शाश्वत मूल्यों से जुड़ी काव्य यात्रा 

15-03-2024

शाश्वत मूल्यों से जुड़ी काव्य यात्रा 

सुषमा चौहान ‘किरण’ (अंक: 249, मार्च द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

हिंदी काव्य-धारा युग-युगांतर से चली आ रही है। हमारे वेद-पुराण, अति प्राचीन काव्य हैं। कभी-कभी लगता है कि उस समय के रचनाकार अपने हृदय की धड़कन, प्रकृति का संगीत, नदियों का कल-कल स्वर और पक्षियों की सुमधुर आवाज़ों के साथ इतने रचे-बसे थे कि उनके साधारण वाक्य भी काव्यमय (गीतिका) हो जाते थे। गीतिकाव्य की विशेषता है कंठस्थ होना, तुलसी का मानस इसका अभूतपूर्व उदाहरण है। समाज बदला, मूल्य बदले, रचनाकार की सोच बदली और साथ ही साथ रचना करने का तरीक़ा बदला। छन्द-मुक्त और मुक्त छन्द में कविताओं की रचना होने लगी। साहित्य सदैव से ही मानव मन को एक अलग संसार में ले जाता है, अगर ये कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि—“यह मानव आत्मा का प्रतिबिम्ब होता है, आम मनुष्य के सोच को अभिव्यक्त करता है।” 

प्रगति गुप्ता की कविताएँ भी उनके विचारों का प्रतिबिम्ब हैं, जो समाज की सोच को अभिव्यक्त करती हैं, तथा मानवता की नींव को समृद्ध करतीं हैं। सर्वप्रथम मैंने इनके तीन प्रकाशित कविता संग्रह यथा, “तुम कहते तो . . .”, “शब्दों से परे . . .” और “सहेजे हुए एहसास” को कई बार पढ़ा। यहाँ संग्रह के नामों के बाद जो बिंदु हैं, वो यह इंगित करते हैं कि कवयित्री को और भी कुछ कहना है। इसी तरह के बिंदु कविताओं के अंत में भी हमें देखने को मिलते हैं, मतलब जो भी कवयित्री ने कहा है उसे आप अपने विचारों से विस्तार दीजिये। इसके बाद प्रगति का चौथा कविता संग्रह “मिलना मुझसे” भी पढ़ा। प्रगति गुप्ता के सोच में विस्तार और लेखन में निरंतर परिपक्वता लक्षित होती है। प्रगति गुप्ता के काव्य में नारी चेतना:

“सौम्या, सौम्यातरा, शेषसौम्येम्येम्यत्वति सुन्दरी। 
परा परनाम परमा त्वमेव परमेश्वरी॥”मार्कन्डेयमुनि (चंडी पाठ) 

उपर्युक्त पद्य मार्कंडेयमुनि के जगत्जननी, सर्वशक्ति संपन्ना माँ दुर्गा की आराधना करते हुए मंगलाचरण में लिखा है। माँ के गुणों की व्याख्या करते हुए कवि कहते हैं, “हे जगतजननि! इस ब्रह्माण्ड में जितनी भी सुन्दर वस्तुएँ हैं तुम उनमें सुन्दरतम अर्थात्‌ सर्वोत्कृष्ट हो। 

कवयित्री प्रगति गुप्ता की कविताओं में माँ, प्रेमिका, बेटी और बहू विविध रूपों में नारी का सर्वोत्कृष्ट रूप दृष्टिगत होता है। यथा:

धीरे-धीरे थापें देकर/मातृत्व जगाता है कोई/है अभी अबोध/मगर अपने अस्तित्व का/बोध कराता है कोई। कविता “हाँ बेटा बोलो . . . सोते-जागते, दौड़ते-भागते/कितने भी काम हों उसके/पर एक वही तो/अपने बच्चों के लिये/हमेशा ख़ाली होती थी/तभी तो/हम सबके पुकारने पर/एक मधुर आवाज़/बचपन से अब तक/हम भाई-बहनों ने सुनी थी . . . हाँ बेटा बोलो। 

इसी तरह: माँ के सिरहाने, जननी हूँ तुम्हारी, माँ एक तिजोरी उत्कृष्ट कविताएँ हैं। मृत्यु के निकट माँ की मनःस्थिति का चरम जब माँ बन छोड़ूँगी इस चोले को और कल्पना कविताओं में देखिए। कितनी असहाय महसूस करती है माँ जब इस चोले को छोड़ती है। मृत्यु की स्वीकारने की विवशता और संतानों के अश्रु, इस अधर झूल में अशक्त माँ के भावों का मार्मिक चित्रण है। इसी तरह “साझी जिम्मेदारी” कविता की कुछ पंक्तियों का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रही हूँ . . . घर की नींव/अगर पिता हैं/तो सारा का सारा/घर होती है माँ . . . 

“स्वाभिमान” कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिये, “नहीं बनना चाहती/उस रिक्त स्थान की भरन/जो सिर्फ़/ज़रूरतों पर ही पूर्णता दे/बनना चाहती हूँ/वो पूर्ण विराम/जहाँ बहुत कुछ/पूर्ण होने लगे . . . 

“इतना मत लाड़ करो”—पुरानी कहावत है कि बहुओं को मत लाड़ करो, प्रगति गुप्ता का मत इससे अलग है। वो बहू को अपनी बिछड़ी बेटी मानने की तरफ़दारी करतीं हैं। कवयित्री प्रगति गुप्ता की कविताओं में प्रेम का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है। कवयित्री का मानना है कि मनुष्य जीवन प्रेम के अभाव में निरर्थक है, प्रेम कभी भी संकीर्ण नहीं हो सकता है। आज हमारे जीवन से अनजाने ही प्रेम कुछ रेत की तरह फिसल रहा है। इनकी कविताओं में प्रेम, विशुद्ध प्रेम है, आदर्श प्रेम है। कई जगह भ्रम होता है कि यह इनका ईश्वर के प्रति प्रेम है, ईश्वर से मिलने की चाहत है। “तुम्हारा स्पर्श” कविता में प्रेम की पराकाष्ठा देखिए, “पलकों की कोरों में सिमटे/तेरी कमी के एहसास/मेरे बहुत क़रीब हैं/अक़्सर छू कर मुझे/गीले से कुछ/एहसास दे जाते हैं”। अथवा “मेरे जैसे तुम मिले” की पंक्तियाँ मन को अभिभूत कर जाती हैं . . . “जब से मिले हो तुम/मुझे लगने लगा है/उम्र को कैसे थाम लूँ/कुछ पल को तेरे संग भी/जीने को ये मन करता है”। 

प्रगति की अधिकांश कवितायें प्रेम आधारित होती हैं। प्रेम समर्पण चाहता है, सम्पूर्ण समर्पण। कभी-कभी इनकी कविताओं में छायावाद और ईश्वर बोध का भी दर्शन होता है। जैसा कि छायावाद को लेकर आचार्य शुक्ल ने लिखा है, “छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिये, उनमें से एक रहस्यवाद के अर्थ में है, जहाँ उसका सम्बन्ध काव्यवस्तु से होता है अर्थात्‌ जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजन करता है। दूसरा छायावाद शब्द दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति विशेष के व्यापक अर्थ में है।” डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार “परमात्मा की छाया आत्मा में पड़ने लगती है और आत्मा की छाया परमात्मा में। यही छायावाद है।” 

एक बानगी “बयाँ” कविता से—रिश्तों को निभाना/सीखना हो तो/उन दरख़्तों से सीखिये/जिन्हें ज़ख्म/जड़ों पर लगते हैं/और टहनियाँ सूख जातीं हैं . . . 

“नन्हे परिंदे” कविता का अंश उद्धृत करना उपुयुक्त लगता है। छोटी-छोटी उड़ानों के अभ्यास/लो अब पूर्ण हुए/अब नींव को छोड़/बहुत कुछ सीखने/नन्हे परिंदे/सुदूर आकाश को चले . . .। प्रकृति और मानव जीवन की सार्थकता को कई कविताओं में प्रगति ने दर्शाया है। उदाहरणार्थ—सहेजा हुआ, अल्हड़ सा, सांध्य समर्पण, यह मात्र ओस नहीं, परबत आदि कविताओं में दृष्टिगत होता है। 

संग्रह “मिलना मुझसे” की कविताओं में सुन्दर उपमाओं ने उनके सौंदर्य में वृद्धि की है। ईश्वर बोध “रंगरेजा” कविता में देखिये—तू रँग मेरी रूह को/कुछ इस तरह/अपने ही रंग में/ए रंगरेजा”। 

“कितनी बड़ी बात” कविता में—कितनी बड़ी बात/जब पहुँचना ही हो ख़ुदा तक/ख़ुदा पहले से ही पता हो/तो उस तक पहुँचते-पहुँचते/ख़ुद भी ख़ुदा हो जाना/कितनी बड़ी बात . . .। “ईश्वर के चयन” कविता की एक बानगी—जब हमें आना-जाना/अलग-अलग और अकेले है/तो लोगों के छल-कपट को विचारना/होता है निरर्थक . . . इसी कविता में कवयित्री आगे लिखतीं हैं . . . अलग-अलग मकसदों के लिये/ईश्वर के अलग-अलग चयन हैं। 

पूर्व जन्म में भी प्रगति का विश्वास है। “छूटे दर्द” कविता की कुछ पंक्तियाँ—मिलकर भी न मिल पाना/तड़पन बढ़ा दे जो/ऐसा कोई छूटा कर्म ही/पूर्व जन्म से जुड़ा लगता है। “चलना ही ज़िन्दगी है” आदि कविताओं में भी पूर्व-जन्म का उल्लेख हुआ है। कवयित्री की सनातन धर्म में व नैतिक मूल्यों में गहरी आस्था दिखाई देती है। “मर्यादाएँ” कविता में कवयित्री लिखतीं हैं—गहरे तक पैठी मर्यादाएँ/हक़ीक़त बयान करने से/कभी-कभी इतना सकुचातीं हैं/कि मोहब्बत की बात हों तो/ख़ुद में समेट सिर्फ़ आँखों से बरस जाती हैं। इसी प्रकार “यह आधुनिकता कैसी” कविता में लिव-इन का विरोध करती हैं। आधुनिकता के नाम पर मूल्यों का ह्रास प्रगति को रास नहीं आता है—हाई प्रोफ़ाइल, हाँ अभिनय करते हैं हम और क़ानूनी काग़ज़ात जैसी उत्कृष्ट व्यंग्य कविताएँ हैं। हमारे समाज में हर दिन माता-पिता का होता है, भाई-बहनों का होता है अतः मदर्स दे, फ़ादर्स दे क्यों? यह हमारी संस्कृति नहीं है। गुरु कविता द्वारा प्रगति कहती हैं— मशीनी ज्ञान हमें गूगल अथवा अन्य सोशल माध्यमों द्वारा मिल सकता है, परन्तु संवेदनाओं से रहित ज्ञान हमें मानवता से दूर ही रखता है, बिना संवेदनाओं के मनुष्य हाड़-मांस का पुतला ही रह जायेगा। खोखले अस्तित्व, आजकल का आदमी, दान-पुण्य का भ्रम, महानगर, उघाड़ापन और युवा मानसिकता, आज के यथार्थ से जुड़ी कविताएँ हैं। 

प्रगति गुप्ता ने जीवन के सभी रूपों को अपने संकलनों में समेटा है। जैसे छतों-से-छतों तक में बचपन, कितने रूप ग़रीबी के, झुकते ही हैं, कन्या भ्रूण की माँ का दर्द, मन्त्र के फेरे, समय, रंग, बुढ़ापा और फ़ितरत अपनी तरह की गंभीर कविताएँ हैं। पुस्तकों के अंत में “पुराने पन्नों से” कविताएँ छोटी हैं, शीर्षक विहीन है पर घाव करे गंभीर वाली हैं। भाषा में कहीं-कहीं देशज शब्दों ने कविता की सुन्दरता को निखारा है। प्रगति अपने दुश्मन को भी बद्दुआ नहीं देना चाहती हैं। “दुआएँ माँगता है कोई” कविता में लिखती हैं—ख़ुदा करे मेरे रकीब की भी/साँसें न थमें कभी/क्योंकि उसको भी अपना ख़ुदा मानता है कोई . . .। 

तुम कहते तो से आरम्भ हुई यात्रा सहेजे हुए एहसास और शब्दों से परे होती हुई मिलना मुझसे तक पहुँचते-पहुँचते विचारों व भाषा के पैमाने पर उत्तरोतर विकास की ओर बढ़ती स्पष्ट दिखाई देती है। कुल मिलाकर प्रगति गुप्ता की कविताओं से गुज़ारना एक सुकून भरा एहसास है। कवयित्री बधाई की पात्र इसलिए भी हैं कि उन्होंने शाश्वत मूल्यों को अपनी कविताओं के माध्यम से जीवित रखा है। 

सुषमा चौहान ‘किरण’ 
वरिष्ठ साहित्यकार (राष्ट्रपति से सम्मान प्राप्त) 

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