सूरज बना दरवेश

15-04-2023

सूरज बना दरवेश

सरोज राम मिश्रा ‘प्रकृति’ (अंक: 227, अप्रैल द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

दूर रेत के टीले पर
हर रोज़
बैठ मैं कातती
अपनी उँगलियों पर 
उतरते सूरज की
स्याही रोशनी से
ख़ुश्बू जड़े ख़्वाब . . . 
 
जाने कैसी
तलब जगी मुझे . . . 
किसी रोज़ 
काश! इसी कायनाती
धागे को पकड़ 
उतर आए सूरज कभी
मुझ तलक; 
बन जाए
मेरा इश्क़ . . .! 
मेरा जुनून . . .! 
 
साज़ ये कैसे जगा? 
आग ये कैसी उठी? 
सूरज भी हँस पड़ा . . . 
मेरे इश्क़ में झुक चला 
उतर आया मेरी दहलीज़
मेरी सँकरी गुफा! 
 
उसकी सुर्ख़ी बाँहों के घेरे से
रंगीन हुई मेरी अँधेरी गुफ़ा
और उसकी साँसों का घूँट
जब मेरी साँसों ने पीया . . . 
एक अलौकिक चेतना का
जन्म हुआ
 
तब यादों के कई तार
मेरी हाथ से ज़र्रे की तरह फिसलते हुए . . . 
कई जन्मों और मौत को पार करते हुए . . . 
जा पहुँचे उस वस्ल गुफ़ा
जहाँ सूरज मेरे अंजुलि भर प्रेम में भीग, 
ले ली थी समाधि, 
बना था कभी दरवेश
मेरी अँधेरी गुफ़ा! 

3 टिप्पणियाँ

  • Fff
    8 Apr, 2023 01:37 PM

    Nice

  • आपके शब्दों की चंचलता ने मुझे भी उस गुफा की ओर खींच लिया जैसे- सूरज को।

  • 8 Apr, 2023 08:48 AM

    प्रेम ,प्रकृति और इंसान का संगम सरोज जी की कविताओं का मुख्य स्वर है ।

कृपया टिप्पणी दें