सुलेखा

03-05-2004

मैं भी तो इंजन की भाँति ही सबको उनकी मंज़िल तक पहुँचाने का साधन मात्र हूँ। जिसके पीछे न जाने कितनों का क़ाफ़िला रहता है फिर भी वह अकेला ही है। काफ़िला तो अपनी मंज़िल के आने के आने तक ही उसका साथ देता है फिर वह रह जाता है नितान्त अकेला। क्या हर जगह स्वार्थ ही सर्वोपरि बन गया है। हर किसी का जुड़ाव सिर्फ़ स्वार्थ से प्रेरित होता है।

अब मेरे लिए यह पहचान करना बहुत ही कठिन हो गया है कि कौन अपना है कौन पराया। क्योंकि सबकी बातों में मिठास, अपनापन, हमदर्द सभी कुछ झलकता है। लेकिन यक सब वास्तव में मेरे हितैषी हैं, या इन सब का भी कोई न कोई स्वार्थ मेरे से सिद्ध होना है। जिस अपनेपन की तलाश मुझे बचपन से आज तक रही अब नहीं चाहती हूँ उसे पाना। क्यों सब मेरी मदद करना चाहते हैं क्योंकि मेरी मदद से उन्हें रातों रात एक समाज सेवी की उपाधि मिल जाएगी। अखबार में उनकी चर्चा उन्हें नामचीन लोगों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देगी।

कोई आठ बरस की थी मैं जब माँ कर तबियत अचानक एक दिन बिगड़ गयी। तीन चार दिन तक तो वो काम पर नहीं गयी थोड़ा ठीक हुई तो मुझे अपने साथ ले गयी अपनी मदद के लिए। फिर न जाने कब वो मुझसे ही सारा काम करवाने लगी। सुबह ले कर जाना और शाम को वापस लेकर आना ही उसका काम रह गया था।

किताबों कापियों और बस्ते का मोह न जाने कैसे स्वत: ही परिस्थिति वश कम हो गया था? या फिर माँ के साथ बँगलों में जाना वहाँ का रहन-सहन जीवन स्तर बतना प्रभावशाली था कि शुरू-शुरू में जाना बड़ा मनोरंजक लगा। हर मालकिन अपने बच्चे की उतरन, पुराने खिलौने और न जाने क्या क्या दे दिया करती। उन चीज़ों को पाने की लालसा में मैं छोटे-मोटे काम बड़ी ख़ुशी से किया करती। बस बीच पता भी न चला कि कब माँ ने अपने काम की ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर डाल दी और अब तो उसका काम सिर्फ़ मुझे लाना ले जाना तक ही सीमित होकर रह गया था। धीरे-धीरे उसने मुझे लाना ले जाना भी कम कर दिया हाँ उस दिन अवश्य मेरे साथ जाती जिस दिन मुझे तनख़्वाह मिलनी होती थी। जहाँ का जीवन कभी बड़ा ही सुखद लगता था, वहाँ के कपडे़, खिलौने, खान-पान जो मुझे आकर्षित करते थे उनको पाने की लालसा कभी मुझमें भी थी लेकिन इस तरह पाने की कभी कल्पना भी न की थी।

मेरे माता पिता ने भी मुझे पढ़ाना चाहा और शायद पढ़ाया भी। फिर अचानक ये परिवर्तन कैसे हो गया। जो मुझे पढ़ा-लिखा कर अच्छी नौकरी कराना चाहते थे उन्होंने मुझे ऐसा जीवन जीने के लिए मजबूर क्यों कर दिया। कभी-कभी मालकिनों के बच्चों को पढ़ते देख मेरा मन भी करता कि मेरे माता-पिता भी मुझे इसी तरह पढ़ायें। कई बार माँ से कहा था कि मेरा दाख़िला स्कूल में फिर से करा दे लेकिन माँ कितनी स्वार्थ हो जाती थी तब, और मैं मन मसोस कर रह जाती।

अब तो ऐसे जीवन जीना मेरी नियति बन चुकी थी इसलिए किसी से कुछ कहना ही छोड़ दिया था लेकिन शायद मेरी एक मालकिन मेरी मन:स्थिति भाँप गई थी तभी तो उन्होंने मुझे पढ़ाने के लिए माँ को कहा पर माँ तो जैसे मुझे पढ़ाना ही न चाहती थी क्योंकि मेरे पढ़ने जाने से उसे फिर बँगलों में काम करने जाना पड़ता। उसने मालकिन के आगे न जाने कितनी समस्या गिना डाली जिनके कारण वो न चाहते हुए भी मुझसे काम करवाती है। चाहती तो वो भी है पढ़ाना पर क्या करे। तिस पर मालकिन ने मेरी पढ़ाई का सारा ख़र्च उठाने की बात की तब क्या कहती। मालकिन ने मेरा दाख़िला स्कूल में करा दिया। अब मैं काम भी करती और पढ़ने भी जाने लगी। इसी तरह मैंने दसवीं पास कर ली।

एक जलसे में सभी बच्चों को प्रमाणपत्र मिलने थे। जिसकी तैयारी स्कूल में बड़े ज़ोर-शोर के साथ चल रही थी। मुझे भी एक गीत में भाग लेना था जिसके लिये एक सफ़ेद सलवार सूट चाहिए था। अचानक मेरे लिए सलवार सूट ले पाना सम्भव न था। अत: मैने इसकी माँग अपनी मालकिन से ठीक उसी तरह कर दी जिस तरह हठपूर्वक बच्चे अपने माता-पिता से करते हैं। क्योंकि मुझे विश्वास था कि क़दम-क़दम पर मदद करने वाली मेरी मालकिन अवश्य ही मुझे नया सलवार सूट दिला देंगी। लेकिन उस दिन जो कुछ भी घटा उसकी कल्पना सपने में भी मैंने न की थी। मालकिन का ऐसा रूप मेरे लिए अप्रत्याशित सा था। मुझे लगा मैंने कोई अपराध कर दिया है। मैं नज़रें झुकाए मालकिन की बातें सुनती रही, जब लगा कि अब यहाँ खड़ा हो पाना सम्भव नहीं है तो मैं बिना किसी विलम्ब के तेज़ी से सड़क पर आ गई। मेरी आँखों से बहते आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे और मेरा मन मालकिन के उस रूप को स्वीकारने को तैयार न था। मन में तीव्रतम उथल-पुथल हो रही थी उतनी ही तीव्रता से मेरे क़दम बढ़ते जा रहे थे कि अचानक मुझे ज़ोर का धक्का लगा और मैं एक ट्रक के सामने जा गिरी। मैंने उठने का निरर्थक प्रयास किया तब तक उसके पहिए मेरे एक पैर के ऊपर से गुज़र गये। होश में आने पर पता चला कि मेरा एक पैर नहीं है। पैर खोने का दु:ख शायद कम होता अगर मेरे अपने मेरे आसपास नज़र आते। नर्स से पता चला कि जिस दिन डाक्टर ने मेरे पैर काटने के बारे में माता-पिता को बताया उस दिन से लौट कर वे मेरी ख़बर लेने भी न आये।

अगर आये तो वे लोग ज़रूर आये जिनके लिए मैं एक माध्यम थी। एक ऐसा माध्यम जिसके सहारे वे रातों-रात एक प्रतिष्ठित समाजसेवी बन वाह-वाही लूटना चाहते थे। मेरी व्यथा को कम करने वाले मुझे उस कसाई से कम नहीं लग रहे थे जो बलि देने से पहले बकरे की ख़ूब सेवा करते हैं। मेरे मन में इन लोगों के प्रति घृणा के सिवा कुछ न था। मैं किसी भी क़ीमत पर इन लोगों की मदद नहीं लेना चाहती थी या यूँ कहें कि इन स्वार्थ लोगों की मदद नहीं करना चाहती थी। इस बीच शायद ऐसे भी लोग मुझसे मिलने आये थे जो वास्तव में मेरी मदद निस्वार्थ भाव से करना चाहते थे। पर मेरा मन अब कोई भी धोखा खाने को तैयार न था इसलिए इन आने-जाने वाले लोगों में मैंने कोई विशेष रुचि न दिखाई। मेरे इस व्यवहार से शायद अस्पताल के लोग थोड़ा चिन्तित दिखायी दे रहे थे क्योंकि वे चाहते थे कि पूर्णरूप से स्वस्थ होने तक कोई संस्था या परिवार मुझे आश्रय देने को तैयार हो जाये। लेकिन मेरे व्यवहार से उन्हें ऐसा नहीं लग रहा था कि स्वस्थ होने के उपरान्त मैं किसी की मदद स्वीकार करूँगी। मेरा मन तो इन आने-जाने वाले लोगों के बीच आज भी अपनी मालकिन को खोज रहा है इसलिए नहीं कि मुझे उनसे मदद की दरकार है सिर्फ़ ये जानने के लिये कि मैंने क्या अपराध किया था। मन के एक कोने में आज भी मालकिन के प्रति अगाध श्रद्धा थी क्योंकि उन्होंने ही मेरे जीवन को सँवारने का संकल्प लिया था, वो संकल्प जो एक माता पिता को लेना चाहिए था। फिर एस दिन ऐसा क्या हुआ जो उनका व्यवहार एकदम बदल गया। इस अनुत्तरित सवाल को जानने के लिए मैं एक बार अवश्य ही उनसे मिलना चाहती थी। एक-दो दिन बाद मुझे नक़ली पैर लगाया जायेगा जिसके सहारे मैं फिर से चल फिर सकूँगी। यह जानकर मुझे न जाने कितनी ख़ुशी हो रही थी क्योंकि मैं नक़ली पैर लग जाने के बाद स्वयं चलकर मालकिन से मिलने जा सकूँगी और फिर जान सकूँगी वो सब जिसके कारण उस दिन मालकिन ने मेरे साथ ऐसा बर्ताव किया।

मैं पूर्णरूप से स्वस्थ हो गयी थी, मेरी अस्पताल से छुट्‍टी का दिन था। नर्स ने आकर मुझसे अपने साथ चलने को कहा। वह मुझे डॉक्टर के कक्ष की ओर ले जा रही थी। पूछने पर बताया कि डॉक्टर साहब मुझसे कुछ कहना चाहते हैं। मेरे दिमाग में विचारों का बवंडर घूमने लगा। मुफ़्त में मेरा इलाज अपने किसी स्वार्थ के लिए इन लोगों ने किया है अब एस स्वार्थ सिद्धि का समय आ गया है। जो विचार बवंडर की भाँति दिमाग़ में घूम रहे थे वे शब्दों के माध्यम से बाहर निकलने को तैयार थे। कक्ष में पहुँचने पर डाक्टर साहब ने जैसे ही कुछ कहना चाहा मेरा आक्रोश पूरी तरह फूट पड़ा, जिसकी उम्मीद किसी को भी न थी। सब आवाक्‌ मुझे देखते रहे। जब मैं कुछ शांत हुई तब डॉक्टर साहब ने मुझे बैठने को कहा शायद वे मेरी मन:स्थिति से पूरी तरह परिचित हो चुके थे। तभी तो इतना सब कहने के बाद भी उन्होंने मुझे बैठने को कहा। मैं चुपचाप सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गई। तब उन्होंने मुझे बताया कि मेरे माता-पिता द्वारा मुझे अस्पताल में छोड़कर चले जाने के बाद मेरा इलाज मेरी मालकिन ने कराया आज मैं उन्हीं के कारण चलने लायक़ हो पायी हूँ। मेरे साथ हुई दुर्घटना से वे इतनी आहत हुई थी कि मेरे इलाज के लिए एवं मेरे भविष्य के लिए कुछ रक़म अस्पताल आकर डाक्टर साहब को देकर इस शहर को छोड़ कर न जाने कहाँ चली गयीं और हाँ जाने से पहले मेरे लिए एक पत्र अवश्य छोड़ गयीं थी। उस पत्र एवं चेक को डाक्टर साहब ने मेरे सामने रख दिया जिसे स्पर्श करने की मेरी इच्छा नहीं हुई। मैं तो सिर्फ़ उस प्रश्न का उत्तर जानना चाहती थी जो शायद अब असम्भव था। जिसके लिए मन में अगाध श्रद्धा थी आज उसके लिए भी मन में न जाने कितनी घृणा भर गई थी। क्यों शहर छोडकर चली गई, मेरी स्थिति के लिए शायद वहीं ज़िम्मेदार थीं तभी आँख मिलाने की भी हिम्मत नहीं हुई तिस पर मेरे पैर की क़ीमत भी आँक ली। कर लिया पश्चाताप! हो गयीं पाप से मुक्त! लेकिन मेरा क्या मैं किससे पूछने जाऊँ कि मेरी क्या ग़लती थी मैं कैसे प्रायश्चित करूँ।

अचानक न जाने क्या हुआ मैने उस पत्र एवं चेक को पलक झपकते ही चिन्दी-चिन्दी करके कमरे में फैला दिया। मेरी आँखों से अश्रुधारा अनवरत बहने लगी और मैं आज फिर तेज़ क़दमों से सड़क पर आ गई शायद उस धक्के की चाह में जो फिर से मुझे किसी ट्रक के सामने गिरा दे लेकिन आज मैं कोई निरर्थक प्रयास नहीं करूँगी, करूँगी तो सार्थक प्रयास जो मुझे मेरी मंज़िल तक पहुँचायेगा!

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