चाँदनी धूप

24-12-2003

चाँदनी धूप

अलका चित्राँशी

जीवन में कभी-कभी ऐसा समय भी आता है जब इंसान को परिस्थितिवश दोहरा जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। चाह कर भी वो बातें ज़ुबान पर नहीं आ पातीं जो मन में होती हैं और दूसरों की ख़ुशी की ख़तिर वो सब कहना पड़ता है, जो वे सुनना चाहते हैं, लेकिन हम कहना नहीं चाहते, फिर भी बोलना पड़ता है।

ऐसा ही कुछ रेनू के साथ हुआ। सास नहीं चाहती थी कि उनकी बहू नौकरी करे लेकिन रेनू किसी भी शर्त पर यह नौकरी छोड़ने को तैयार नहीं थी। आख़िर रेनू ने अपनी सास को मना ही लिया कि वह घर और दफ़्तर के बीच तालमेल बैठा लेगी और उसकी नौकरी से घर के कामों में कोई भी दिक़्क़त नहीं आयेगी। अगर उन्हें कभी ऐसा लगे कि वह दफ़्तर की वज़ह से घर के लिए समय नहीं निकाल पा रही हैं तो वे बेशक उसकी नौकरी छुड़वा दें।

यहीं से शुरू होती है रेनू की दोहरी ज़िंदगी जिसे रेनू बड़ी ही ख़ूबसूरती के साथ जी रही है। मन परेशान है पर किसी कोने में आत्मनिर्भर होने की ख़्वाहिश दबी थी, वो आज पूरी हो रही है। रेनू जानती है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है, इसीलिए परेशानी को चेहरे पर फटकने भी नहीं देती चाहो दफ़्तर हो या घर।

रेनू की दिनचर्या सुबह पाँच बजे शुरू होती है, नहा धो कर नाश्ता बनाना, सास को जगने पर चाय पहुँचाना, अपना टिफ़िन पैक करना सब उसी को करना पड़ता है। मन तो नहीं करता कि सुबह उठकर वो सारे काम करे, वो तो चाहती है कि उठे और नहा धोकर जैसे ही मेज़ पर आये लगा-लगाया नाश्ता मिले, जिसे खाकर वो दफ़्तर निकल जाये लेकिन नौकरी के लिए यह सब करना ही पड़ता है।

आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। रेनू ने केतली में चाय छानी और ट्रे में रख कर डाइनिंग हाल में ले आई। उसने सास को बुलाया, “माँ जी आइये, चाय तैयार है।” ..मन में तो आया कि कहे आ बुड्ढी चाय पी ले दिन भर पड़े-पड़े खाट तोड़ती रहती है। सुबह समय से उठ नहीं सकती, रोज़ चाय के लिए चिल्लाना पड़ता है, बीसों आवाज़ दूँगी तब आयेगी।

“ला बहू चाय दे दे!” माँजी ने कहा।

“आप बैठिए माँजी, लीजिए चाय तो मैंने कप में निकाल दी है।”

माँजी ने चाय पीते हुए कहा, “बेटी तेरे हाथ की बनी चाय में तो जादू है, पीते ही कैसे चुस्ती आ जाती है! आधा प्याला चाय और देना।”

रेनू केतली से चाय प्याले में डालते हुए मन ही मन बुदबुदा रही थी.. कितनी चतुर है बुढ़िया, मक्खन बहुत मार लेती है। काम कराना तो कोई इससे सीखे। बैठे-बैठे खाने को मिले तो तरीफ़ मारने में जाता ही क्या है। मार बुड्‍ढी मर, मैं तो काम कर ही रही हूँ। तू आराम कर!

“लीजिए माँ जी, चाय। माँ जी आप के लिए पराँठे और मटर की सब्ज़ी बना दी है। अभी परोस दूँ कि आप बाद में खाएँगी?”

“अरी बेटी, मैं तो बताना ही भूल गयी थी कि आज मेरा व्रत है। मेरे लिए अभी नाश्ते में मखाने की खीर बना दे, और समय हो तो दोपहर में खाने के लिए कट्टू के आटे की दो पूरी सेंक दे और फलाहारी आलू बना दे। शाम को तो तुम दफ़्तर से आ ही जाओगी।”

“जी माँ जी अभी बना देती हूँ।” कमाल की बुढ़िया है! खा-खा कर ड्रम हुई जा रही है फिर भी एक दिन सब्र नहीं कर सकती। रहेगी व्रत में और तीनों टाइम छक कर खायेगी। उसके बाद भी दर्शायेगी कि व्रत में रह कर कद्‍दू में तीर मार दिया है।

घड़ी की ओर नज़र उठाकर देखा तो उसे लगा कि फिर मर गए, आज फिर बुढ़िया की वज़ह से देर होगी। फटाफट निकलूँ नहीं तो बॉस की खरी-खोटी सुननी पड़ जायेगी।

“माँ जी आपके व्रत का सारा इंतज़ाम कर दिया है आप खा लीजिएगा। मैं आफ़िस के लिए निकलती हूँ।”

“अच्छा बेटा, अपना ख़्याल रखना और हाँ ऑफ़िस से आज समय से ही आ जाना मुझे शाम को पूजा भी करनी है। तुम भी इसमें मेरे साथ रहो तो ठीक रहेगा। “

“अच्छा माँ जी मैं कोशिश करूँगी जल्दी आने की,” रेनू सास के पैर छू कर घर से निकल गयी।

...तुम अपना ख़्याल रखना! अरे तेरी देखभाल से फ़ुर्सत मिले तब तो अपने बारे में सोचूँ। शाम को जल्दी आ जाना! .. माता जी को पूजा करनी है.. पूजा वाला कमरा धोना पड़ेगा, जब मैं आऊँगी तभी तो धुलेगा! फिर जीमने के लिए भी तो कुछ स्पेशल चाहिए, व्रत है न, कहीं कम खाया तो कमज़ोरी आ जायेगी न! रेनू लगातार सोचती जा रही थी।

ऑफ़िस के सामने टैक्सी से उतरने पर घड़ी देखी . . . “थैंक गॉड! ठीक समय पर आ ही गई, वरना मेरी ख़ैर नहीं थी।”

“हाय रेनू! इतनी हड़बड़ाहट में जल्दी-जल्दी कहाँ भागी जा रही है। मैं कब से तुझे आवाज़ दे रही हूँ,” उसकी सहेली सीमा ने पीछे से आवाज़ देते हुए कहा।

“हाय सीमा, भाग नहीं रही हूँ। मैंने तेरी आवाज़ सुनी ही नहीं। आज ट्रैफ़िक में फँस गई थी इसलिए थोड़ी टेंशन थी कि कहीं लेट न हो जाऊँ।”

दोनों एक साथ ऑफ़िस की सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं।

.... बड़ी जल्दी ताड़ जाती है। लेकिन मैं कोई कम थोड़े हूँ जो अपनी खिल्ली उड़वाने के लिए तुझे बता दूँ कि क्यों देर हो गई। ख़ुद तो बड़ी दूध की धुली है न, मैं तो काम करती हूँ, अपने को देख तूने तो घर में दो चूल्हे करा दिये हैं। वैसे भी तेरी जन्म की आदत है दूसरे के फटे में टाँग अड़ाने की। अरे! अपनी देख, मेरी चिन्ता छोड़ . . .

“रेनू, मेरी एक फ़ाइल आज तुम देख लो, मेरे पास काम थोड़ा ज़्यादा है और सर जल्दी माँग रहे हैं।”

“सॉरी सीमा, आज मुझे भी काम है। घर भी थोड़ा जल्दी जाना है। सॉरी आज नहीं। “

“घर जल्दी जाना है? क्यों कोई ख़ास बात है क्या?”

“नहीं कोई ख़ास बात नहीं। माँजी का व्रत है। उसका थोड़ा सामान बाज़ार से लेना है। बस और कुछ नहीं।”

“क्यों रेनू, तेरी सास तो दिन भर घर में अकेले ही तो रहती है। वो ख़ुद भी तो ला सकती है।”

“ला तो सकती है, पर जब मैं हूँ तो माँजी को काम करने की क्या ज़रूरत है? मैं उन्हें इतना भी आराम न दे सकूँ तो बेकार है मेरा उनके साथ रहना, फिर तो वे अकेले ही भली हैं।”

“ठीक है रेनू। मैं अपना काम करती हूँ।”

“ओ. के. सीमा, बुरा मत मानना फिर कभी कर दूँगी।”

.... ज़बान पर आकर रुक गया नहीं मन तो कर रहा था कि कह दूँ फ़ैशन-वैशन में तो अव्वल पर काम में मन नहीं लगता। नहीं लगता तो घर बैठ। मैं तेरा काम करूँगी तो अपनी सैलरी मुझे दे देगी क्या। दूसरों की बातों में तो तेरी जान अटकी रहती है। रोज़ एक-एक फ़ाइल भी निपटाती तो मेज़ पर ढेर नहीं लगता। अब बॉस की डाँट खा, तभी मेरे कलेजे को ठण्डक मिलेगी। बड़ी आई मुझसे काम करवाने वाली . . .

रेनू फटाफट अपनी फ़ाइलें निपटाने लग गयी। अभी उसे कुछ लेटर भी टाइप करके प्रिंट आऊट निकालने थे। इन सब कामों में कब चार बज गये पता ही न चला। वह फ़ाइलें समेट ही रही थी कि सीमा ने आवाज़ दी।

“रेनू टाइम हो गया। क्या आज घर नहीं जाना है? तू तो कह रही थी कि जल्दी जायेगी।”

“बस चल रही हूँ। क्या करूँ यार काम ही इतना था कि जल्दी नहीं हुआ। माँ जी पूजा पर मेरा इंतज़ार कर रही होंगी। अभी फल और पूजा का सामान भी लेना है। माँ जी ज़रूर परेशान हो रही होंगी कि मैं कहाँ रह गयी,” रेनू कहते कहते उठ खड़ी हुई।

रेनू सारा सामान लेकर जैसे ही घर पहुँची, बरामदे में फैले पानी में फिसल कर गिर गई। हाथ में लिया सारा सामान बरामदे में बिखर गया। किसी के गिरने की आवाज़ सुन कर उसकी सास जैसे ही बाहर आयी तो देखा कि रेनू बरामदे में फैला सामान समेट रही है। उन्होंने देखा कि फिसल कर गिरने को कारण रेनू के सारे कपड़े पानी से भीग चुके थे। तुरंत सहारा देकर उन्होंने रेनू को उठाया। रेनू को चलने में तकलीफ़ हो रही थी। माँजी उसे सहारा देकर धीरे-धीरे कमरे में ले गईं और फिर भाग कर दूसरे कमरे में जाकर कुछ ढूँढ़ने लगीं। रेनू ने घर में फैले पानी को देखकर सोचा बूढ़ी कर क्या रही थी जो इतना पानी फैल गया। ओह पूजा का इंतज़ाम! ये पूजा करने के लिए घर साफ़ कर रही थी कि मेरी टाँग तोड़ने के लिए पानी फैला रही थी।

तब तक रेनू की सास हाथ में एक शीशी लिये कमरे में आयीं और उन्होंने रेनू से कहा, “ला बेटी, पैर में नूरानी तेल लगा दूँ। तेरी मोच जल्दी ठीक हो जायेगी।”

“अरे माँजी मैं ख़ुद लगा लूँगी। आप परेशान न हों थोड़ा दर्द है। थोड़ी देर में ठीक हो जायेगा।”

“अपने आप कैसे ठीक हो जायेगा? लाओ मैं तेल लगाकर मालिश कर दूँ,” कहते-कहते वे रेनू के पैर में तेल लगाने लग गयीं। रेनू को आराम मिला और वो कुर्सी की पीठ पर टेक लगाकर आँख बन्द करके सोचने लगी।

कितनी चिंता है इस बुढ़िया को अपनी। तभी तो बड़े प्यार से तेल चुपड़ रही है। मैं दो दिन भी लेट गयी तो इसकी तो नानी मर जायेगी काम करते-करते। नहीं मक्खन तो तेल ही सही, लगा ले, लगा ले। मैं न उठी तो तेरे सारे काम कौन करेगा? सारे काम करने से तो थोड़ी मालिश करना ही तेरे लिए ठीक है।

रेनू को आराम से लेटा देख कर जैसे ही उसकी सास उठी, रेनू की आँख खुल गयी और वह उठने लगी। माँजी ने डाँट कर उसे लेटने को कहा। थोड़ी देर में वो हल्दी वाला गुनगुना दूध और खाने के लिए कुछ लेकर आयीं। रेनू को अपने हाथ से दूध पिलाया और पूछा, “अब कैसा दर्द है बेटी? ज़्यादा तकलीफ़ है तो डाक्टर को बुला लाऊँ?” फिर उसके पास बैठ कर उसके सिर पर बड़े प्यार से हाथ फेरने लगीं। पता नहीं रेनू को क्या हुआ कि वो अपना सिर सास की गोद में रख कर लेट गयी। आज उसे अपनी माँ की याद आ गई। उसकी आँखों से, न चाहकर भी कुछ मोती उसके गाल पर लुढ़क गये। उसे वह लम्हें याद आ गए जब उसकी माँ इसी तरह से उसकी तकलीफ़ देखकर परेशान हो जाया करती थीं। उसकी सेवा में जी जान से जुट जातीं फिर उन्हें अपनी चिन्ता न रहती। हर पल उसका ध्यान रखना बार-बार पूछना कि क्या खाने का मन है, दर्द तो नहीं, सिर में तेल डाल दूँ और गोद में सिर रखकर सहलाना। आज उसे अपनी माँ की याद आ गयी। क्यों आज तक वह सास में माँ को नहीं खोज पायी? फिर आज क्या ऐसा हुआ जो आँख नम हो आयी.. उनका बर्ताव देखकर! वो उन्हें अपनी माँ क्यों नहीं समझ पायी? हर पल उनके बारे में बुरा सोचना तो जैसे उसकी फ़ितरत बन चुकी थी। वो तो यही सोचती थी कि उन्हें बहू नहीं, एक नौकरानी चाहिए थी सो आज तक वे नौकरानी ही बनी रही। उसने भी तो कोशिश नहीं की कि वह बहू से बेटी बने।

रेनू का सिर सहलाते-सहलाते आज एक माँ को अपनी बेटी की याद हो आई। रेनू के मासूम चेहरे में उसे गुड़िया का चेहरा याद आ गया। कितना क्रूर बन गया था विधाता। एक माँ की ख़ुशियाँ नहीं देखी गयीं! छीन लीं सारी ख़ुशियां! दस बरस की तो थी जब विधाता ने उससे उसकी गुड़िया को छीन लिया था। कितने अरमान सजाये थे। उसे क्या-क्या सिखाना चाहती थी। सब अरमान एक ही पल में चकनाचूर हो गये। जो सपने गुड़िया को लेकर बुने थे, वो सारे सपने रेनू ने तो पूरे कर दिये, फिर भी उसे अपनी गुड़िया क्यों न बना सकीं? कितना ख़्याल रखती है रेनू! हर चीज़ माँगने से पहले ही लेकर खड़ी हो जाती है। जब वो मेरे मन की बातें बिना बोले ही समझ जाती है तो मैं क्यों न उसके मन की बात जान सकी? क्यों उसे अपनी बेटी न बना पाई? माँ की आँखों से निकले मोती रेनू के माथे पर अनायास ही गिर पड़े। तब उसे लगा कि माँ रो रही है। जब तक उसने आँख खोली, माँ की धोती का आँचल उन मोतियों को समेट चुका था। लेकिन फिर भी आज माँ के चेहरे से, बेटी के लिए चिन्ता के चिन्ह साफ़ झलक रहे थे। उससे रहा न गया और वो पूछ ही बैठी, “माँ आप रो रही हैं?”

फिर माँ का स्वर भी आँखों के साथ-साथ भीग गया। बोली, “आज विधाता ने मुझे मेरी बेटी फिर से लौटा दी। उसी ख़ुशी में आँख नम हो गयी।" रेनू को भी आज अपनी माँ मिल गयी। मन में पश्चाताप के भाव थे फिर भी तसल्ली थी कि माँ के बारे में जो भी सोचती थी, आज तक किसी से न कह कर ठीक ही किया, नहीं तो उसे कभी भी अपनी माँ न मिल पाती। फिर अपनी बचकानी बातें याद आ गईं जो वो अपनी माँ के बारे में सोचती थी या सोचना उसकी फ़ितरत बन गई थी। उसके चेहरे पर हँसी की लहर दौड़ गयी।

माँ उसके चेहरे पर हँसी देख कर निश्चिन्त हो गयी। आज एक माँ को उसकी बेटी और एक बेटी को उसकी माँ मिल गयी। दोनों एक दूसरे के चेहरे को देखकर हँस पड़ीं।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें