सत्रहवीं अठारहवीं शताब्दी के बणजारे

15-11-2025

सत्रहवीं अठारहवीं शताब्दी के बणजारे

अरविंद ‘कुमारसंभव’ (अंक: 288, नवम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

 सतरहवीं अठारहवीं सदी के बणजारों पर रोमांचक जानकारी

 

भारतीय या यूँ कहें सम्पूर्ण मध्य पश्चिमी दक्षिणी एशिया भू भाग की मध्यकालीन व्यापार प्रणाली में बणजारों का उल्लेख किये बग़ैर इसे नहीं समझा जा सकता है। यह वह समय था जब आवागमन के साधन के तौर पर केवल ऊँट, घोड़े, खच्चर, गदहे तथा बैलगाड़ी ही थे और रास्ते विकट होते थे। साथ ही रास्तों में चोर डाकुओं का भी डर रहता था। इसी दौरान में उत्तरी पश्चिमी राजस्थान के मरुस्थल और उत्तरी पंजाब की मंडियों से पेशावर, मुल्तान, ईरान, अरब, काशगर, यारकन्द, बगदाद और यहाँ तक कि रोम तक की व्यापारिक मंडियों तक व्यापारियों के क़ाफ़िले चलते थे। बगदाद और काशगर इनके प्रमुख मिलन केंद्र होते थे। ये व्यापारी बणजारे कहलाते थे और समूहों में परिवार सहित चलते थे। ये अपना सामान ऊँटों पर, गधों पर और भेड़-बकरियों पर लादे रहते थे और शिकारी कुत्ते साथ में इनके चलते थे। इनके सामान में मुख्यतः नमक, बाजरा, जड़ी बूटियाँ, शहद, कपास, ऊन आदि होता था। लौटते समय दूर की मंडियों से ये गेहूँ, चावल, कपड़ा, खजूर, सूखे मेवा, हींग, लोहा, शाल, सोना चाँदी आदि लाते थे और उन्हें स्थानीय मंडियों में छोटे व्यापारियों को बेचते थे। इन बणजारों ने अपने व्यापारिक क़ाफ़िले की यात्रा के मध्य पड़ने वाले पड़ावों पर कुएँ, बावड़ी, धर्मशाला बनवा रखी थीं जो स्थानीय आबादी के भी उपयोग में आती थीं। अभी भी शेख़ावाटी, मारवाड़ से लेकर सिंध तक बणजारों की बनवायी हुई ये सब निशानियाँ मिल जायेंगी। स्थानीय भाषा में बणजारों को बिनजार भी बोलते थे। ये अपनी भेड़ बकरियाँ फ़सल कटने के बाद ख़ाली पड़े खेतों में बैठाते थे ताकि उनकी लीद वहाँ उपजाऊ खाद बन जाये। इसके बदले में वो किसानों से अनाज इत्यादि ले लेते थे। बणजारों का क़ाफ़िला सशस्त्र होता था ताकि रास्ते में लूटमार का भय नहीं रहे। ये रास्ते में पड़ने वाले वनों में शिकार भी कर लेते थे। 

रात्रि को पड़ाव पर रुकने के बाद इन बणजारों की औरतें खाना पकाती थीं और फिर सब लोग गीत और नृत्य में मशग़ूल हो जाते थे। आज उत्तरी और पश्चिमी भारत के लोक गीत इन्हीं बणजारों संस्कृति से निकले हैं। ढोला मारू, शीरीं फरहाद, सोहनी महिवाल, लैला मजनूँँ और राजस्थानी मांढ गीत बणजारा गीत ही हैं। इनमें अरबी संगीत का भी पुट मिला हुआ है जो ये बणजारे लाये थे। इतिहास में और लोकोक्तियों में लख्खी बणजारा बहुत मशहूर हुआ जिसके पास कहते हैं एक लाख ऊँटों का कारवां था जो यूनान, तुर्की तक और बलूचिस्तान, काबुल के साथ साथ बस्तर, दक्खन तक जाते आते थे। इसी लख्खी बणजारे पर मारवाड़, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ और पंजाब में बहुत से लोकगीत गाये जाते हैं। इन बणजारों के क़ाफ़िलों को अपने ठिकाने पर लौटने में साल साल लग जाते थे। जन्म, विवाह, मौत आदि मानवीय क्रियायें यात्रा के दौरान ही हो जाती थीं। शेख़ चिल्ली की कहानियाँ, शेख़ सादी की कहानियाँ, अली बाबा चालीस चोर, बगदाद का चोर, लैला मजनूँँ, ढ़ोला मारू आदि चरित्र इन बणजारों के रात्रि कैम्पों की क़िस्सा परंपरा से ही पैदा हुए हैं। 

पाकिस्तान की मशहूर गायिका रेशमा बणजारन बीकानेर के बणजारा क़ाफ़िले में ही पैदा हुई थीं। यूरोप की हिप्पी संस्कृति भारतीय बणजारों से ही प्रेरित थी। 

बणजारों का एक और प्रसिद्ध रूट ट्रांस हिमालय रूट था जो सिल्क रूट कहलाता था जो मंगोलिया, चीन, तिब्बत, कश्मीर होते हुए अरबिस्तान को पार करके भूमध्यसागर तक जाता था। इस पर अधिकतर मंगोल चीनी बणजारे चला करते थे। इनका सामान खच्चर, भेड़ और याक पर लदा रहता था। 

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