शब्दों के रेखा चित्र:  ‘वंदना'

01-05-2022

शब्दों के रेखा चित्र:  ‘वंदना'

सुनीता आदित्य (अंक: 204, मई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

भारतीय संस्कृति और परम्पराओं में किसी भी कार्य का शुभारंभ वंदना से किया जाता है। आज भी अन्तर्मन की तहों से झाँकते, कौंधते, झकझोरते कुछ चित्र कभी मन को आह्लादित करते हैं तो कभी उदास। इन चित्रों में कहीं जीवन्तता है तो कहीं प्रेरणा . . . ये कभी खिलखिलाने का सबब बन जाते हैं तो कभी बेचैन हो पलकें भिगो देते हैं। मानस पटल पर उभरते इन्हीं विविध वर्णी रेखाचित्रों को शब्दों का आकार देने की कोशिश है। मन की परतों में शांत सुप्त पड़े इन भावचित्रों को बाहर लाने का दु:साहस भी मैं सिर्फ़ इसलिए कर पा रही हूँ कि जीवन के उतार चढ़ाव के धुँधलके में यदि मेरे अनुभवों की कोई रेखा या कोई चित्र किसी एक व्यक्ति को भी स्पंदित कर सका, उसके मन को स्पर्शित कर उनमें आशा का संचार कर सका तो यही इसकी सार्थकता होगी और मेरे लेखन की सफलता भी। यदि ऐसा न भी हो सका तो भी यह सुकून तो रहेगा ही कि हमने असफल ही सही, कोशिश तो की। 

आज की यह शुरूआत भी ‘वंदना’ से। 

‘वंदना भाभी' जी से हमारी मुलाक़ात 1993 की शुरूआत में नवाबों के शहर लखनऊ में हुई थी। उत्तर प्रदेश सिविल सर्विसेज़ का आधार भूत कोर्स नैनीताल से करने के बाद मेरी पहली पोस्टिंग लखनऊ में हो चुकी थी और आदित्य तो मेरे नैनीताल जाने से पहले ही ट्रांसफ़र होकर लखनऊ आ चुके थे . . . कुछ दिनों में ही बंदरिया बाग़ रेलवे ऑफ़ीसर्स कालोनी में हमें घर भी मिल गया। चार अधिकारियों के इस ब्लाक में वंदना भाभी और डॉ. सीमा का घर ऊपर की मंज़िल पर था, हम और नम्रता भाभी नीचे ग्राउंड फ़्लोर पर। 

अरविंद श्रीवास्तव भाई साहब, भारतीय रेलवे ट्रैफ़िक सर्विस के अधिकारी हैं और आदित्य के इलाहाबाद के दिनों से मित्र भी। दोनों की कुछेक रुचियाँ और सोच की दिशा भी कमोवेश एक सी लगती। साहित्यिक अभिरुचि से परिपूर्ण, रहन-सहन में सादगी और स्वभाव में सरल सहजता लिए उनका व्यक्तित्व सभी के मन में एक सम्मान का भाव बनाए रखता। सेवा में भी उनकी ख्याति सदैव बहुत अच्छी रही। ऐसे अरविंद भाई साहब के सरल व्यक्तित्व में इज़ाफ़ा करती हमारी प्रिय वंदना भाभी, उनकी सहचरी, सहधर्मिणी हैं। 

उन दिनों वंदना भाभी को घर में भी अमूमन मैं साड़ी पहने ही देखा करती थी। हल्का दोहरा शरीर, खुला हुआ गेंहुआ रंग, सुंदर स्नेह तरल बड़ी बड़ी आँखें . . . सिंदूर भरी सीधी माँग और माथे पर सजी कुछ बड़ी सी बिंदी, पारम्परिक भारतीय नारी को परिभाषित करती उनकी ये मोहक छवि उन्हें सबसे अलग करती। ज़ीरो फ़िगर जैसी बातों की शोशेबाज़ी से वह हमेशा दूर रहतीं। उन दिनों रेलवे ऑफ़ीसर्स क्लब में हम लोग अक़्सर ही जाया करते थे, कभी बच्चों के साथ, तो कभी बैडमिंटन या फिर कभी कोई आयोजन। किन्तु वंदना भाभी वहाँ भी विशेष अवसरों पर ही जाने की इच्छुक रहतीं। वह अपने घर संसार में समर्पित तो थी हीं, उसी में मगन भी रहतीं। आडम्बर से कोसों दूर, सहजता लिए उनके व्यवहार से हम दोनों जल्दी ही अच्छे दोस्त बन गये। हमारी दोस्ती में मेरा उनके प्रति सम्मान रहता और उनकी ओर से मुझे छोटी बहन सा सहज स्नेह मिलता। भाभी शुरू से बहुत प्रतिभा सम्पन्न रही़ं हैं . . . विशेष कर हेंडीक्राफ्ट, स्कैचिंग, पेंटिंग आदि कलाओं में। 1993 की स्मृतियों में उनका घर उनकी सुघड़ रचनात्मकता से भरा रहता था . . . कभी भाभी किसी घड़े को गोटा लगाकर सजाने में लगी दिखती तो कभी किसी कढ़ाई बुनाई में व्यस्त। कभी किसी कैनवास पर रंग बिखेर रही होती तो कभी किचिन में कुछ स्वादिष्ट पकाने में व्यस्त। हर तीज त्यौहार, व्रत पूरी आस्था के साथ मनाती। हम चारों घरों में एक सुंदर सामंजस्य हमेशा बना रहा . . . हम पड़ोसी से मित्र और फिर बहुत अच्छे मित्र बने . . . और ताउम्र बने रहे। वंदना भाभी के दोनों बेटे हाइकू और पैवलो अपूर्व के हमउम्र थे . . . कुछ बड़े-छोटे। अक़्सर ही स्कूल से मिलने वाले बच्चों के हैंडीक्राफ़्ट्स के होमवर्क हमसे ज़्यादा वंदना भाभी की ज़िम्मेदारी हो जाते . . . कभी-कभी तो बच्चे भी साधिकार सीधे उधर का ही रुख़ कर लेते। 

हम चारों घरों में सिर्फ़ वंदना भाभी ही थीं जो नौकरी नहींं कर रही थीं, लिहाज़ा रोज़ सबेरे दफ़्तर जाने की आपाधापी से मुक्त थीं। मैं, डाॅ. सीमा और नम्रता भाभी तीनों ही कामकाजी महिलाएँ थीं तो वंदना भाभी सुपर कामकाजी। कालांतर में हम लोगों को उसी कालोनी में बड़े बँगले मिल गये और हम चारों कालोनी के अलग-अलग कोनों में बिखर गये पर साथ हमेशा बना रहा, मुलाक़ातों के सिलसिले और रिश्ते पूर्ववत क़ायम थे। हम चारों की कई मायनों में स्वभाव की तासीर बिल्कुल ही अलग थी, जीवन जीने का नज़रिया भी अलग-सा जान पड़ता, फिर भी हम एक दूसरे से सीखते, सराहते, स्नेह के धागों में बिना किसी ग्रन्थि के हमेशा जुड़े रहे। कभी भी न कोई बहस न विवाद न ही कोई प्रतिस्पर्धा, यहाँ तक कोई कन्फ्यूजन तक न होता। सही मायने में हम चारों एक दूसरे के शुभेच्छु, एक दूसरे के प्रशंसक थे। इस सराहना में कुछ भी सायास न था, एक सहज भरोसा और सम्मान का भाव ही इन रिश्तों की बुनियाद थी। कालोनी की, रेलवे के विभागों की अंदरूनी राजनीति से हम सब बेख़बर रहते, इसी अज्ञानता के चलते महिला समिति के प्रपंच हमारे घरों में कभी प्रवेश पा भी न सके। 

एक बार वंदना भाभी, नम्रता भाभी और हमनें साथ-साथ गायन में भी आज़माइश का मन बनाया। सीमा को भी पकड़ने की कोशिश की गयी पर उसने हम लोगों के इस नये शिगूफ़े से पहले ही हाथ खींच लिया था—’नाट माई कप ऑफ़ टी’ वाले सीधे सपाट अंदाज़ में। ख़ैर . . . एक गुरुजी तलाशे गये और सीखने की शुरूआत भी हो गयी। ऑफ़िस और बच्चों के साथ मुझे समय निकालने में मुश्किल होती और जब कभी हम लोग इकट्ठे हो भी पाते तो गाते-बजाते कम गपियाते अधिक थे, कुल मिलाकर संगीत साधना का शौक़ अधूरा ही रह गया और कुछ दिनों में ही इस शौक़िया गायन का सिलसिला टूट गया। उन दिनों की मौज-मस्ती और हँसी की साझी स्मृतियाँ हम तीनों के लिए आज भी मुस्कुराने का सबब बनती है। 

मुझे याद है कि एक कार्यक्रम में हेमा मालिनी जी को लखनऊ से गोरखपुर सैलून से लाने, ले जाने के लिए ज़्यादातर अधिकारी, विशेष कर पुरुष अधिकारी अति उत्साहित और उत्सुक थे। कुछेक तो बाक़ायदा सूट निकालने लगे, आख़िर ड्रीम गर्ल हमारे शहर में पधार रहीं थीं। उन दिनों तैनात डी आर एम सर जो बहुत गम्भीर और संजीदा व्यक्ति थे, ने उन सबके ख़्याली पुलावों पर पानी फेरते हुए अरविंद भाई साहब को हेमा जी को लाने का काम सुपुर्द किया। दरअसल उन्हें लगा कि हेमा जी का अरविंद जी के साथ आना सबसे अधिक निरापद रहेगा। बहरहाल भाईसाहब को उनकी ऊपरी अनिच्छा के वाबजूद यह ज़िम्मेदारी निभानी ही पड़ी। हम लोग वंदना भाभी को छेड़ते रहे और वह हँसती रहीं . . . भाईसाहब वापस आये तो भाभी ने उनको चिढ़ाते हुए कहा कि अब ज़मीन पर वापस आ भी जाइए . . . हम सब हँस दिये . . . हाँ जी . . . अपनी हेमा मालिनी के पास। 

वंदना भाभी सुघड़ गृहिणी तो हैं ही, शांत और मधुर भाषिणी भी रहीं . . . हम लोगों का ट्रांसफ़र हो गया और हम लोग अलग अलग दिशाओं में निकल गये, हाँ सम्पर्क सूत्र हमेशा बने रहे। यद्यपि भौगोलिक दूरियाँ और मसरूफ़ियत सम्पर्क सूत्रों को शिथिल कर रही थीं पर भावनाओं के तार पहले जैसे ही चुस्त-दुरुस्त और मधुर बने रहे। जब भी एक दूसरे के शहरों में जाते, उसी गर्मजोशी और अधिकार के साथ मिल लेते। 
इस बीच अरविंद भाईसाहब का स्टाफ़ कॉलेज, बड़ोदरा ट्रांसफ़र हो गया, हम लोग उन दिनों दिल्ली थे। सम्पर्क टूटे तो नहींं थे पर बच्चों के अहम दौर की व्यस्तता में हम सबकी बातचीत अब बहुत कम होने लगी थी, हम सब अपनी अपनी गृहस्थी और ज़िन्दगी में अस्त–व्यस्त रह रहे थे। 
जानकारी हुई अरविंद भाई साहब बड़ोदरा में डी आर एम हो गये हैं . . . फिर शायद वहीं से मुम्बई ट्रांसफ़र हो कर चले गये। 

मुम्बई शहर ने उनके जीवन की दिशा और दशा में वंदना भाभी के स्वास्थ्य की गम्भीर समस्या का एक अप्रिय अध्याय खोल दिया . . . 
एक रोज़ आदित्य की भाईसाहब से बात हुई तब हम लोगों को भी इस बाबत पता चल सका। भाई साहब आदित्य को ज़्यादा कुछ तो न बता सके, बस वह परेशान थे . . . बहुत परेशान, भाभी जी ठीक नहींं है, इतना ही पता चल सका था कि मर्ज़ की शुरूआती पकड़ और इलाज के कन्फ्यूजन में उनका नीचे का आधा धड़ कमज़ोर हो गया है। उनसे इतना ही बताया गया और आदित्य से कुछ और पूछा भी नहींं जा सका। यह ख़बर मेरे लिए तो असहनीय सी थी। दौड़ती भागती वंदना भाभी जी की इस स्थिति में कल्पना भी विचलित कर रही थी। हम लोग फिर से लगातार, सम्पर्क में रहने लगे। अरविंद भाई साहब से हालचाल मिल तो जाते पर भाभी से बात करने की मेरी हिम्मत ही न होती . . . यह ऐसा सम्बन्ध था भी नहींं कि किसी औपचारिकता की ज़रूरत लगती। हमलोग या कोई भी कुछ मदद नहींं कर पा रहा था, हालात जस के तस थे, यह विवशता खलती। एक्सपर्ट्स से सलाह ली गयी, वे अपनी ओर से पूरा प्रयास कर भी रहे थे। 

मुझे भाभी से मिलने का बहुत मन करता, पर संकोच भी बना रहा शायद पहली दफा किसी ख़राब परिस्थिति का सामना कर पाना सबसे ज़्यादा कठिन होता है। हम ख़ुद भी कभी-कभी उस स्थिति का सामना करने में घबराने लगते हैं। अच्छा हुआ कि इस संकोच और संवादहीनता को तोड़ता भाभी जी का ही फ़ोन एक रोज़ आ पहुँचा। 

“कैसी हो सुनीता?” 

उनकी आवाज़ सुनकर अच्छा तो बहुत लगा, बस मन अजीब सा होने लगा। आँखें नम थीं . . . अच्छा है हम लोग एक दूसरे को देख नहींं पा रहे थे बस बहुत दिनों बाद सुन रहे थे। बमुश्किल मेरे मुँह से निकल सका, “भाभी, हम तो ठीक हैं, आप?” 

“सुनीता, अब पहले से बेहतर हूँ, पर अभी समय लगेगा . . . ” वह बहुत धीमे बोल रही थी . . . बेहद शांत या शायद हताश। 

“भाभी, हम आना चाह रहे थे” . . . मैंने कहा। 

“तुम चिंता मत करो, वैसे जब भी चाहो आ जाना।” 

भाभी की माँ उनके पास पहुँच चुकी थी। आंटी की पेंशन का ही कुछ मामला फँस रहा था, भाभी ने उसी सिलसिले में यह फ़ोन किया था। 

“भाभी, वह सब हम देख लेंगे, मेरी ज़िम्मेदारी है, अब आप ज़रा भी फ़िक्र मत करिए,” हमने उन्हें आश्वस्त कर दिया था। 

“तुम्हें सौंप कर हम निश्चिंत हो गये हैं, सुनीता।” 

पहले सा वही सहज स्नेह और भरोसा। उन्होंने आंटी से भी बात करायी, उनका आशीर्वाद भी मुझे मिल गया। एक छोटा सा काम था, सो हो गया। इस बातचीत में मेरा संकोच भी बह चला . . . मेरी हिम्मत ही नहींं पड़ रही थी उनसे बात करने की और संकोच दूर करने के लिए उनके फ़ोन को ही आना था। 

हम लोग मुम्बई पहुँचे। बधवार पार्क रेलवे ऑफ़िसर्स कालोनी में उनके फ़्लैट तक का रास्ता तय करने में उनके साथ की साझा स्मृतियों के न जाने कितने चित्र आ जा रहे थे। मानों समय ठहर सा गया हो, उसी खिलखिलाहट और उन्हीं गीतों के बीच। कितनी अंतरंग बातें हम आपस में साझा कर लेते थे। इन यादों के बीच आज कई सालों बाद वंदना भाभी से मिलना हो रहा था . . . यह मुलाक़ात उन यादों से बहुत अलग होने वाली है, इस बात से बख़ूबी वाकिफ़ भी थे। 

भाभी व्हील चेयर पर थीं। उन्हें इस रूप में देखना अपने आप में एक दुस्वप्न सा था पर यह एक हक़ीक़त थी, एक कड़वी सच्चाई जिसे चाहकर भी हम झुठला नहींं सकते थे। भाभी के चेहरे की रौनक़ मानों चली गयी हो, वे उम्र से कहीं ज़्यादा और कृशकाय दिख रहीं थीं . . . मिलते ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया। मुझे याद नहीं मैं उनसे क्या कहती रही . . . ऐसा लग रहा था कि यह तसल्ली हम अपने आपको दे रहे थे। मुझे कभी-कभी लगता जैसे भगवान जी से उनका प्रारब्ध लिखने में कोई ग़लती हो गयी हो। पता नहीं किस जन्म का कष्ट भोग रहीं थीं, भाभी। मैं मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि प्रभु कष्ट दिया है तो दूर भी करो। समय ज़ख़्म नहींं भर पाता है तो सहने की सामर्थ्य देने लगता है . . . शायद वंदना भाभी के साथ भी ऐसा ही हो रहा था . . . सुधार की प्रगति बहुत धीमी थी। वह मुझे सिलसिलेवार एक एक बात बता रही थीं। वही सहजता, वही सरलता . . . बस इस बार वह निराश लगीं। इस तकलीफ़ में आंटी जी, उनकी ढाल बनी हुई थीं . . . बेटी को हिम्मत देती, उनकी सेवा में लगीं। संवेदनाएँ माँ से सेवा कराना भी कहाँ स्वीकार पाती हैं . . . भाभी भी उसी मन: स्थिति में थीं . . . “मुझे उनकी सेवा करनी चाहिए पर . . . कर ये रही हैं” वह हँस दीं, दिल को भेदती उनकी फीकी हँसी में बहुत दर्द था। फिर भी वह मुस्कुराने का असफल सा प्रयास कर रहीं थीं . . . कभी कभी ये ज़िन्दगी भी नियति का क्रूर मज़ाक बन जाती है। 

“ये सब छोड़ो, बच्चे कैसे हैं, मोबाइल में फोटो होगी, दिखाओ,” उन्होंने उत्साह लाते हुए कहा। हम लोग विषयांतर की कोशिश कर रहे थे। छह-सात साल के छोटे-छोटे बच्चे अब बड़े हो चुके थे। हम लोग वर्तमान के सच को भुलाने की कोशिश में पुरानी बातें, पुरानी यादों को जी रहे थे, उन यादों की मिठास को महसूस कर रहे थे। 

भाभी ने बताया कि वह बौद्ध धर्म से जुड़े कुछ शुभेच्छुओं के सम्पर्क में आ चुकी थीं। सामूहिक प्रार्थना, जप, ध्यान के कार्यक्रम उनके घर पर नियमित हर हफ़्ते हो रहे थे। यह भाभी के लिए मानसिक सम्बल और ऊपर वाले की ओर से भेजी गयी एक मदद थी। धर्म के अलग-अलग रूप हैं, पर आस्था की शक्ति एक। सामूहिक प्रार्थनाएँ एक ओर उनमें आस जगातीं तो दूसरी ओर सकारात्मक ऊर्जा से भरे लोगों से मेल-मिलाप उन्हें अच्छा लग रहा था। सबकी करुणा मानों उनमें अदम्य विश्वास भरने लगी . . . जिसके सहारे एक कठिन राह सुगम होने लगी। 

हम लोग वापस आ गये और लगातार सम्पर्क में बने रहें। 

भाईसाहब का ट्रांसफ़र लखनऊ हो गया। नम्रता भाभी इस कठिन दौर में उनसे लगातार सम्पर्क में बनी रहीं। लखनऊ में भी उन्होंने अपने ही अपार्टमेंट में फ़्लैट भी दिला दिया था . . . ताकि साथ और सहयोग बना रहे। हम लोग दिल्ली से आते तो दोनों से मिल पाते। 

नम्रता भाभी की दोस्ती और साथ वंदना भाभी के लिए ईश्वरीय वरदान से कम न रहा, विशेषकर तब जब वंदना भाभी की ढाल बनी आंटी जी ख़ुद कैंसर की चपेट में आ गयीं थीं। ज़िन्दगी हर रोज़ नये इम्तिहान लिये जा रही थी . . . न सिर्फ़ भाभी का बल्कि भाईसाहब के लिए भी यह कठिनतम दौर था। भाई साहब, भाभी जी का हर सम्भव ख़्याल रखते। उनकी दिनचर्या और सामाजिक सरोकार, मेलजोल सब भाभी की स्थिति के अनुरूप रहते। इस बार सत्यवान अपनी सावित्री के साथ अडिग विश्वास के साथ खड़े दिख रहे थे। 

हम भी अपनी परिक्रमा करके लखनऊ वापस आ चुके थे। आंटी जी और भाभी दोनों से मुलाक़ात होती रही। 

भाभी जी की माँ का देहावसान हो गया . . . सूचना मिली। बहुत साथ निभाया उन्होंने, भाभी कह रही थी। वह एकदम शांत थीं। 

इस कठिन और बेरंग से दौर में वंदना भाभी ने फिर से अपनी तूलिका से रंग भरने शुरू कर दिए। इस बार मिले तो उन्होंने अपनी बहुत सी पेंटिंग्स दिखाई . . . बहुत अच्छा लग रहा था, उनकी जिजीविषा खिल उठी थी। वह अभी चल तो नहींं पाती हैं . . . बेड पर सहारा लेकर बैठ कर सृजन में तल्लीन हो जाती हैं। परिवार और मित्र सभी उत्साहित होकर उनकी हौसला अफ़ज़ाई कर रहे थे। उनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी आयोजित की जाने लगीं और इंस्टाग्राम से भी जोड़ दिया। विषम परिस्थितियों में उन्होंने ख़ुद को, अपने परिवार को समेटे रखा और परिवार ने भी एक दूसरे को मज़बूती से थामे रखा। सच तो यह है, वंदना भाभी इन कठिनाइयों से भरे तेरीना रास्तों पर अपनी पुरज़ोर कोशिशों से न सिर्फ़ चल रहीं थीं बल्कि रास्ते की हर कठिनाई को दरकिनार कर पाने में सफल भी हो रहीं थीं। अपनी दुश्वारियों को जीत कर वह अपनी पेंटिंग्स को इंद्रधनुषी रंगों से सजा कर एक अलग ही मुक़ाम पर पहुँचा रहीं थीं। 

‘मधुबनी’ हो या ‘तंजोरी’, रंगों से वह खेलने लगीं थीं। उनकी पेंटिंग्स का फलक विशाल था। ईश्वर पर उनकी आस्था उनकी पेंटिंग्स में दिखाई देती है। ज़िन्दगी के चटक रंग उनकी जिजीविषा को समेटते लगते हैं। उनकी विविध वर्णी पेंटिंग्स में धार्मिक थीम पर एक ओर विघ्नहर्ता गजानन, माँ सरस्वती, जनकसुता वैदेही, राम सिया का विवाह, शिव के साथ शृंगार करतीं माँ पार्वती हैं तो दूसरी ओर गोपियों साथ कृष्ण कन्हैया, राधा-कृष्ण की होली का उल्लास दिखाई देता है। प्रकृति के सौन्दर्य के विविध रूप रंग भी चारों ओर बिखरे हैं। उनमें पेरिस गये बेटे-बहू की कल्पना के साथ एफ़िल टावर है तो कहीं दुनियाँ को हँसाने वाले चार्ली चैपलिन से भी मुलाक़ात हो जाती है। उनकी कुछेक पेंटिंग्स मशहूर फ़िल्मों के गीतों की थीम पर सुंदर सृजन हैं तो कहीं देशभक्ति के रंग में गर्वोन्नत भारत माता भी हैं . . . विषयों की व्यापकता के साथ एक से बढ़ कर एक शाहकार। मेरे लिए उनकी हर पेंटिंग न केवल उनके उत्कृष्ट सृजन का, उनकी उपलब्धियों का प्रमाण है बल्कि उससे कहीं अधिक उनके दृढ़ संकल्पों की प्रतिच्छवि हैं . . . नैराश्य के अँधेरे से उजाले में आने की एक सतत यात्रा है . . . जो प्रेरणा देती है, प्रतिपल . . . निरंतर। 

हाइकू के विवाह में कोविड की विभीषिका के मद्देनज़र सारी रस्मों में हम सब ने वर्चुअल शिरकत की। भाईसाहब और भाभी जी ने भी। बाद में स्थितियों के सामान्य होने पर एक रिसेप्शन रखा गया। हम लोग होटल की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए यही सोच रहे थे कि काश वंदना भाभी भी इस ख़ास मौक़े पर, इन ख़ुशियों में शामिल हो पातीं। हाॅल में पहुँचते ही हमें सरप्राइज़ देती हुईं, उसी मुस्कुराहट से स्वागत करती हुईं वंदना भाभी दिख गयीं। व्हील चेयर पर बैठी वह बहुत प्रफुल्लित थी, आज सुंदर सी साड़ी में भाभी को पहले की तरह ख़ुश देखना, मुझे आत्मिक ख़ुशी दे रहा था। इस पारिवारिक समारोह में वह अपनी शारीरिक सीमाओं को लाँघ कर बाहर आ गयीं थी। हम और नम्रता भाभी तो बस उन्हीं पर निहाल हुए जा रहे थे। बहुत दिनों के बाद पहले जैसी भाभी से हम मिल पा रहे थे। 

“सासू माँ जम रही हो,” हम उन्हें छेड़े बिना कैसे रहते। 

“और क्या, बहू को तगड़ा कम्पटीशन देना है . . . ” वही सरल निश्छल हँसी। 

ज़िन्दगी के कठिन दौर में जब हर रोज़ नियति परीक्षा ले रही हो, हिम्मत जवाब देने लगती है, लिखना आसान भले हो पर जिसने बरसों इस यातना को झेला हो, जहाँ डॉक्टर भी कह चुके हों कि हो चुके डैमेज की रिकवरी शायद मुश्किल हो, इसके साथ ही शायद जीना पड़ जाए . . .। अवसाद ग्रस्त होना स्वाभाविक है पर इन मायूसियों के बीच वंदना भाभी की जिजीविषा, उनकी रचनात्मकता और कोशिशों के लिए हृदय से नमन। 

ईश्वर से यही प्रार्थना है कि उन्हें पूरी तरह स्वस्थ कर दे। इंतज़ार रहता है उस रोज़ का, उस चमत्कार का, जब भाभी हँसते हुए व्हील चेयर से उठकर हम सबको सरप्राइज़ कर देंगी . . . प्रार्थना है कि मेरी कल्पना में बंद आँखों से देखे गये इस स्वप्न को मैं खुली आँखों से साकार होते देखूँ . . . सामूहिक प्रार्थनाएँ, अपनों का साथ–सहयोग और भाभी की मुसलसल कोशिशें जारी हैं . . .। 

इंस्टाग्राम पर Vandana Srivastava @ shobhitart  पर उनकी पेंटिंग्स के माध्यम से उनकी इस रचनात्मक यात्रा में आप भी उनसे रूबरू हो सकते हैं। 

1 टिप्पणियाँ

  • 28 Apr, 2022 09:59 PM

    लेखिका ने स्वानुभूत ,दिल मे संजोकर रखी हुई स्मृतियों को सजीव रूप मे धाराप्रवाह चित्रण किया है ईश्वर उनके साथ हमारी भी दुआओं को जरूर कुबूल करेगें प्यारी वंदना भाभी जल्द ही स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करेंगी ,,,,,,लेखिका को हार्दिक बधाई एवं ढेर सारी शुभकामनाएं ❤❤

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