सुनो अमीनी

15-03-2025

सुनो अमीनी

नोरिन शर्मा (अंक: 273, मार्च द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

दरख़्त की डाल . . . 
ऊँची फुनगी पे बैठी
गौरैया से बतियाती 
अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पायी . . . 
इक दिन सवाल कर ही बैठी . . . 
 
उड़ान के हौसले 
कहाँ से लाती हो तुम . . .? 
चीलों, गिद्दों और बाज़ की नज़रों से
अपने को कैसे बचाती हो तुम . . .? 
लौटकर मेरी ही टहनी पर
अपने नीड़ में
रात बिताती 
सहम तो नहीं जाती . . .? 
मेरी खोखल में ही बसते हैं
कुछ सपोले 
मैंने उन्हें पनाह नहीं दी . . .!!! 
लेकिन
क्या करूँ
मेरे ही गर्भ में शरण पाई है
इन्होंने भी
तुम्हारी ही तरह
इनकी भी रक्षक बनी हूँ
जाने अनजाने में
मैंने ही इन्हें पाला पोसा है . . . 
 
मेरी नन्ही गौरैया
तुम्हारे दुश्मन
आकाश में भी स्वच्छंद घूम रहे हैं
और
मेरे गर्भ में तो
ताक लगाए बैठे हैं
तुम्हारे जिस्म पर
जो उनके लिए मात्र
एक वक़्त का कलेवा है . . .! 
 
जाँचने का वक़्त आ गया है अब
तुम्हारे पंखों में कुछ शहतीर तो नहीं? 
परों पर किसी ने कतरनी तो नहीं चलाई? 
समय की धार ज़रूर
पैनी होती जा रही है
हुक्मरानों की चाबुक
तैयार है
उनकी फ़ौज समेत . . .!! 
 
लेकिन
ज़रा ग़ौर से देखो 
वर्षों से बँधी
तुम्हारे नन्हे पैरों की
बेड़ियों में 
अब जंग लग चुका है
मामूली सी शै
तोड़ देगी तुम्हारे बंधन
ज़ोर से आवाज़ तो लगाओ . . . 
आकाश की छाती पे उड़ते
तुम्हारे शत्रु
और 
मेरे खोखल के दरिंदे
बिलों में जा छिपेंगे . . . 
पनाह माँगते
नज़र आयेंगे!!! 
 
सुनो अमीनी
तुम्हारा इरादा 
रूढ़ियों को चुनौती देना था
या
रूढ़ियों को मानने का!!! 
कौन तय करेगा यह . . .? 
मीटर भर का टुकड़ा . . .? 
पास भी था
साथ भी था
लिपटा भी था
तुम्हारी गर्दन के इर्द गिर्द . . .!! 
पर सलीक़े और सँभाल का
इंच दर इंच का फ़ैसला
तुम नहीं माप पायीं!!! 
 
हिसाब लगाने में
ज़रूर कमज़ोर रहीं तुम . . .!!! 
किस किस की जवाबदेही है
तुम्हारी देह पर
इस गुणा-घटा का
अंदाज़ा न लगा पायीं . . .!!!! 
 
तुम नहीं जानतीं
कितनों के भीतर की ज्वाला को
हवा दे गईं तुम . . .! 
कितनों को ज़ुबाँ, 
और कितनों को
अपने वुजूद पे
यक़ीं दिला गईं तुम! 
कितनों ने कितनी ही जानें
गवाँ दीं अब तक
कितनी अस्मत
रौंदी जा रहीं हैं!!! 
 
नजफी का सवाल भी कितना 
मासूम है! 
क्या इंसान की जान लेने को
सीने में एक गोली काफ़ी नहीं . . .। 
 
बेखौफ़ दरिंदों की
छह गोलियाँ
दरअसल
उनके खौफ़ को खुले आम
बेपर्दा कर रही हैं
खौफ़ की शक्ल
ज़ुल्मों में साफ़ दिख रही है
ज़ुल्मों में साफ़ दिख रही है . . . 

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