि पांडुरंग विठ्ठल को समीप से जाकर उनके चरणों को छूकर मत्था टेकने की अनुमति है। पहली बार जब मैं विठू, (वहाँ के लोग प्यार से ऐसे ही बुलाते हैं) को सामने से देख रही थी आश्चर्यचकित रह गई। विठोबा के गांभीर्य मूर्ति में व्याप्त उस शानदार झलक को एक बार नहीं हज़ारों बार देखने को मन करता था। विठ्ठलदर्शन के पश्चात माता रुक्मिणी का तथा अनन्य देवताओं का भी भक्ति पूर्वक दर्शन किया। तत्पश्चात् मंदिर के इर्द गिर्द संत महापुरुषों के निवास स्थान को देखने निकले थे। 

संत नामदेव 

संत नामदेव का विलास पहुँचे जहाँ उनकी गौरवशाली सोलहवीं पीढ़ी को देखकर भारत की सभ्यता पर अत्यधिक गर्व महसूस हुआ। कहा जाता है कि नामदेव जब छोटे थे तब उनके हाथों से भोग लेकर भगवान खा जाते थे। रोज़ उनके साथ बातचीत भी करते थे। उनके द्वारा पूजित विठ्ठल व रुक्माई माता को उनकी इस पीढ़ी आज भी उसी श्रद्धा के साथ पूजती है। 

संत जनाबाई 

जनाबाई नामदेव के घर में काम करती थी तथा विठ्ठल की बड़ी उपासक थी। सारा दिन काम करती रहती थी। आटा पीसने के लिए चक्की के पास बैठती परन्तु थकान के कारण वह नहीं कर पाती, तब विठ्ठल आकर चक्की चलाते थे। जनाबाई के मंदिर में आज भी यह चक्की देखने के लिए मिलती है। दर्शन के लिए जब हम गए थे हम भी उस चक्की को चला रहे थे। इनके द्वारा रचित अभंग आज भी लोकप्रिय है। 

तुझी नाही केली सेवा। दुख वाटत से जिवा॥
नष्ट पापीण भी हीन। नाही केले तुझे ध्यान॥

ताक-पीठ विठोबा मंदिर:

एक रुचिकर कहानी सुनने को मिली कि पंढरपुर में दही बेचने वाली रमादेवी नामक भक्त थीं उसके द्वारा अभंग सुनने तथा स्वादिष्ट ताक पीने रोज़ वहाँ विठ्ठल पहुँचते थे। वह भी भगवान के इंतज़ार में रहती और उनको छाछ पिलाए बिना व्यापार के लिए नहीं निकलती। जब हम उनके निवास गए थे वह बरतन तक देखने को मिला जिसमें विठ्ठल ताक पिया करते थे। उनकी आठवीं पीढ़ी से कथा सुनने के बाद वहाँ से निकले थे। 

कोर्टी का शिवलिंग 

पंढरपुर एक प्रसिद्ध वैष्णव स्थल है। यहाँ अनेक प्रकार के मंदिर देखने को मिलते हैं। उसमें से एक मंदिर ऐसा भी था जिसको देखकर मैं यही सोच रही थी कि ईश्वर की सृष्टि पर आज भी अनेक प्रश्न उठाया जा रहे हैं। वे कब इन मूल्यों पर विश्वास करने वाले हैं? ख़ैर, हम पंढरपुर से १२ कि.मी. दूरी पर स्थित कोर्टी पहुँच गए थे वहाँ हर कहीं शिवलिंग ही शिवलिंग नज़र आ रहे थे। कहते थे, इस ज़मीन को जहाँ भी खोदेंगे शिवलिंग निकल आता है। इस तरह अनेक शिवलिंग यहाँ प्राप्त हुए हैं। आगे कहते थे कि “यह सत्य है, आज भी इस मंदिर के आस-पास खुदाई में निकले लिंगों को देखिए।” उन छोटे छोटे लिंगों को देखते हुए वहाँ से निकल रहे थे। 

सड़क पर बड़े-बड़े ट्रैक्टरों का बेशुमार दर्शन मिला था। सुचारु रूप से सजाए गए उन ट्रैक्टरों पर स्पीकर लगे हुए थे जिसमें ज़ोर से मधुर संगीत (८० के गाने) बज रहे थे। कारण पूछने पर ऑटोवाला अक्षय व्यंग्य की हँसी को प्रकट करते हुए बता रहा था कि “ये दूर-दूर तक फ़सलें काट  करले जाते हैं। कहीं नींद न आ जाए इसलिए वे भी सतर्क हैं एवं राहगीरों को भी सतर्क रखते हैं।” रही बात खेतों की यहाँ ज़्यादातर गन्ना उगाया जाता है। इसकी उत्पत्ति लगभग साल भर में होती है। इस तरह उस दिन की यात्रा को विश्राम देकर अपने कक्ष में पहुँचकर आराम करने लगे। 

तुलसी घाट का विहार 

अब संध्या है, सीधा हम पहुँचे थे तुलसी घाट पर जहा पारलौकिक का नक़्शा धरा हुआ था। यह पार्क अत्यधिक पवित्र स्थान है जहाँ विविध प्रकार की तुलसी के दर्शन कर सकते हैं। कहते हैं कि तुलसी के दर्शन व स्तुति मात्र से सारा पाप धुल जाता है। कलयुग के मुताबिक़ भक्ति का भी सरल मार्ग सुझाया गया है। केवल उन छोटी पद्धतियों पर ध्यान देने से मात्रा भी जीवन तर सकता है। हम लोगों ने श्रीकृष्ण तुलसी, हनुमान तुलसी, श्री तुलसी, लक्ष्मी तुलसी, कस्तूरी तुलसी आदि अनेक तुलसियों के दर्शन किए थे। वहाँ की भित्ति पर संत महापुरुषों की तस्वीर खींची गई हैं जिसके ज़रिए उनका पूरा चरित्र परिलक्षित होता है। वन के दक्षिण छोर में पांडुरंग विठ्ठल की 6 फुट ऊँचाई की विशालकाय मूर्ति प्रतिष्ठित है जो दूर तलक दिखाई देती है। 

वारकरी संप्रदाय 

पंढरपुर माटी की भक्ति परंपरा अनोखी है। यहाँ के संतों के द्वारा इस पद्धति को बेहतर तरीक़े से आज भी पालन किया जाता है। संत महापुरुष सर्वप्रथम चंद्रभागा नदी में स्नान करते हैं। तत्पश्चात् वहाँ भक्तिमार्ग का ध्वज लहराया जाता है। उसके बाद हरि कीर्तन गाया जाता है। फिर भक्तों का जुलूस निकलता है। हरेक “वारी” के अवसर पर नदी के रेत का मैदान भक्तों से भर जाता है, ताल, मृदंग, नूपुरों से पंढरीनाथ की गज़र होती है। “चंद्रभागा स्नान वदितो हरिकथा” यही वारकरी जनों का आचार धर्म है। वारकरी के इस संप्रदाय को संत ज्ञानेश्वर महाराज से प्रारंभ किया गया था तब संत नामदेव जी ने हरि कीर्तन गाया। भक्त तुकाराम, गोरा कुंभार आदि अनेक संत, कीर्तन हरि भजन के लिए नाच उठते थे। आज भी मंदिर के परिसर में भक्तों को नाचते हुए हमने देखा था। वास्तव में इनकी सरलता तथा इनके द्वारा जो कीर्तन इत्यादि में मन पुलकांकित हो उठा। उनके साथ मिलकर नाचने तथा गाने के लिए हम भी तत्पर हो गए थे और दर्शन की लम्बी लाइनों को पार करने में ज़रा भी थकान महसूस नहीं होती थी। वारकरी के द्वारा कहे गए “सकळ तीर्थांचे माहेर, तेहेजाणा पंढरपुर” यह संतवचन कितना सार्थक है। 

ऐसी अनेकानेक बातें जो मन में समाहित, पंढरपुर की यात्रा को लेकर बताना तो कठिन है। मगर ये बात ज़रूर बता सकती हूँ कि कौन सी बातें मुझे उत्सुक रही थीं जिसकी वजह से वहाँ पहुँच गई जबकि हम रहनेवाले तमिलनाडु के, हज़ारों किलोमीटर पार करते हुए विठोबा के दर्शन करने पहुँच गये। विठ्ठल के बारे में अपने स्वर्गीय पापा के द्वारा बहुत कहानियाँ सुनी थीं। तब इतना आग्रह नहीं था। बाद में धीरे-धीरे इधर-उधर करते हुए सुनती रहती थी। वर्तमान में अब तिरुपति चैनल SVBC में आदरणीय श्री गोपालवल्ली दास जी द्वारा “विठ्ठलनैप्पिडी” (विठ्ठल को पकड़ो) सीरीज़ में उनके द्वारा कही गई रुचिकर कहानियों को जो अलग अंदाज़ से बता रहे थे उन्हें सुनकर पंढरपुर पहुँचने की अति तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई। पिछले महीने अनंतपद्मनाभ स्वामी के दर्शन के लिये तिरुवनंतपुरम गये थे तब हमें किसी रिश्तेदार के यहाँ रुकना पड़ा। उनके पूजा गृह को देखा तो सन्न रह गई। यत्र तत्र सर्वत्र विठ्ठल विराजमान। मन कह रहा था, अब देर न करो। निकलो विठ्ठल रुक्मिणी दर्शन के लिए। मन द्वारा कथित बात का अमल करते अब विठ्ठल का परिपूर्ण दर्शन करते हुए वापस हमारे नीड़ लौट रहे थे। पंढरपुर के इस वृत्तांत को पढ़ने वालों को उनकी कृपा प्राप्त हो। यही मेरी अभिलाषा है। 

रामकृष्ण हरि॥वासुदेव हरि॥जय विठ्ठल नाथ की। जय जय॥

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