श्रीरामशलाका प्रश्नावली और पर्वत पार करती अकेली किरन बन जाना

01-07-2022

श्रीरामशलाका प्रश्नावली और पर्वत पार करती अकेली किरन बन जाना

दयानंद पांडेय (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

श्रीरामशलाका प्रश्नावली हमारे जीवन में भी बहुत-बहुत रही है। विद्यार्थी जीवन में तो बहुत ज़्यादा। अब तो बहुत समय हो गया, इस का सहारा लिए। बेटी का विवाह खोजने और विवाह हो जाने के बाद बहुत सारे भ्रम टूट गए। जान गए कि अपने हाथ में बहुत कुछ नहीं होता। अपने विवाह के बाद भी ऐसा ही लगा था। तुलसीदास लिख ही गए हैं: हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ। 

वैसे भी जीवन में संशय की बहुतेरी दीवारें टूट चुकी हैं। अब तो बस मालूम होता है कि यह होना है और यह नहीं होना है। जो हो जाता है तो हो जाता है। नहीं होता है तो भी अब वह निराशा नहीं होती। जो पहले कभी होती थी। बहुत होती थी। जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए वाली बात भी हो गई है अब। बहुत कुछ पाना था, जो नहीं मिला। अब भला क्या मिलेगा? बहुत कुछ खो चुके हैं, जो नहीं खोना था। वह भी। तो जो खोना था, खो चुके हैं। जो पाना था, पा चुके हैं। 

तो श्रीरामशलाका प्रश्नावली का अर्थ कभी हमारे लिए पाना ही होता था। पर अब समझ आ गया है कि बस जीवन में सिर्फ़ पाना ही नहीं होता है। खोना बहुत-बहुत ज़्यादा, पाना बहुत-बहुत कम होता है। सुख हो दुःख हो, मिलना होता है तो अनायास ही मिलता है। सायास कुछ भी नहीं होता। गीता का ज्ञान भी कि जैसा कर्म करेगा, वैसा फल देगा भगवान वाली बात भी अधिकांशत: ग़लत होते पाई है। बहुधा ‘अल्ला मेहरबान तो गधा पहलवान’ ही होते देखा है। तो किस से गिला, किस से शिकवा भला। कैसे कैसे ऐसे वैसे हो गए। ऐसे वैसे कैसे कैसे हो गए। वाली बात बारंबार ज़िन्दगी में घटते देखते आ रहा हूँ। और कि जहाँ, जिस बात की उम्मीद की वही उम्मीद ज़रूर टूटी। जिस पर ज़्यादा भरोसा किया, उसी ने सब से ज़्यादा धोखा दिया। तोड़-तोड़ दिया। और यह धोखा और टूटना भी बारंबार मेरे जीवन में उपस्थित है। तो कुछ कविताओं का आलंब ले कर ग़म ग़लत करता हूँ। बहुत पुराना एक कता है:

ज़िन्दगी ग़म ही सही गाती तो है 
दुनिया धोखा ही सही भाती तो है 
क्यों मौत के आगे हाथ जोड़ूँ 
नींद थम-थम के सही आती तो है। 

भोजपुरी के कवि मोती बी ए तो मुहावरा ही तोड़ते मिलते हैं। बहुत पुराना मुहावरा है, मृगतृष्णा। लेकिन मोती बी ए लिखते हैं:

रेतवा बतावै नाईं दूर बाड़ें धारा 
तनी अउरो दौरअ हिरना पा जइबअ किनारा! 

हिंदी के कवि देवेंद्र कुमार भी एक मशहूर मुहावरा तोड़ते हैं। अंगूर खट्टे हैं मुहावरे को ही वह तोड़ देते हैं:

तावे से जल-भुन कर 
कहती है रोटी 
अंगूर नहीं खट्टे 
छलाँग लगी छोटी। 

और गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र तो ग़ज़ब करते हैं। भला मछली भी कहीं फँसना चाहती है। पर वह लिखते हैं:

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो। 

तो जाल फेंकता रहता हूँ। बात बन गई तो बहुत सुंदर। नहीं बनी तो भी कोई बात नहीं। बुद्धिनाथ मिश्र तो इस गीत की अपनी गायकी में नागिन में भी प्रीत का उछाह खोज लेते हैं। तो ज़िन्दगी ऐसी ही शलाका प्रश्नावली में घूमती, मचलती और प्रीत का उछाह खोजती रहती है। ऐसे में ही श्रीरामशलाका प्रश्नावली भी आलंब बन कर ज़िन्दगी में उपस्थित होती रही है। 

पता नहीं, इस श्रीरामशलाका प्रश्नावली को तुलसीदास ने तैयार किया है कि हनुमान प्रसाद पोद्दार ने या किसी और ने। पर जानता हूँ कि समय के भँवर में फँसे जाने कितने लोगों का अवलंब बनती रही है, बनती रहती है। बनती रहेगी। प्रश्नों का उत्तर नहीं, समाधान नहीं, न सही, पर आलंब भी कम नहीं, बहुत होता है। हम तो जब अपनी समस्या का समाधान नहीं मिलता था तो आँख मूँद कर फिर किसी कोष्ठक पर पेंसिल की नोक रख देते थे। तब तक बार-बार रखते रहते थे जब तक सकारात्मक चौपाई नहीं मिल जाती थी। उस दिन नहीं, दूसरे दिन सही। मिल ही जाती थी मनचाही चौपाई। बचपने की ज़िद ही समझ लीजिए इसे। 

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥

एक समय यह चौपाई हर काम शुरू करने के पहले, घर से निकलते ही बुदबुदाने की आदत सी हो गई थी। इसलिए कि चौपाई के अर्थ में लिखा मिलता है: अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखकर नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है। भगवान राम का ये मंत्र क‍िसी सुरक्षा कवच से कम नहीं है। 

तो ज़िन्दगी के अनेक पड़ाव पर यह चौपाई साहस बँधवाने का काम करती थी। करती ही है। 

मंगल भवन अमंगल हारी। 
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। 
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

जैसी और भी चौपाई थीं। चौपाई क्या थीं, डूबते को तिनके का सहारा थीं। काम बने न, न बने संबल तो बनती ही थीं। तब के समय काम भी क्या होता था भला। कि इम्तहान में पेपर अच्छा हो जाए। नंबर अच्छा आ जाए। परिवार, रिश्तेदार में कोई बीमार है, तो ठीक हो जाए। कोई संकट में है तो संकट से उबर जाए। ऐसी ही छोटी-मोटी इच्छाएँ। अब तो आलम है कि पल छिन चले गए। जाने कितनी इच्छाओं के दिन चले गए। परमानंद श्रीवास्तव के इस गीत पंक्ति में ही अब जीवन स्वाहा है। माहेश्वर तिवारी की गीत पंक्ति में कहूँ तो जैसे कोई किरन अकेली। पर्वत पार करे। तो वही किरन बन गया हूँ और रोज़ ही कोई न कोई पर्वत पार करता रहता हूँ। 

जीवन से ज़्यादा मन के संघर्ष अब भारी हैं। तो किरन बन कर ही यह संघर्ष पार हो पाते हैं। बड़े-बड़े पर्वत पार हो जाते हैं। और जो वह लिखते हैं: जैसे कोई हँस अकेला /आँगन में उतरे। तो हँस बन कर आँगन न सही, बालकनी में उतरता रहता हूँ। लौट रही गायों की धूल भी माथे को छूती रहती है। श्रीरामशलाका प्रश्नावली बन-बन कर ज़िन्दगी की सीवन उधेड़ती और बुनती रहती है। यह श्रीरामशलाका प्रश्नावली है ही ऐसी। जो अब बिना किसी कोष्ठक में पेंसिल लगाए ही लगाती रहती है। जीवन का हिसाब-किताब लगाती रहती है। प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥ मन ही मन गुहराती हुई मंगल भवन अमंगल हारी, गुनगुनाती हुई जानती है कि होइहि सोइ जो राम रचि राखा। 

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