महाकवि सुब्रमण्यम भारतीयार के विविध पक्ष

15-12-2021

महाकवि सुब्रमण्यम भारतीयार के विविध पक्ष

प्रो. ललिता  (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

सुब्रमण्यम भारती (11 दिसंबर 1882-11 सितंबर 1921) 

 

सुब्रमण्यम भारती एक तमिल लेखक, कवि, पत्रकार, भारतीय स्वतंत्रता के कार्यकर्ता, समाज सुधारक और बहुभाषाविद थे। लोकप्रिय रूप से "महाकवि भारती" के रूप में जाना जाता है, वह आधुनिक तमिल कविता के अग्रणी थे और उन्हें अब तक के सबसे महान तमिल साहित्यकारों में से एक माना जाता है। उनकी कई कृतियों में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देशभक्ति जगाने वाले ज्वलंत गीत शामिल थे। उन्होंने महिलाओं की मुक्ति के लिए लड़ाई लड़ी, बाल विवाह के ख़िलाफ़, ब्राह्मणवाद और धर्म में सुधार के लिए खड़े हुए। वह दलितों और मुसलमानों के साथ भी एकजुटता में थे। 

बहुत कम उम्र से ही उनका संगीत और काव्य के प्रति झुकाव था। भारती ने पाँच साल की उम्र में अपनी माँ को खो दिया और उनके पिता ने उनका पालन-पोषण किया, जो चाहते थे कि वह अँग्रेज़ी सीखें, अंकगणित में उत्कृष्टता प्राप्त करें और एक इंजीनियर बनें। एक कुशल भाषाविद्, वे संस्कृत, हिंदी, तेलुगु, अँग्रेज़ी, फ्रेंच में पारंगत थे और उन्हें अरबी का अच्छा ज्ञान था। 11 साल की उम्र के आसपास, उन्हें "भारती" की उपाधि से सम्मानित किया गया था, जिसे माँ सरस्वती का आशीर्वाद जो प्राप्त है, जो एट्टापुरम के राजा द्वारा कविता में उनकी उत्कृष्टता को देखते हुए ये उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने सोलह वर्ष की आयु में अपने पिता को खो दिया, लेकिन इससे पहले जब वे 15 वर्ष के थे, तब उन्होंने चेल्लम्मा से विवाह किया जो सात वर्ष की थी। 

सन 1882 में तिरुनेलवेली जिले (वर्तमान थूथुकुडी) के एट्टायपुरम में जन्मे, भारती की प्रारंभिक शिक्षा तिरुनेलवेली और वाराणसी में हुई और उन्होंने द हिंदू, बालभारतम् विजया, चक्रवर्ती, स्वदेसमित्रन और भारत सहित कई समाचार पत्रों के साथ एक पत्रकार के रूप में काम किया था। सन 1908 में, ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा भारती के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी वारंट जारी किया गया था, जिसके कारण वह पांडिचेरी चले गए जहाँ वे 1918 तक रहे। 

तमिल भाषा के प्रति अत्यधिक लगाव

तमिल साहित्य पर उनका प्रभाव अभूतपूर्व है। हालाँकि ऐसा कहा जाता है कि वह 3 विदेशी भाषाओं सहित लगभग 14 भाषाओं में पारंगत थे। उनकी पसंदीदा भाषा तमिल थी। उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विषयों को अपनी कृतियों में शामिल किया। भारती द्वारा रचित गीत और कविताएँ अक़्सर तमिल सिनेमा में उपयोग की जाती हैं और दुनिया भर के तमिल कलाकारों के साहित्यिक और संगीतमय प्रदर्शनों की सूची में प्रमुख बन गई हैं। उन्होंने आधुनिक रिक्त पद्य का मार्ग प्रशस्त किया। तमिल कैसे सुंदर है, इस पर उन्होंने कई किताबें और कविताएँ लिखीं। भारतीयार को तमिल भाषा के प्रति अतितीव्र लगाव था। इसको सिद्ध करते हुए लिखते हैं—

"यामरिन्द मोष़िगलिले तमिल मोष़ीपोल 
इनिदावदु एंगुम काणोम" 

अर्थात "जितनी भाषाएँ मैं जानता हूँ उन सभी में तमिल के समान मीठी भाषा को कहीं नहीं सुना है।” 

तमिल साहित्य को विधिवत अध्ययन करते हुए उसके सारांश को कविता में अंकित करने वाले श्रेष्ठ कवि थे। तमिल साहित्य इतिहास में पहली ही बार आधुनिक कविताओं को लिखने का श्रेय इन्हीं को जाता है। वे चाहते थे—तमिलनाडु में प्राथमिक शिक्षा तमिल में हो! अपनी मातृ भाषा को समझना, पढ़ना हर बच्चे केलिए आवश्यक है। आज की नई शिक्षा नीति भी यही कहती है कि प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्यतः मातृ भाषा में ही होनी चाहिए। भारतीयार ने एक शताब्दी के पहले से यही स्वप्न देख रहे थे, उसका एक नमूना यहाँ प्रस्तुत है—

तमिष़क्कल्वी तमिलनाट्टिल
कट्टायम एन्बदोरू सट्टम् सेय्य! 

तमिल उयर्ंदाल तमिलनाडु
तानुयरुम अरिवुयरुम
अरमुम् ओंगुम् 

कवि कहते हैं, तमिलनाडु में तमिल अनिवार्य है। ऐसा एक क़ानून लाना पड़ेगा। तमिल का विकास तमिलनाडु के विकास पर निर्भर है। ऐसी स्थिति में यहाँ के लोग ज़्यादा विवेकशील होंगे और तमिलनाडु सात्विकता का केन्द्र बनेगा।1 (पृ. सं.150)

सामाजिक एकता की स्थापना

भारतीयार केवल मात्र एक कवि नहीं अपितु उनकी हर साँस और धड़कन में राष्ट्र भक्ति, भाषाओं के प्रति आसक्ति, संस्कृति सभ्यता के प्रति ऊँचे विचार, जातिभेद की निंदा करते हुए सामाजिक समानता केलिए उनके मन से निकले हुए हर शब्द गवाह है। समधर्म समुदाय की कल्पना करते हुए लिखते हैं—

"काक्कै कुरुवी एंगल जाति
 कडलुम् मलैयुम् एंगल कूट्टम्"

अर्थात्‌

"कौआ, चिड़िया हमारी जाति, 
समुद्र पर्वत भी हमारे साथी" 

कवि कहते है कि संसार के हर वस्तु के साथ हमारी एकता है, वही हमारी ताक़त है।2 (पृ. सं. 1)
सामाजिक एकता के साथ साथ क्रांतिकारी कवि भारती ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि अँग्रेज़ों के बग़ावत के लिए देशवासियों को संगठित होना आवश्यक था। वे सोचते थे "जब तक हम एक साथ होकर अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाएँगे तब तक उनको भगाना आसान कार्य नहीं है।” 

उन्हीं के शब्दों में—

ओन्रु पट्टाल उण्डु वाष़्वु नम्मिल ओट्रुमै नींगिल
अनैवर्क्कुम् ताष़्वे
नन्र्दिदु तेर्ंदिडल वेण्डुम् इंद ज्ञानम् 
वंदार्पिन नमक्केदु वेण्डुम्

कवि का कहना है कि एकता में ही ताक़त है। विभक्ति नुक़्सान देय है। इस ज्ञान तत्व का पहचान ही परमार्थ है। 
यही वांछनीय भी है।3 (पृ.सं.143)

रूढ़ि मुक्त समाज की स्थापना का विराट स्वप्न देखने वाले कवि

भारतीयार केवल एक कवि होते तो बात अलग थी। आध्यात्मिक चिंतन के गुरु होते तो भक्ति सिद्धांत को लोगों के बीच फैला देते। दरबारी कवि होते तो राजाओं के गुणगान करते चाटुकार बन जाते और अपनी आर्थिक स्थिति को मज़बूत बनाते हुए कुशल ज़िन्दगी जी रहे होते। चूँकि हमारे क्रांतिकारी कवि विलक्षण प्रतिभा से संपन्न अपने लिए कुछ नहीं माँगा वरण जन समुदाय के ग़ुलामी से मुक्ति माँगी थी। भारतीय जनता को ग़ुलामी की बेड़ियों से मुक्त करना चाहते थे। अँग्रेज़ों के कूटनीति का नाश हो, यही उनके ज़ेहन में हमेशा जैसे एक ही धुरी पर चारों ओर भ्रमण करते थे। साथ साथ लोक कवि का मन बार बार यही सोचा करता था, और समाज में प्रचलित रूढ़ियों तथा अंधविश्वासों को जड़ समेत समाप्त कर लोगों के सोच की मानसिकता पर परिवर्तन लाना चाहते थे। इसलिए पग पग पर जनता की जागरूकता के लिए रुष्ट शब्दों में खंडन किया करते थे। एक बार वे तिरुवल्लिक्केणि समुद्री तट पर अपने सखा सहित टहल रहे थे, तब एक मित्र ने अपने हाथ में रखे एक आणा को समुद्र पर फेंक दिया। कारण पूछने पर उसने बताया कि अगर मैं पैसे नहीं दिया तो समुद्र राज क्रोधित हो जाएगा! इस बात पर भारती व्यंग्य करते हुए पूछ रहे थे, कि ऐसा किसने कहा? जवाब मिला था "मेरी माँ ने"! 

तब कवि कह रहे थे कि "अरे मूर्ख, ज़रा सोच तो! वही एक आणे को किसी ग़रीब के हाथ दिया होता, एक वक़्त की भूख मिट जाती। अब ये पैसे समुद्र की गहराई में जाकर रेत में समा जाएँगे! अगर ये अनाज होता तो मछली का आहार बना हुआ होता। गँवार बन अल्पमति से कार्य करे, उससे पहले सोचकर तो देखो, क्या इसमें सत्य भासित है?4 पृ. सं.17

इसी तरह जैसे तैसे अंधविश्वास की काली छाया से जब भी गुज़रते थे, उसको देखकर नज़र छुपाए भागते नहीं बल्कि ज़रूर टोकते थे। भारतीयार वस्तुतः ऐसे एक कवि है वे चलते-फिरते राहगीरों से भी ताल लय लेकर गीत को आकार देने लगते है। एक बार जब वे किसी सपेरे को सुन रहे थे उनके मन में अनायास एक गीत स्थान पा लिया था।

 भारद देसमेंद्रु पेयर सोल्लुवार-मिडिप्
 भयंगोल्लुवार तुयर्प्पगै वेल्लुवार
 भारदप् पोर वेन्द्र कण्णनरुलाल-तुयर
 भार मरुवाल सेल्व भारमुरुवाल

कहते हैं— 

भारत देश नाम हमारा, 
हमसे पंगा जो भी लेंगे भयभीत होकर भाग जाएँगे 
कुरुक्षेत्र के विजेता श्री कृष्ण की कृपा से 
भारत माता पीड़ा मुक्त होगी समृद्धि के पथ पर अग्रसर होगी।5 (पृ. सं.वही) 

भारती की दृष्टि में नारी

भारतीयार का विवेकी हृदय सदा नारियों की उन्नति के प्रति अग्रसर होता रहता था। वे मानते थे कि नारी जब रूढ़िवादी की ग़ुलामी से आज़ाद होगी तब देश का उत्थान अवश्य होगा। उसके लिए कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों को पालन करना ज़रूरी है। जैसे कि पुरुषों का सारा अधिकार नारियों के लिए भी उपलब्ध होना ज़रूरी है। नारी की अनुमति के बिना उसका विवाह करवाया जाए, वह ग़लत है। पुरुषों ने स्त्रियों को अपना ग़ुलाम माना है, इन कपटी विचारों का हनन् होना ज़रूरी है। उसको भी सोचने का, समझने का, बोलने का हर अधिकार है। 

'यत्र नार्यस्तु पूजयते तत्र रमन्ते देवता'

इस मंत्र के अनुसार नारियों को मान सम्मान मिले; वे सुखपूर्वक रहें, उन्हीं के सुख में सर्व सुख निहित है आदि उत्कृष्ट भाव के धनी थे। 

  एट्टैयुम् पेण्कल तोडुवदु तीमैयेन्रदु
 एण्णी इरुंदवर माय्ंदु विट्टार
 वीट्टुक्कुल्ले पेण्णैप् पूट्टी वैप्पोम् एन्द्र
 विन्दै मनिदर तलै कविष़्दांर

अर्थात्‌

नारियों को पुस्तक का स्पर्श नहीं करना चाहिए—ऐसे कहनेवाला मर चुका है। घर की दहलीज़ को नारी पार नहीं कर सकती—इस मूर्खता को पालनेवाला भी सिर अपना झुका दिया है।6 (पृ. सं97) 

भारतीयार नारी की आज़ादी को लेकर 'पेण विडुदलै' शीर्षक निबंध में निम्नलिखित बातें उल्लेख किया है। 

स्कूली शिक्षा हर लड़की को प्राप्त हो! घर में रहकर चूल्हा जलाने के लिए नारी का जन्म नहीं हुआ है। पारिवारिक तथा सामाजिक माहौल अनुकूल रहना है तो नारी को शिक्षित होना अनिवार्य है। बाल विवाह का सख़्त खंडन किया है। मानते थे इससे बड़ा घोर अपराध बच्चों के साथ कुछ और हो नहीं सकता है। बिना विवाह किये जब नारी एकांगी जीवन व्यतीत करना चाहती है तो उसकी इच्छा का सम्मान करना चाहिए। विधवा का पुनर्विवाह होना भी ज़रूरी है। सत्ता पर उचित तरीक़े से नारियों की नियुक्ति का क़ानून बनना चाहिए। नारियों को पुरुषों के साथ वार्तालाप करना मना है—इस बात का विरोध कर रहे थे। अपनी घर की स्त्री पतिव्रता होनी चाहिए, ऐसा हर व्यक्ति सोचता है। मगर दूसरी महिलाओं की पवित्रता पर कभी उनको ख़्याल आता ही नहीं है। जब नर नीयत बिगड़ जाती है तो नारी की पवित्रता कैसे बचकर रह सकती है? इस तरह कवि खुलकर पुरुषों पर तीक्ष्ण वार करते हैं।

 भारती की दृष्टि में भक्ति व दार्शनिक चिंतन

तमिलनाडु में अनेक सिद्ध पुरुष जिन्होंने भक्ति का वास्तविक तत्वों के मूल को जानते थे। परमात्मा को विवेक व ज्ञान के द्वारा समझने के लिए अपने पूरे जीवन को समर्पित कर दिया था। इनमें तिरुमूलर, तायुमानवर, सिववाक्कियर, सिद्धरकल (सिद्ध पुरुष) आदि के तर्क पूर्ण गीतों के द्वारा भक्ति सिद्धांत के जड़ को पकडने में भारतीयार क़ामयाब हुए। अंधाधुंध भक्ति के पोषक बने हुए हमारी जनता को सही मार्ग दिखाने का महत्ती कार्य इन महानुभावों से हुआ। 
सिववाक्कियर का एक गीत उदाहरणार्थ देखिए:

 विरिन्द पू उदिर्ंद कायुम मीण्डुपोय मरम् पुहा
 इरंदवर पिरप्पदिल्लै इल्लै इल्ले इल्लैये

खिला पुष्प मुरझा जाता है तथा गिरा फल फिर पेड़ नहीं चढ़ता है। उसी प्रकार मरा इंसान फिर से जन्म लेकर आता नहीं। 

वल्ललार भी इसी तरह हज़ारों दार्शनिक गीत गाए है। इन सबके दार्शनिक तत्वों को समेटकर सीधी बातों से कवि ने अनेक गीत रचे हैं। 

 आयिरम देय्वंगल उण्डेंन्रु तेडी
 अलैयुम् अरिविलिगाल पल्लायिरम
 वेदम अरिवोन्डरे देय्वम
 उण्डाम एनल केलीरो? 

हे मूर्ख! हज़ारों भगवान की खोज में दर किनारे भटकते हो। आख़िर विवेक ही ईश्वर है, बताने पर मानते तुम कब हो?7 (पृ. सं.36) 

कवि ने इन सारे ज्ञानियों के ज्ञान को अपने जीवन में अनुपालन करना चाहते थे। फलस्वरूप कठिन प्रयास से उनके द्वारा खोजा गया सत्य को जीवन की वास्तविकता को अपने भीतर उतारने का प्रयास किया। सृजनकार ज़्यादातर अलंकृत शब्दों में लिखते हैं, जबकि उसके अनुसरण की बात आती है तब उन्हीं से कही गई वाणी को हवा में उड़ा देते हैं। 'हाथी के दाँत खाने के लिए और' वाली बात उभरकर सामने आ जाती है। मगर कवि भारती कहने से पहले कर दिखाने की क्षमता रखते थे। तद्‌नुसार वे कहते हैं, ईश्वर कहाँ नहीं, वे तो सर्वव्यापी है। भक्ति की परिभाषा विश्वास है। जैसे कि बच्चों को अपनी माँ से, पत्नी को अपने पति से, वस्तुओं के प्रति आँखों पर, ख़ुद पर का भरोसा आदि में एक विश्वास ही तो मूल मंत्र है जो सर्वत्र व्यापक रूप में निहित है। यही भारती का ईश्वर के प्रति अटूट बंधन है जो सदैव उनके मन को सराबोर करता रहा है। 

भारतीयार को आध्यात्म के प्रति आसक्ति का एक कारण यह भी है कि जब सन्‌ 1906 में स्वामी विवेकानंद की शिष्या से भेंट हुई थी तब उनसे ज्ञानोपदेश पा लिया था। तब से लेकर अंत तक उनको अपने ज्ञान मार्ग के गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया था। इसके बाद जितनी भी पुस्तकें उन्होंने लिखीं उसमें "श्रीमती निवेदिता देवी को समर्पण" लिखना नहीं भूलते थे।8 (पृ.सं. 92) 

शक्ति के उपासक के रूप में भारती

यह जानते है कि श्री रामकृष्ण परमहंस ने हर नारी को काली के रूप में देखा करते थे। इतना ही नहीं वे अपनी पत्नी शारदा को आसन देकर षोड़शी पूजा भी करते थे। इसी श्रेणी में भारती भी नारी को सम्मान देना उनके स्वभाव में सम्मिलित हो गया था। इनके भक्ति गीत केवल स्तोत्र के लिए मात्र लिखा होता अन्य भक्ति गीतों के साथ मिलकर समा जाता। किन्तु इनके भक्ति गीत में भी क्रांति थी, एक प्रकार का शौर्य था। वस्तुतः इनके गीत दूसरों के भक्ति गीत से भिन्न होते हुए देख सकते है। सिद्धों ने कहा, ज़िन्दगी एक मायाप्रवाह है। दुख एवं दर्द का नाम है ज़िन्दगी! ज़्यादातर दार्शनिकों के दृष्टिकोण भी जीवन को लेकर यही होता है। 

अपितु भारती की भक्ति पद्धति अनोखी है। सरस्वती देवी की महिमा को सिर्फ़ उसकी वंदना हेतु नहीं अपितु लोगों के उपकार के लिए लिखा करते थे। 

 मंदिरत्तै मुणुमुणुत्तु एट्टै
 वरिसैयाग अडुक्कि अदनमेल 
 चंदनत्तै मलरै इडुवोर
 सात्तिरम् इवल पूसनै अन्द्राम्

कवि का कहना है— किताबों को सजाकर उस पर चंदन और पुष्प चढ़ाने से सरस्वती पूजा समाप्त नहीं हो जाती। बल्कि हर गाँव हर शहर जहाँ कहीं आवश्यक हो पाठशाला का निर्माण करना अनिवार्य है। कहा जाता है कि दान धर्म में ख़र्च करने के बजाए एक ग़रीब को शिक्षा प्रदान करे वही जीवन में उत्तम धर्म माना जाता है।9 (पृ.सं. 26)

कवि ने ग़रीबी में अपनी ज़िन्दगी को व्यतीत किया है, मगर काली माँ से वरदान माँगते हैं कि "हे देवी महाकाली! आप मेरी माता समान हो! मेरे मन को तेरे चरणों पर रख दिया है। मुझे कभी नहीं भूल जाना। आपको भी सदा याद रखूँगा। 

हे माता! मुझे इतना उत्कृष्ट बनाओ ताकि मैं धन मन विवेक से कर्म कर सकूँ, तथा मुझे मज़बूत हृदय चाहिए, उसके साथ मेरे वचन में मिठास भर देना, मेरा चिंतन सदैव सही मार्ग पर हो और जिस वस्तु की कामना मैं करता हूँ वो मुझे उपलब्ध हो, ऐसा वरदान मुझे देना!"

उपरोक्त कथन का आधार निम्नलिखित गीत में हम देख सकते हैं—

 मनदिलुरुदि वेण्डुम्
 वाक्किनिले इनिमै वेण्डुम्
 निनैवु नल्लदु वेण्डुम्
 नेरुंगिन पोरुष कैप्पड वेण्डुम्।10 (पृ.सं. 129) 

कवि भारतीयार इतने विवेकी हैं और महाशक्ति से पूछते हैं कि "इतना विवेक के साथ मेरा सर्जन इस धरती पर क्यों हुआ!" इनकी दूरदर्शिता देश पार करते हुए पूरे संसार को लेकर गूँजता था। सारा संसार एक परिवार समान है। हम सब भाई भाई हैं। यही भावना उनके दिल में उमड़ती रहती थी। 

 तनियोरुवनुककुणविल्लैयेनिल जगत्तिनै अष़ित्तिडुवोम।11 (पृ.सं. 160)
अर्थात एक व्यक्ति भी भूखा रहेगा तो इस जग को मिटा देंगे। 

निष्कर्ष

कवि भारतीयार का स्वप्न यही था कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति निर्धन न हो तथा ग़रीबी से मुक्त हो। सारा अधिकार सबके लिए समान रूप से उपलब्ध हो! ऐसे उच्च विचार के कवि जातिवाद के विरुद्ध निरंतर आवाज़ उठाने में कटिबद्ध रहते थे। इस संसार में केवल दो ही जाति होनी चाहिए वह है पुरुष और महिला! जन्म में हम सब बराबर है, ऊँच–नीच का भेद भाव कभी हमें अलग नहीं कर सकता है, वरना ये समाज एकता के बारे में सिर्फ़ ख़्वाब मात्र देखकर रह जाएगा। कवि सुब्रमण्यम भारतीयार की अनेक कृतियों में इसकी झलक साफ़ दिखाई देती है। 

"जादि इरण्डोलिय वेरिल्लै"
"जादिकल इल्लैयडी पाप्पा"

कण्णन पाट्टु, कुयिल पाट्टु, पाँचाली शपथम् आदि अनगिनत सर्वोत्कृष्ट कृतियाँ आज भी भारतीयार के नाम का बिगुल बजा रही हैं। भारतीयार अपने अल्प समय के जीवनकाल में ही अपनी कृतियों द्वारा विश्वगुरु बन गए थे। यह अतिशयोक्ति नहीं है कि उनकी तरह एक और क्रांतिकारी कवि का जन्म तमिल साहित्य इतिहास में मात्र नहीं अपितु पूरे देश में नहीं हुआ है। इस आलेख के द्वारा सागर बराबर के इनकी कीर्ति को एक बूँद बराबर निकालकर आपके समक्ष रखने का प्रयास मात्र किया है। जब तक ये संसार रहेगा तब तक इनका वैभव अमर रहेगा। जय भारती! 

संदर्भ ग्रंथ सूची:

  1. भारतीयार काट्टिय पहुत्तरिवुप्पादै-स। कल्याणरामन, सिवभाग्गियम् पदिप्पगम, कुरिञिंपाडी। पृ.सं. 150

  2. भारतियिन पण्बाडु-डां म वी सुधाकर, प्रसन्ना पदिप्पगम्, चेन्नई। पृ.सं. 1

  3. कविक्कुयिल भारतीयार-कवियोगी तवत्तिरु सुत्तानंद

  4. भारती निनैवुगल-यदुगिरि अम्माल, संध्या पदिप्पगम्, चेन्नई। पृ.सं. 17

  5. वही . . . पृ.सं. वही

  6. भारतीयार काट्टिय पहुत्तरिवुप्पादै-स। कल्याणरामन, सिवभाग्गियम् पदिप्पगम, कुरिञिंपाडी। पृ.सं. 97

  7.  व . . .पृ.सं. 36 

  8. भारतियिन पण्बाडु-डां म वी सुधाकर, प्रसन्ना पदिप्पगम्, चेन्नई। पृ.सं. 92

  9. भारतीयार काट्टिय पहुत्तरिवुप्पादै-पृ.सं. 26

  10. कविक्कुयिल भारतीयार-पृ. सं.129

  11. भारतीयार काट्टिय पहुत्तरिवुप्पादै-पृ.सं. 160 

  12. विकिपीडिया। 

1 टिप्पणियाँ

  • 9 Dec, 2021 10:12 AM

    बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी ललिता जी । दक्षिण के इस पुरोधा का स्मरण और उनके समग्र साहित्य का संक्षिप्त विवरण सराहनीय प्रयास है । बहुत बहुत बधाई आपको और हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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