कशमकश

सुनीता आदित्य (अंक: 206, जून प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

घर के सामने के छोटे से पार्क की बेंच पर सुधा और विनय आज फिर जा बैठे। यह उनका हर इतवार का नियम सा बन चुका था। यह पार्क बहुत बड़ा नहीं है। छोटा सा ही सही मगर है चौरस और साफ़ सुथरा। हरे भरे लाँन के चारों ओर खिली हुई महकती-लहकती फुलवारी, बच्चों के कुछ झूले और गिनती की कुल पाँच छह बेंचें। अमूमन यहाँ बच्चों के खेलने के सिवाय सन्नाटा ही बना रहता है। शायद ही कभी दो से ज़्यादा बेंचें भरी मिलती हों। पार्क की यह ख़ामोशी उन दोनोंं की साझा पसंद है। इस पार्क के बढ़ते दरख़्त उनके अपनों से, हर सुख दुख को अपने में सहेजते समेटते उनकी ज़िन्दगी में शामिल होते चले गये। इस ख़ामोशी ने उन दोनों की साझा ज़िन्दगी के न जाने कितने मसलों को यूँ ही सुलझा दिया था। कौन कहता है ख़ामोशी में आवाज़ नहीं होती। 

दोनोंं बच्चे आरवी और आर्यन सामने खेल रहे थे। दौड़ते-भागते, गिरते-पड़ते उनकी शरारतों और खेल का सुधा और विनय भरपूर आनंद ले रहे थे। बेटी आरवी छोटे आर्यन के साथ खेल भी रही थी और उसे गिरने से बचा भी रही थी। सुधा के चेहरे पर दिन भर की थकन और इस सुख की तृप्ति एक साथ झलकने लगी मानो बच्चों के साथ बचपन की मासूमियत और शरारतों को फिर से जीने का एहसास हो रहा हो। बच्चों की खिलखिलाहट उनमें ऊर्जा भर देती। रोज़मर्रा की दिनचर्या और ज़िम्मेदारियों से अलग यह समय कुछ पलों को ही सही उनमें उत्साह भर देता। विनय तो इसे अपनी टानिक मानता। 

सुधा के मायके में तो दूर-दूर तक कोई पार्क ही नहीं था। घर का छोटा आँगन ही उन भाई बहनों के खेलने का स्थान बल्कि अक़्सर तो रणभूमि भी बना रहता। सुधा सोचने लगी कि उसकी अम्माँ और बाऊ जी भी तो उसे देखकर ऐसे ही प्रफुल्लित होते रहे होंगे। उसकी कल्पना में बचपन के न जाने कितने चित्र आ-जा रहे थे। वह मुस्कुरा उठी। पार्क की सोंधी ख़ुश्बू उसे अतीत की यादों में बहा कर ले जा रही थी। ममता की इस सुखद अनुभूति ने उसे अपनी अम्माँ और बाऊ जी के प्रति कृतज्ञता से भर दिया। 

ख़यालों में खोई सुधा के हाथ को अपने हाथों में लेते हुए विनय अनायास पूछ बैठा, “सुधी, हम लोग भी गाड़ी ले लें?” 

सुधा ने चौंक कर विनय को देखा उसके ख़यालों में अनचाहा सा ख़लल पड़ चुका था जो उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा . . . मायके की मन पसंद गलियों से उसे यथार्थ के धरातल पर वापस आना अच्छा नहीं लगा। 

“गाड़ी? अभी? कैसे भई?” 

हाथों को नचाते हुए वह बोल पड़ी, “आप भी ना, कुछ भी।” 

मन ही मन वह खिसिया रही थी कि विनय भी कहाँ से बेसिर पैर के ख़्याली पुलाव पकाने लग जाते हैं। इस साल आरवी का एडमीशन भी कराना है। घर में भी तो सब विनय से ही आस लगाए रहते हैं, जब भी जाओ बस फ़रमाइशें तैयार। कोई भी तो उनकी दिक़्क़तें नहीं समझता, इतने सालों में न ही कभी किसी ने पूछा। सबको बस अपनी ही पड़ी रहती है। एक बार गाँव जाने में सबको देने दिलाने में ही अगले महीने का बजट गड़बड़ा जाता है . . . ऐसे में ये गाड़ी लेंगे . . . कहाँ से? 

विनय के अप्रत्याशित प्रस्ताव ने एक साथ कई सारे सवालात खड़े कर दिए थे। मन के स्वगत भावों के कई रंग एक साथ सुधा के चेहरे पर आ-जा रहे थे। विनय की ओर नज़र पड़ते ही उसे अपने व्यवहार की रुखाई का भान हो गया था। उसे विनय पर प्यार आने लगा . . . वह भी तो पिस रहा है इस चक्की में . . . अपनी भूल सुधारने की कोशिश में, आवाज़ में भरसक नरमी लाते हुए सुधा बोली . . . 
“आप . . . ना . . . ज़्यादा मत सोचिए . . . पहले गृहस्थी कुछ जम जाये, फिर गाड़ी भी ले ही लेंगे, अरे चिंता क्यों करते हैं?” 

“हाँ,” बुझा सा विनय इतना ही कह सका। उसका प्रस्ताव और उत्साह दोनोंं ही गिर चुके थे। 

उसे याद आने लगा जब शादी की पहली सालगिरह पर विनय के दोस्तों ने जबरन ख़ुद को निमंत्रित कर डाला था। अब तक तो अपने रहन-सहन के स्तर के चलते विनय अपने मित्रों को घर बुलाने से कतराता ही रहा था। उसे लगता कहाँ बिठायें, घर में ढंग का एक सोफ़ा तक नहीं है। उनकी बैठक में बस चार अदद कुर्सियाँ और एक प्लास्टिक की मेज़ भर ही तो थी। बाद में आम की लकड़ी का एक तख़्त भी वहाँ डाल दिया गया था। गाँव से जब भी बाबू जी आते तो उसी पर सोते। 

विनय चाह कर भी इस बार अपने दोस्तों को मना नहीं कर सका। आख़िर कितने दिन ना-नुकुर करता, इस बार वह टाल नहीं सका। सच तो यह था कि सबसे कट कर रहना उसे अच्छा भी नहीं लगता था। अन्तर्मन की दुनिया के अपने सवाल और अपने ही जवाब रहते हैं। विनय का मन कहता कि अपने साधारण रहन-सहन से शर्मिन्दा होने की बजाय उसे तो फ़ख़्र होना चाहिए। जो है अपने बलबूते पर, अपनी ईमानदारी की कमाई से। सुधा भी कहती कि यह सब अपनी जगह ठीक है पर सामाजिक रवायतें तो निभानी ही पड़ती हैं। 

सुधा ख़ुश थी, पूरे उत्साह से तैयारियों में व्यस्त। शादी के पहले उसने कढ़ाई का कोर्स किया था। अपने हाथों से काढ़े हुए मेज़पोश और तख़्त के लिए मैचिंग चादर भी संदूक से आज बाहर आ गए थे . . . क्रोशिया से बनाए हुए कुशन कवर भी उसने चढ़ा दिए। सीमित साधनों में बेहतर प्रदर्शन की वह कोशिश में लगी रही। 

खाने में भी आज रोज़ की दाल-सब्ज़ी से अलग पकवान बन रहे थे। मटर पनीर, दम-आलू की सब्ज़ी, बथुआ का रायता, पूड़ी कचौड़ी और खीर। स्टील का डायनिंग सेट बुआ ने उसे शादी में दिया था, वह भी आज इस आयोजन में पहली बार निकल कर शामिल हो रहा था। 

एक तो मौक़ा भी शादी की पहली सालगिरह का, दूसरे विनय के चारों दोस्त सपरिवार पहली दफ़ा उनके घर आ रहे थे। ऐसे में सुधा अपनी ओर से कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाहती थी। स्टोव पर इतने लोगों का खाना बनाने में उसे मुश्किल तो बहुत हुई पर सुधा के उत्साह में परेशानी का एहसास तक उसे छू ना सका। 

सुधा की सुघड़ता से घर चमकने लगा। विनय को भी अब अच्छा लग रहा था। वह भी सारी व्यवस्था में सुधा के साथ साथ लगा रहा। घर के कामकाज का उसे बिल्कुल भी अनुभव नहीं था पर सुधी, सुधी कह कर हौसला अफ़ज़ाई में कोई कसर नहीं रखता। विनय की आँखों में तैरती प्रशंसा से ही सुधा प्रसन्न हो जाती। 

सबके आने के पहले सुधा ने ख़ुद को भी सँवार लिया। गुलाबी रंग की चौड़े बार्डर की बंगाली सूती साड़ी में वह और खिल उठी, सादगी में और भी ख़ूबसूरत। तैयार होकर बाहर आते ही उसने विनय की ओर देखा, “कैसी लग रही हूँ?” 

“जबर्दस्त,” विनय उसे निहार रहा था, वह मुस्कुरा दी। विनय उसे चिढ़ाते हुए बोला, “मैडम, इजाज़त हो तो बंदा भी कपड़े बदल ले। आपके साथ खड़े होने लायक़ तो हो जाए।” 

“आप नहीं सुधरेंगे . . .” लजाती हुई सुधा हँस दी। 

दोस्तों की महफ़िल जम चुकी थी, सुधा सबके आकर्षण का केन्द्र बनी रही . . . सभी सुधा से प्रभावित थे—एक ख़ूबसूरत और निपुण मेज़बान। सभी उसकी पाककला की खुलकर प्रशंसा कर रहे थे। विनय के दोस्तों और उनकी पत्नियों के बीच सुधा आकर्षण का केन्द्र तो थी ही, अब कुछेक की ईर्ष्या की वजह भी बन चुकी थी। 

“अरे गैस नहीं है? भाभी जी ने स्टोव पर खाना बनाया है? अरे भाई विनय ये तो हमारी सुंदर भाभी जी पर सरासर अत्याचार है . . .” विनय के एक दोस्त ने चुटकी ली। 

सहानुभूति की धीमी आँच पर घी पड़ चुका था . . . उस आग ने विनय को पानी-पानी कर दिया। उसे कुछ न सूझा, ना ही कुछ कहते बना . . . बस अचकचाकर रह गया . . . अपने में सिमटता, अपने आपसे शर्मिन्दा। 

सुधा ने उस समय तो किसी तरह बात को सँभाल लिया, “नहीं, नहीं भाई साहब, इन्होंने बुक तो कराई है . . . अभी नम्बर नहीं आया है . . .” 

पर दोस्तों के विदा लेते ही सुधा बरस पड़ी . . .  “अब दोस्तों को तब बुलाना जब घर में गैस आ जाये। 

शादी की सालगिरह की ख़ुशियों पर पानी फिर चुका था और अब तो यह पानी सुधा की बड़ी-बड़ी आँखों में भी छलछलाने लगा . . . हतप्रभ सा विनय पहले से ही खिन्न था . . . उसे बिल्कुल भी समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर उसकी ग़लती क्या है? अपने ऊपर तो वह कोई ख़र्च करता ही नहीं . . . अम्माँ बाबूजी और बहनों के ख़र्चों में भी अब हाथ खींचने लगा है . . . उसे भी तो बुरा लग रहा था . . . घर की प्राथमिकताएँ और ख़र्च भी सुधा की सलाह से ही होते हैं . . . फिर भी वो उससे नाराज़ है, आख़िर क्यों? अब बातको सँभाले भी तो कैसे? 

उनकी ख़ुशियों को मानो ग्रहण लग चुका था, घुटन और संकोच की छाया ने दोनोंं को अपनी गिरफ़्त में जकड़ लिया। एक छोटी सी बात तूल पकड़ रही थी। दोनोंं ही एक दूसरे से खिंचे बने रहे . . . दोनोंं की ज़ुबान ख़ामोश थी और मन के शोर में सब धुँधला-सा हो गया। 

सुधा बहुत दुखी थी, अपने अभावों से कहीं ज़्यादा आज के अपने व्यवहार से। 

“ये क्या कर दिया मैंने, कम से कम आज तो चुप रह सकती थी,” अफ़सोस और ग्लानि में वह बात करना तो दूर विनय की ओर देख भी नहीं रही थी। 

रात को आख़िर गुज़रना ही था . . .। 

दूसरे दिन नज़र छुपा कर विनय की ओर देखने पर एक बारगी तो सुधा को लगा कि जैसे वह इस शख़्स को पहली दफ़ा देख रही है—हताश और परेशान . . . वह तड़प उठी . . . बस जल्दी से जल्दी सब सामान्य करना चाह रही थी। 

“पार्क चलेंगे?” 

सुधा प्यार से बोली . . . उसके लहजे की मुलायमियत विनय महसूस कर पा रहा था।

“जैसा तुम चाहो।” 

“चलते हैं” 

विनय अभी भी चुप था। चेहरे पर तनाव की लकीरें कुछ कम होती लगीं। पर पार्क की ठंडी हवा भी उनकी चुप्पी न तोड़ सकी। 

आख़िर सुधा ने पहल की। विनय के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए बहुत अफ़सोस के साथ वह कह रही थी, “हमने ख़ाम-ख़ा ही आपको दुखी कर दिया, मुझे इस तरह नहीं बोलना चाहिए था।” 

“अरे नहीं, नहीं . . . ग़लती तो मेरी भी है, मुझे पहले ही ध्यान रखना चाहिए था, ज़िम्मेदारी तो मेरी ही थी,” विनय बोले जा रहा था। 

सुधा के कोमल स्पर्श से विनय का तनाव पिघलने लगा . . . दोनोंं अपने अपने हिस्से की ग़लती के लिए शर्मिन्दा थे . . . बेवजह ही उनका ख़ास दिन और एक ख़ूबसूरत शाम जाया हो चुकी थी। दोनोंं की समझ और प्यार उन्हें नया सबक़ सिखा रहे थे। मन का गुबार बह चला था, मौसम अब साफ़ था। 

विनय को पुराने अंदाज़ में आते देर नहीं लगी। कोहनी मारते हुए बोला, “आज ही तो हम आपको विदा करा के अपने घर ले आये थे, याद तो है न?” 

“जी हुज़ूर, बिल्कुल याद है।” 

सुधा की आँखों में चमक थी। हँसते हुए दोनोंं, एक दूसरे का हाथ थामे पार्क की फुलवारी की महक अपने साथ लिए घर की तरफ़ बढ़ चले। 

सुधा सोचती रही कि अब से पहले तो उसे इस घर में कोई कमी इतनी नहीं खली थी। आख़िर किसी की झूठी सहानुभूति ने उसके मन को इतना विचलित क्यों कर दिया था? उसकी समझ इतनी कमज़ोर है क्या? विनय के लिए तो उसे बहुत बुरा लग रहा था। कितनी कोशिश करते हैं . . . उसे ख़ुश रखने की . . . अपने ऊपर उसकी सुख सुविधा देखते हैं, और क्या करें? उसने मन ही मन संकल्प लिया कि अब से वह उनका बहुत ध्यान रखेगी। उसके चेहरे पर संकल्प की दृढ़ता थी। बड़े जतन से साड़ी के पल्लू में उसने एक गाँठ लगा ली। अब वह नहीं भूलेगी। 

विनय को अपने दोस्त की बात चुभ गयी थी . . . सब कुछ सामान्य हो चला था पर टीस तो बाक़ी थी। उसे अपने हालातों से शिकायत हो रही थी। बुनियादी ज़रूरतें तक वह अपनी पत्नी को मुहैया नहीं करा सका था . . . उसे तकलीफ़ होती। कभी कभी तो अपनी अम्माँ बाबूजी पर भी उसे ग़ुस्सा आता . . . इतना बड़ा परिवार . . . सबकी ज़िम्मेदारी आख़िर किसके बूते पर? उसकी भी तो सीमायें हैं, एक तरफ़ सँभालो तो दूसरी तरफ़ बिगड़ जाता है . . . सारे उत्तरदायित्व उसी के हैं क्या? 

विवाह के दो साल बाद ही सही, गैस का चूल्हा उनकी गृहस्थी में शामिल तो हो गया फिर भी सुधा ख़ुश नहीं हो पा रही थी। छोटी-छोटी ख़ुशियों में ख़ुश रहने वाली सुधा आज खुल कर कुछ कह भी न सकी। 

विनय और सुधा की साझा गृहस्थी में अभाव स्थायी मेहमान की तरह बना ही रहा। चार साल बाद बमुश्किल काफ़ी जद्दोजेहद के बाद दोनोंं स्कूटर ख़रीद पाए। उन दिनों आरवी होने को थी . . . डॉक्टर के पास भी जाना हो तो रिक्शे का इंतज़ार करना पड़ता। विनय इसके लिए भी ख़ुद को ही दोषी मानता। सुधा ने अपनी मदद के लिए किसी को नहीं रखा था . . . अंतिम महीने में सुधा की अम्माँ आ रहीं थीं तब कहीं जाकर विनय की ज़िद से एक महरी रखी गयी। विनय ने ऑफ़िस के बाद दो बच्चों को ट्यूशन देना भी शुरूकर दिया था। न चाहकर भी वह जल्दी घर नहीं आ पाता। घर गृहस्थी और नौकरी के बीच किसी और परीक्षा को देने का स्वप्न अब दम तोड़ने लगा था। 

विनय, रामकिशन जी की छह संतानों—चार बहनों और दो भाइयों में सबसे बड़े थे। रामकिशन जी प्राइमरी स्कूल के अध्यापक हैं। अध्यापन के आध्यात्मिक सत्व से गौरवान्वित बने रहते। आर्थिक अभावों ने रामकिशन जी को स्वभाव से और सख़्त, मितभाषी और उससे भी ज़्यादा कंजूसी की हद तक मितव्ययी बना दिया था—माता रामदेई एकदम घरेलू महिला थीं। अपनी घर गृहस्थी में रमीं, गुज़र बसर की जुगत में दिन रात लगी रहतीं . . . न कोई महत्वाकांक्षा, न कोई बड़ा सपना . . .। एक संतोषी उदासीनता उनके व्यक्तित्व में समा चुकी थी‌। उनका बौद्धिक स्तर और घर की माली हालत भी कुछ ऐसी थी कि कोई छोटा, बड़ा या मंझोला सपना ही क्यों न हो, जन्म लेने से पहले ही दम तोडने लगता। माँ के आगे इस घर में ढीठ-सा कोई सपना ही जीवित रह पाने की ज़ुर्रत कर सकता था। 

रामकिशन जी को पैतृक सम्पत्ति के नाम पर एक कच्चा पक्का घर ही नसीब हुआ था . . . आर्थिक हालातों और बड़े परिवार की ज़िम्मेदारियों में उनके आँगन की कच्ची दीवार हर बार भविष्य की योजना में मुल्तवी हो जाती . . . और उसे पक्का कराने का ख़्याल साल दर साल खिसकता जाता। 

विनय शुरू से ही मेधावी और शांत रहा। घरेलू परिस्थितियों ने उसे कुछ जल्दी ही बड़ा भी कर दिया था। बचपन में भी वह संजीदा और शर्मीला बच्चा था। बचपन की कोई ख़ास शरारत या ख़ुराफ़ात तक उसकी स्मृति में नहीं थी। सुधा उससे ज़िद कर बताने को कहती तो बस एक क़िस्सा ही वह याद कर पाता कि जब वह आठ नौ साल का रहा होगा, मुहल्ले के एक सूटेड-बूटेड जीजाजी को सिगरेट पीता देख वह उनसे बहुत प्रभावित हुआ था। मुँह और नाक से निकलते हुए धुँए के छल्ले उसको आकर्षित करते। उसका भी मन किया कि पी कर देखें आख़िर कैसा लगता है। पर न तो उस समय उसके पास पैसे होते थे न हिम्मत, सो चूल्हे की खांडू की लकड़ी को जलाकर उसे सिगरेट मान के शौक़ पूरा कर लिया। यह शौक़ भी अम्माँ की नज़र से बच न पाया फिर तो जम कर डाँट पड़ी, बाबूजी से मार भी खायी और . . . खाँस खाँस के बुरा हाल हुआ सो अलग से। 

ज़रूरतें ऐसी थीं कि विनय अपनी पढ़ाई के साथ साथ ट्यूशन भी करने लगा था। बीए करते ही उसने नौकरी के लिए भी हाथ-पैर मारना शुरू कर दिया था . . . कुछ प्रतियोगी परीक्षाएँ तो वह अनुभव के तौर पर दे भी चुका था। 

अम्माँ रामदेई उसे दिन रात किताबों में डूबा देख कर कहती भी, “कितना पढ़ा चाही तू . . .? अब कछू काम धंधा देख बिटवा . . . आजी का बिटवा स्कूल में लग गवा, तोहार संगी ऊ . . . नरेसवा . . . दुकान पे बैठे लगा . . . तू पढि पढि के ऊबत नाहीं? मूड़ न पिराए लागी . . . दिन-राती बस किताब चाटत रहिन . . . न काहू से बोल बतिया न कच्छु कमाई . . . न धमाई।” रामदेई का रिकार्ड एक बार शुरू हो गया तो फिर जल्दी बंद होने का नाम नहीं लेता . . . बड़ी मासूमियत से वह मौलिक सवाल उठा देती, “पढ़ि पढ़ि के का करब?” 

विनय बिना जवाब दिए बाहर चला जाता, कुछ कहने से कोई लाभ भी तो नहीं है, अम्माँ नहीं समझ सकेंगी . . . न उसकी क्षमता को, न उसकी मेहनत को, न अब तक की सफलताओं को। उसके सपने अलग हैं और‌ घर का माहौल बिल्कुल अलग . . . अम्माँ का तो इन सबसे कोई सरोकार ही नहीं था। वह जब कभी ज़्यादा नाराज़ होतीं तो बस सीधे भद्रा उतार कर रख देती और तो और चपरासी तक से उसकी तुलना करने से नहीं चूकतीं। 

आज घर में ख़ास उत्साह का माहौल था . . . रामकिशन जी भी आज अपनी रोज़ की आदत से अलग, बरामदे से सीधे आँगन में कुर्सी खींच कर सबके बीच बैठ गये, प्रफुल्लित और अति प्रसन्न मुद्रा में। विनय की पढ़ाई के साथ ही ए.जी. ऑफ़िस में नौकरी लग गयी थी . . . रामदेई भी बहुत ख़ुश थीं। 

“चला, तू त हिल्लें लग गवा, हम हूँ निरचू भयिन।” 

वह ख़ुश होकर विनय की पसंद का आटे का हलवा बना रहीं थीं, आज ठाकुरजी को भी हलवे का विशेष भोग लग रहा था। 
विनय अभी पढ़ना चाहता था, नौकरी करने का उसका बिल्कुल भी मन नहीं था। प्रादेशिक सेवा के उच्च पदों का स्वप्न लिए वह पूरे मनोयोग से प्रयास करना चाहता था पर घर के हालात ऐसे थे कि इस छोटी सी सफलता के बाद मना कर पाने का साहस वो जुटा नहीं पाया था। जब भी वह कुछ कहने की कोशिश करता, उसके मुँह खोलने से पहले ही अम्माँ शुरू हो जातीं . . . “हाथ लगी नौकरी कौन जान देत है, बचुआ . . . कुछ सालन में बढ़ जाइयो . . . अरे का भरोसा कि अगली साल नाम आय ही जाय।” माँ सीधी सादी, अल्प बुद्धि की महिला ज़रूर थीं पर बच्चों के दिल ओ दिमाग़ को समझने में वह कभी ग़लती न करती . . . घर की बिगड़ती माली हालत में, विनय की नौकरी एक उजाला बन आस बिखेर रही थी जिसे आने वाले सुनहरे भविष्य की कल्पना में कोई भी ग~मवाने को तैयार नहीं दिख रहा था। विनय आशंकित हो उठा कि कहीं यह छोटी सी सफलता उसे उसके लक्ष्य से दूर न कर दे। विनय से छोटी बहन विनीता उसी की तरह शांत और गम्भीर थी। आज तो वह भी चहक रही थी, “भैया इस बार तो रक्षाबंधन पर नया सूट लूँगी।” 

उसकी बात को अनसुना करते हुए विनय पिता से बोला, “मैं अभी पढ़ना चाहता हूँ बाऊ जी।” किसी तरह हिम्मत जुटा कर, अस्फुट धीमे शब्दों में विनय के हलक़ से ये शब्द निकल ही पड़े। उत्साह के इस माहौल में मानों सबको साँप सूँघ गया हो। उसकी नौकरी से पूरे घर के अरमान जुड़े थे . . . पिता रामकिशन जी व्यावहारिक बुद्धि से काम लेने वाले व्यक्ति हैं। येन केन प्रकारेण, अपना काम निकालने में कुशल। घर में भी वह पिता कम अध्यापक ज़्यादा बने रहते, हर विद्यार्थी की लगाम अपने हाथ में रखने के आदी, पिता जी गम्भीरता में विशेष स्नेह के साथ बोले, “विनय तुम इस परिवार की आशाओं का आधार हो, यदि तुम नौकरी नहीं करना चाहते तो मत करो, हमारी ओर से कोई दवाब नहीं है फिर भी घर की स्थिति तुमसे छुपी नहीं है, तुम स्वयं विचार कर निर्णय लो।” 

पिताजी शिक्षक थे और शिक्षक की भाँति ही शिक्षा दे रहे थे . . . यद्यपि इस समय उनके प्रवचन विनय को नागवार लग रहे थे। 

विनय ख़ुद भी असमंजस में था, अम्माँ की बात ग़लत भी तो नहीं थी . . . हर साल की परीक्षा अपने आप में स्वतंत्र होती है . . . हर साल की अलहदा परिस्थितियाँ और स्वतंत्र परिणाम। उसने स्वयं देखा है कि कुछ मित्रों को, चयन के बाद अगले साल की सूची में उनका नाम तक नदारद था। इन परिस्थितियों में रिस्क ले पाने और पूरे परिवार का भविष्य दाँव पर लगाने की स्थिति उसे नहीं लग पा रही थी—कल का दिन किसने देखा है? बहरहाल, तय हुआ कि वह नौकरी करते हुए उच्च पदों के लिए तैयारी करता रहेगा। ग़रीबी से ऊपर उठने की कोशिश में लगे एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार की आशाओं को अपने कंधे पर सँभाले, विनय ने महालेखाकार कार्यालय में सहायक लेखाधिकारी पद पर ज्वाइन कर ही लिया। 

नौकरी लगते ही विवाह के प्रस्ताव आने लगे। रामदेई की तो सीधी सपाट सोच थी . . . ” बहुरिया आ जाय त तोहार देख रेख तनिक ढंग स हुई जाई। हम त गाँव मा रहिन तू त बंड बहेला है।” 

उसे अभी प्रादेशिक सेवा के लिए प्रयास करना है, पर अम्माँ तो बस विवाह की रट लगाए रहतीं। वह कहता भी, “मुझे अभी पढ़ना है अम्मा।” पर वे कहाँ चुप रहने वाली थीं, “तो पढ़त रह, बहुरिया किताब छिना लेई का?” 

ग्रामीण परिवेश में नौकरी का सीधा सम्बन्ध विवाह से जोड़ दिया जाता है। पिता जी हमेशा की तरह कुछ न कहकर भी अपनी बात घुमा फिरा कर मनवा ही लेते।

”अध्ययन में पत्नी सहायक होती है, विनय। उसका भाग्य भी जुड़ जाता है।” कुछ अटकते हुए वे कह गये, “और . . . तुम्हारी बहन भी तो बड़ी हो रही है, उसका भी तो सोचना है, तुम्हारे विवाह से कुछ सुविधा हो जायेगी।” 

फिर विवाह के बाद सफलता प्राप्त व्यक्तियों का पूरा पाठ सुनना पड़ता। इस सूची में पिताजी अपना नाम रखना नहीं भूलते . . . मन तो करता पूछ ले कि कौन सी परीक्षा दी थी आपने? कौन सी सफलता के झंडे गाड़ दिये? आधा दर्जन बच्चों की लाइन लगा दी है बस . . . और अम्माँ के संग तो सीखा पाठ भी आदमी भूल जाये . . . बड़ी-बड़ी बातें क्या वो इनसे। उसका अन्तर्मन विद्रोह कर बैठता पर संस्कार उसे हमेशा रोक लेते . . . माता पिता के लिए ऐसा सोचना भी पाप है। अम्माँ जागरूक नहीं हैं तो क्या हुआ उन्हें भी तो कभी माहौल नहीं मिला है, कमीवेशी जो भी हो, सबका पालन पोषण तो वही करती हैं, अपने लिए तो दवा तक नहीं मँगाती, हम बच्चों के लिए ही तो दिन रात खटतीं, उसे अपने माता-पिता दयनीय लगने लगते . . . अपने बेटे से ही तो आशा रखेंगे, उसका मन शांत होने लगा, वह चुप बना रहा। उसका मौन समस्या का तात्कालिक हल बन चुका था। आर्थिक प्रबंधन का यह अनजाना अध्याय परिस्थितियों वश विनय को स्वीकार करना ही पड़ा . . . सो शादी और नौकरी की गाड़ी एक साथ रेंगने लग पड़ी। 

नवविवाहिता सुधा भी इस गाड़ी के एक पहिए के रूप में साथ चल पड़ी। संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारियों के बीच सामंजस्य बिठाती, अपनी ख़्वाहिशों को अनजाने ही हाशिए पर धीरे-धीरे खिसकाती उन दोनोंं की साझा ज़िन्दगी में अभाव और संतोष स्थायी भाव से रहने लगे। 

विनय से छोटी बहन विनीता का विवाह तय हो गया . . . विनीता ने बीए ही तो किया था। पर जहाँ बहनों की लाइन लगी हो वहाँ कौन‌ किसकी सुने। सौभाग्य से घर वर भी अच्छा मिल रहा था। विनीता के पति राजीव राजस्व विभाग में बाबू थे। गाँव में अच्छा पक्का मकान और कुछ बीघा ज़मीन भी थी। कुल मिलाकर खाते पीते लोग थे। राजीव स्वभाव से मिलनसार और व्यवहार कुशल थे। दो साल की नौकरी में ही उन्होंने एक छोटा फ़्लैट कर लिया था . . . अम्माँ रामदेई अपने दामाद के फ़्लैट से उतनी प्रसन्न नहीं थी जितनी विनय के साधारण स्तर से हैरान . . . हमेशा की तरह उनके मौलिक सवाल थे . . . 
“ऊ त दुई साल मा ही मकान कर लिया, तू कहाँ उड़ात है तनखैया . . . ” आज तो सुधा को भी गृहस्थी के गुर सुनने पड़ रहे थे . . . मन तो किया अम्माँ को जवाब दे ही दे और हिसाब भी गिना दे पर घर का माहौल ही बिगड़ता। वह पैर पटकते हुए बाहर चला गया। सुधा चुपचाप सुनती रही . . . उसे ख़ूब पता था कि दो साल में अपनी तनख़्वाह से तो कोई घर लेने से रहा। यह सब कोई और ही रंग था जो सब पर चढ़ रहा था। 

छोटी विनीता जब भी घर आती, कुछ न कुछ उपहार ले आती। बचपन की शांत विनीता अब मुखर होने लगी। घर में भी अब वह मुख्य भूमिका में आ गयी थी . . . घर के मामलों में भी सब पहले उससे ही मशवरा करते। विनय को तो यह सब समझ नहीं आता पर सुधा उसकी दख़लंदाज़ी से मन ही मन कुढ़ती, “सब पैसे की ताक़त है . . . अब तो हर कोई उनके गुन गाने लगा। यहाँ तो फ़ालतू में ही खटते रहे हैं।” 

एक के बाद एक बहनों के विवाह ने उन्हें कभी मन का करने भी तो न दिया था, न ही कुछ बचत कर पाने की स्थिति ही बन सकी थी। परिवार में सबको समेटने, सहेजने में ही विनय और सुधा की युवावस्था के कुछ साल निकल गये थे। बहन के विवाह में हर बार उसे लोन लेना पड़ता। यहाँ तक कि कभी यार दोस्तों से उधार भी . . . एक से फ़ुरसत मिलती तो दूसरी बहन विवाह की देहरी पर खड़ी मिलती। कुल मिलाकर ज़िन्दगी की रस्सा-कशी चलती ही रही . . . बस सुधा और विनय की आपसी समझ ने इस डोर को मज़बूती से साधे रखा था। वे दोनोंं कड़की के दिनों में एक दूसरे के सबसे अच्छे साथी बन चुके थे—एक दूसरे के मन को अच्छी तरह समझ लेते। उनकी यह समझ दोनोंं के मन की आर्द्र भूमि पर अपने कोमल भावों के पदचिन्हों की अमिट छाप छोड़ती चल रही थी। आर्थिक अभाव के बीच भी विश्वास और तालमेल बना रहता। वैचारिक मतभेद होते पर दोनोंं एक दूसरे के लिए मज़बूत ढाल भी बने रहते। 

विनय का हृदय बहुत कचोटता जब वह सुकुमारी सुधी को मातृत्व की स्थिति में रिक्शे की प्रतीक्षा करते देखता। वह मायूस सा कहता भी . . . “सुधी तुमको अब तक तो कुछ भी सुख नहीं दे सका।”

“अरे आप ऐसा क्यों सोचते हैं, सब दिन एक से तो नहीं रहेंगे, हम लोगों के दिन भी बदलेंगे, आप अपनी नौकरी और पढ़ाई पर ध्यान दीजिए बस।” 

सुधा जल्दी कोई फ़रमाइश नहीं करती पर विनय को बहुत कोफ़्त होती . . . विशेषकर तब जब राजीव और विनीता अपनी फियेट लेकर आ जाते‌। उसने तय किया कि हर हाल में उसे स्कूटर तो अब लेना ही है . . . सरकारी लोन भी उसे मिल गया था और इस तरह उनके परिवार में नये सदस्य बेटी आरवी के आने से पहले आख़िर स्कूटर आ ही गया। 

सुधा निम्न मध्यवर्गीय परिवार की बेटी और बहू बनी रही। अंतर बस इतना रहा कि मायके की ज़िम्मेदारियाँ निबटीं तो ससुराल में बड़ी बहू बनकर आ गयी . . . सुधा की माँ की तो शुरू से ही ख़्वाहिश थी कि सुधी अब और अभाव न देखे, खाते-पीते परिवार में उसकी शादी हो जाये। माँ को लगता कि ज़िन्दगी के बाईस बसंत तो कतरब्योंत और विपन्नता में वैसे ही निकल गये, अब बियाह के बाद तो कुछ सुख मिले . . . किन्तु भाग्य की अपनी गति और परिणाम रहे। 

विनय की माँ ने सुधा को एक विवाह में देखा था . . . विवाह वाले घर में सबका हाथ बँटाती सुधा रामदेई की पारखी नज़र को तुरंत ही भा गयी थी। सुधा सुंदर थी, गेंहुआ रंग, बड़ी-बड़ी बोलती सी आँखें, छरहरा शरीर और लम्बी-सी दो चोटियाँ। उसकी सादगी और सौम्यता से हर कोई आकर्षित हो जाता‌। 

रामदेई ने सुधा के चाल-चलन की आनन-फानन में पड़ताल भी कर डाली, उन्हें तो सुधा इतना भा गयी थी कि बस इस मौक़े को बिना गँवाए विनय के लिए उन्होंने ख़ुद ही उसका हाथ माँग लिया था। 

पढ़ा लिखा, सरकारी नौकरी लगा लड़का . . . देखने में भी सुदर्शन, ख़ुद से चल कर प्रस्ताव आया है तो भला कौन मना करता। सुधा के मायके का स्तर भी कमोबेश विनय के परिवार जैसा ही था। रामदेई के इस प्रस्ताव से तो मानो सबको मन माँगी मुराद मिल गयी हो। सब ख़ुश थे जैसे सुधा के सोलह सोमवार के व्रत फलीभूत हो रहे हों . . . बस एक सुधा की माँ थीं जो बिल्कुल भी ख़ुश नहीं थीं। सुधा बड़ी बहू बन कर जा रही है, फिर चार बहनें हैं, भाई सबसे छोटा है, यह बात उनको खाये जा रही थी। मन में बार-बार कचोट उठती क्या उनकी बिटिया का जीवन सबकी ज़िम्मेदारी निभाने में ही बीत जायेगा‌। मायके में ही कौन सा सुख मिला है? अब ससुराल भी ऐसी ही . . . ऐसे ही जीवन कटेगा क्या? माँ की ममता अपने को समझा ही नहीं पाती, और . . . सुधा तो सीधी-सादी, सर झुकाए सबकी हाँ में हाँ करने वाली ही बनी रही। सच तो यह था कि सब इतना जल्दी-जल्दी हो रहा था कि वह कुछ सोच ही नहीं पायी। निर्णय हो चुका था . . . उससे कुछ पूछा ही नहीं गया तो क्या कहती? वैसे भी स्वतंत्र निर्णय लेना उसने अब तक सीखा ही कहाँ था। 

सुधा को अपनी अम्माँ की आँखों में करुणा के साथ-साथ अपने लिए दया दिखाई दे रही थी, यह भाव उसे ज़रूर विचलित करता . . .। घर में वह अम्माँ के सबसे क़रीब थी।

”अम्माँ, तुम बस चिंता मत करो . . . ” गले में हाथ डाल कर वह लड़ियाने लगी।

अम्माँ ने उसके सर पर हाथ फिराते हुए कहा, “हाँ बिटिया, हम तोहार भाग्य त न बदल पायी, जैसी परभू की मरज़ी। भगवान तोकों ख़ुश रक्खें,” साँस भरते हुए अम्माँ उसे आशीर्वाद दे रहीं थीं। अपने सारे पुण्य माँ सुधा पर न्यौछावर कर देना चाहती थीं। 

अम्माँ की उलझन विनय से मिलने के बाद कम होती गयी, विनय सभी को बहुत पसंद आ रहे थे . . . देवता समान स्वभाव, कोई माँग भी नहीं की। अम्माँ की चिंता का स्थान संतोष लेता गया। 

सीधी, सकुची सुधा विनय की दुलहन से ज़्यादा घर की बड़ी बहू बन गयी। पात्र बदल‌ गये, सुधा की ज़िन्दगी का ढर्रा और तंग हो गया। जिसे अपनी सौम्यता और समझ से वह पटरी पर लाने की कोशिश में लगी रहती। 

विनय को सरकारी क्वार्टर मिल गया था। पिछले छह सालों के वैवाहिक जीवन में विनय और सुधा तीन बहनों के विवाह कर चुके थे। सुधा घर में ही रहती, मनोरंजन का कोई साधन भी नहीं था। इस बार दोनोंं ने टेलीविजन लेने का मन बना लिया। प्रसन्न मन से दोनोंं टेलीविजन का मॉडल चुन कर घर आ गये थे। अगले महीने तनख़्वाह मिलते ही टेलीविजन ले लेंगे। बहुत प्रसन्न थे दोनोंं . . . सुधा सोचती अब उसे रामायण देखने के लिए मन नहीं मारना होगा, उसके अपने घर में टीवी होगा। 

बाबूजी के आकस्मिक आगमन और छुटकी के विवाह तय होने की ख़बर से दोनोंं सकते में आ गए। इस ख़बर नें उनका सारा अंकगणित ही बदल दिया था, बाबूजी बहुत उम्मीद लेकर ख़ुद चल कर आये थे . . . 

इस बार वह विनय से ज़्यादा वह सुधा से मुख़ातिब थे, “अब तुम दोनोंं को ही सब सँभालना है, मुझमें अब शक्ति नहीं है . . .।” बाबूजी इस बार बहुत शिथिल और वृद्ध लग भी रहे थे। 

“आप चिंता न करें, सब हो जायेगा बाबूजी,” सुधा निरुत्साहित सी बोली। 

बाबूजी झुके कंधों के साथ कुछ निश्चिंतता लेकर गाँव जा रहे थे . . .। 

उनके जाते ही विनय ने पूछा, “अब?” 

सुधा की आँखों की चमक तिरोहित हो चुकी थी। विनय को वह निस्तेज लगने लगी। टीवी कहाँ लगाएँगे की रट लगाने वाली चहकती सुधा अब शांत थी, बिल्कुल शांत। 

“अब क्या, जैसे सब निबटाये, ये भी . . .” उसाँस भरती हुई वह अजीब सी मुस्कान लिए जूठे बर्तन समेटने लगी। 

टेलीविजन के लिए जमा बचत डाल कर भी छुटकी के विवाह में उसे काफ़ी उधार लेना पड़ गया था। चलो बहनों से तो मुक्ति मिली, सबके विवाह निपटे, अब वह दोनोंं अपनी गृहस्थी पर ध्यान दे सकेंगे, शायद‌ पूरी शादी में दोनोंं यही सोच रहे‌ थे। विपिन तो अभी छोटा है, नवीं की परीक्षा दी थी उसने। वैसे भी वह लड़का है, बाऊ जी देख ही लेंगे। 

आर्यन के जन्म के बाद से ही विनय का मन‌ चार पहिए की गाड़ी लेने को कर रहा था . . . बस छुटकी की शादी का कुछ क़र्ज़ चुकाना अभी भी बाक़ी था . . . सच तो यह है दोनोंं पहले ऋण मुक्त होना चाहते थे, बस जब भी माँ बाऊ जी यहाँ आते तो सपरिवार कहीं जाने पर अपने मित्र करुणेश से उन्हें गाड़ी माँगनी पड़ती, यह उन्हें खलता भी . . . दो बच्चों के बाद वैसे भी स्कूटर उन्हें असुविधाजनक ही लगने लगा था‌। 

करुणेश, विनय से तीन साल जूनियर था। उच्च मध्यमवर्गीय परिवार की सबसे छोटी संतान। अच्छे स्वभाव का करुणेश, उसी के कार्यालय में ऑडिट अधिकारी था। कम्प्यूटर का अच्छा जानकार होने से बड़े साहब लोगों में भी उसकी पूछ बनी रहती। ऑडिट में उसे अक़्सर बाहर जाना पड़ता। दौरे से वापस लौटने समय करुणेश के दोनोंं हाथ उपहारों से भरे होते। 
करुणेश का एक साल पहले ही विवाह हुआ था। एयर कंडीशंड मारुति कार दुलहन के साथ आयी थी . . . घर में भी सुख सुविधा की हर चीज़ उन्हें विवाह में मिली थी। करुणेश और उसकी पत्नी रुचि दोनोंं ही बहुत मिलनसार स्वभाव के थे . . . सुधा और विनय का तो दोनोंं ही बहुत सम्मान करते। करुणेश जब भी बाहर जाता, रुचि सुधा के साथ ही ज़्यादा समय बिताती। 

छोटे भाई विपिन का हाईस्कूल का परिणाम कुछ ख़ास अच्छा नहीं रहा। सीबीएसई बोर्ड में पैंसठ प्रतिशत। यह परिणाम सभी को हतोत्साहित कर रहा था . . . पिता रामकिशन ने कम नम्बरों का सारा ठीकरा अपनी पत्नी के सर फोड़ते हुए उलाहना दिया, “विनय पर तो हम ध्यान दे पाते थे। विनय की माँ, पता नहीं तुम क्या करती रहती हो दिन भर, अब तो घर में न कुछ काम रह गया है न लोग बचे हैं, तुम इतना तो कर सकती थी कि विपिन पर अनुशासन बनाए रखो . . .। इतने कम नम्बरों से अब कौन पूछेगा, क्या करेगा?” 

रामदेई ने ज़ोर से चके पर बेलन का प्रहार कर वैसा ही उलट जवाब दिया . . . “सब लड़़कन का सगर गुन तोहार कारन और जितना गड़बड़ी आइन ऊ सब त हमार ख़ातिर . . . हम त सबन का बिगारत ही रहिन . . . ” कहते कहते वह रोने लगी।

रामदेई से कोई एक कहे‌ तो पहले चार सुने और चुप भी कराये। आँसू उनके अंतिम शस्त्र रहते‌ जिसके सामने सब धराशाई। 
राम किशन जी हक्के-बक्के रह गये . . . “इतना तो कुछ कहा भी नहीं हमने कि आप रोने लगें . . . आपकी तपस्या को कभी नकारा है हमने? अब हम भी क्या करें, दिन भर के थके आये और यह परिणाम। आज ही विनय को फ़ोन करते हैं, यहाँ तो इसकी सोहबत बिगड़ रही है। अब भाई की ज़िम्मेदारी है कि इसके भविष्य पर ध्यान दे।”

अब सारा दारोमदार चौपहिया वाहन का स्वप्न देख रहे विनय पर आ पड़ा। 

पिता रामकिशन ने विपिन को सँभालने की ज़िम्मेदारी विनय के मत्थे डाल दी थी। 

विनय ने फ़ोन सुनकर कुछ कहने की कोशिश तो की पर कुछ तो उसके संस्कार और कुछ घर के हालात। हमेशा की तरह मज़बूती से मना कर पाने का साहस वह जुटा नहीं पाया . . . सुधा चुप थी। 

फ़ोन रखकर वह चिड़चिड़ा रहा था कि अब आरवी, आर्यन को देखें या विपिन को। इस सरकारी घर में ढाई तो कमरे हैं, इंटर वहीं से कर लेता। 

“अब पीछे बड़बड़ाने से क्या होगा, कहना था तो तभी कहते, विनीता दीदी के यहाँ क्यों नहीं भेज देते? ऐसे तो सब उनके ही गुन गाते रहते हैं, अब रखें न छोटे भाई को, सारी ज़िम्मेदारी हमीं लोगों की है क्या?” सुधा बड़बड़ाती जा रही थी। 

“अब इसमें विनीता कहाँ से आ गयी?” विनय हताश सा बोला। हालात उसके क़ाबू से बाहर जाते लग रहे थे। वह तो बस बड़ा लड़का है, और बड़े लड़के को तो ज़िन्दगी भर क़र्ज़ ही उतारना होता है, उसके माथे पर पसीना आ गया, गला सूखने लगा। 

“एक गिलास पानी पिला दो, प्लीज” 

सुधा दौड़ कर पानी ले आई, विनय की हालत देख कर घबरा गयी। झट पल्लू से विनय का माथा पोंछने लगी। विनय के माथे को सहलाती उसके पल्लू की गाँठ उसे भी कुछ स्मरण करा रही थी। उसे अपना संकल्प याद आ गया, उसने ख़ुद को सँभाल लिया था। अपनी साँसों को वह संयत कर चुकी थी। विनय को तसल्ली देते हुए बोली, “अरे सब निबट जायेगा . . . हम लोग मिल-जुल कर विपिन को भी सँभाल लेंगे, बच्चे तो अभी छोटे ही हैं . . . बस आप चिंता न करें, इतना परेशान मत हों . . . तबियत ख़राब हो जायेगी।“

सुधा के शब्द एक बार फिर विनय को राहत दे रहे थे। कुछ क्षणो को वह एकदम असहाय महसूस कर रहा था। सुधा उसके लिए बहुत बड़ा सम्बल थी, सुधा ने अपने पल्लू को कस कर पकड़ लिया। 

कार लेने का विचार फिर मुल्तवी कर दिया गया था। इस बार अनिश्चित समय के लिए। 

“विपिन का भविष्य बन जाएगा तो कार भी आ जाएगी . . .” 

सुधा समझा रही थी, शायद अपने आप को भी। सपनों की आस उम्मीद की लौ को बुझने नहीं देती। 

आरवी और आर्यन का हाथ थामे वे दोनों विपिन को साथ ले कर पार्क की ओर जा रहे थे। 

3 टिप्पणियाँ

  • बेहतरीन कहानी लेखन के लिए ढेरों बधाई

  • 1 Jun, 2022 08:09 PM

    सुनीता दीदी, आपकी लेखनी ने तो मेरे मम्मी-पापा जीवनी ही लिख डाली । मर्मस्पर्शी रचना है ।

  • पहले मध्यमवर्गीय परिवार के बड़े बेटे -बहू की कमोबेश यही कशमकश की कहानी हुआ करती थी लेकिन उसमे भी पति पत्नी का दाम्पत्य जीवन खुशहाल रहता था संतुष्टि का भाव था किंतु जब से समाज मे एक या दो बच्चों का चलन बढा है तब से ये कशमकश अलगाव के रूप मे परिवर्तित सा होता लगता है , लेखिका को बहुत बहुत साधुवाद अत्यंत सहजता से अनुभूत अभिव्यक्ति को इस पटल पर व्यक्त करके हमें आनंदित किया ,

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