समकालीन समाजशास्त्र की कथात्मक संवेदना: स्टेपल्ड पर्चियाँ

01-04-2022

समकालीन समाजशास्त्र की कथात्मक संवेदना: स्टेपल्ड पर्चियाँ

प्रो. बी.एल. आच्छा (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

पुस्तक का नाम: स्टेपल्ड पर्चियाँ
लेखिका: प्रगति गुप्ता
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
प्रकाशन वर्ष: 2021
मूल्य: ₹220

'स्टेपल्ड पर्चियाँ' प्रगति गुप्ता की ग्यारह कहानियों का संग्रह है। ये कहानियाँ विमर्शों के प्रवाह से कथा-बुनावट में नहीं आतीं। बल्कि आदिम पीड़ाओं से लेकर उत्तर-आधुनिक जीवन के बदलते समाज-मनोविज्ञान को बुनती नज़र आती हैं। यों इनमें बदलते समाज की भीतरी तहों को स्कैन करने का कौशल भी है और अनुभूतिपरक व्यंजना भी। पर ये कहानियाँ अमूर्त संवेदन को अपने कथा-पाठ में इस तरह गूँथती है कि सारा परिदृश्य उसी संवेदन से पाठक को सहयात्री बना लेता है। इनमें नारी के दुखार्त मन की समन्दरी लहरों-सी हूकभरी छटपटाहट भी है। बदलते मध्यमवर्गीय जीवन में प्रेम की ठंडे लोहे जैसी ठहरी उदासीनता भी है। मिथकीय संदर्भों से व्यंजना के कालमान को लंबाती हुई वर्तमानता भी है। कॅरियर-चिन्ताओं में भावों के क्रेडिट कार्ड के गुम होते जाने का दाम्पत्य-ताप भी है। छिन्नमस्ता होती कन्याओं के भ्रूण की बिलबिलाती अनाम भाषा भी है, तो उत्तर आधुनिक जीवन में युवतियों की स्वच्छंद लीला की त्रासदी भी। कई कई स्वर हैं, जो वर्गीय-विमर्शीय लपेटे से निकलकर ज़िन्दगी के गद्य को कहती हैं और कविता के-से दर्द में महसूस करवाती हैं। 

ये कहानियाँ बदलते सामाजिक जीवन की परतों को रचती जाती हैं। इस बुनावट में परिदृश्य मात्र नहीं है। बल्कि बदलते जीवन के सिकुड़ते-बिगड़ते व्यापार हैं, जो उत्तर-आधुनिकता के व्यक्ति, समाज, परिवारों की टूटन तक ही नहीं जाते; बल्कि नारी-देह से लेकर सूखती हुई प्रेमानुभूतियों तक ले जाते हैं। नये एकल परिवारों में माता-पिता का ठहरा-सा विस्थापन, पति-पत्नी के दाम्पत्य में कॅरियर का अर्थ-मनोविज्ञान, अभिव्यक्ति और ज़िन्दगी जीने की आत्म-स्वतंत्रता के बीच संतानों की दायित्वविहीन स्वच्छंद-विलास की मानसिकता, स्त्रैण चाहतों की शारीरिक संरचना, आत्महत्या तक आते सैक्स-परिवर्तन, बच्चों-वच्चों के आनुवांशिक मायाजाल से मुक्त स्वैराचार अपने समय की स्पटेल्ड पर्चियों को खुले कथा-पाठ में रूपान्तरित करते जाते परिदृश्य हैं। और ये कथा-पाठ पारंपरिक जीवन शैली के कर्मकांडों से दूर माता-पिता के वात्सल्य और वृद्ध सेवा को छिटकाते चले जाते हैं। सहृदय चिकित्सकों पर प्रहार करती संवेदनहीन भीड़, दांपत्य जीवन में पजेसिव होती मनोवृत्तियों से पुरुष-मन में बिखराब, सारे खुलेपन में बन्द होता और बन्द दाम्पत्य में खुले सपनों की जैविकता, नारी-देह के लिए लपकते दाँतों से दहकते भय जैसी अनेक परतें इन कहानियों में जितनी स्टेपल्ड हैं, वे कथापाठ के साथ विज्युअल होती चली जाती हैं। यों पाठक इनके डिडक्टिव संदेशों से रूबरू होता चला जाता है। पर कुछ ऐसे गर्भीय दबावों की अनुभूतियाँ भी हैं, जो सारपरक अनुभूति में लेखिका की छटपटाहट का मर्म-वाक्य बन जाती हैं। इनमें लेखिका इस सूत्र वाक्य से इंडक्टिव ज़रूर हो जाती है। पर यह भी कसमसाती ज़िन्दगी का समाज-मनोविज्ञान है, जो पाठक को हॉन्ट करता है। 

'माँ जान गई हूँ' और ’गलत कौन' जैसी कहानियों में गाँव और झुग्गी के बेहद कमज़ोर पात्र भी हैं, जिनमें जिजीविषा और संतान सुरक्षा के मूल्य चिपके रहे हैं। इनके कन्ट्रास्ट में अन्य कहानियों के पात्रों और कथावृत्तों पर नज़र जाती है, जो सभी संपन्न वर्ग के हैं। सभ्यता के चमकीले पार्श्वों में जीने वाले। सभी स्वच्छन्द हैं, अपने व्यवहारों-मनोरागों में जीने वाले। मगर रिश्तों का फेविकोल प्रेम विवाह की रोमानियत के बावजूद कितना उखड़ता चला जाता है। यह टूटते-बिखरते सामाजिक मनोविज्ञान की परतें हैं, जो स्टेपल्ड पर्चियों की तरह जीवन के कँटीले अनुभवों की परतों के दबावों में जीती है। इन्हीं से विद्रोह करके इनकी चिन्दी-चिन्दी उड़ाकर जीना चाहती हैं। प्रेम की यह रोमांटिक सान्द्रता जैसे ही पारिवारिक दायित्वों से टकराती है, तो दांपत्य के अनचाहे जोड़ मुक्त होने की आकाशी उड़ान के लिए शोर मचाते हैं। प्रेमचन्द के ज़माने के संयुक्त बाड़ों के परिवार की बात छोड़िए, अब तो एकल परिवारों में भी माता-पिता को धकेलते हुए एक मूल्यविहीन आज़ादी को ही जीवन का प्रतिमान बना लेते हैं। पति-पत्नी की संधि उसके विच्छेद के उजाड़ में तब्दील हो जाती है। संतानों का माता-पिता के ममत्व-पाश से कतराकर स्वच्छंद लीला-भूमि में ’अपनी-अपनी चाहतो' में जीना उत्तर आधुनिता की दृश्य भूमि बना जाता है। 

इन कहानियों की बुनावट में पौराणिक मिथकों और आधुनिक वास्तविकताओं का ऐसा मेल हुआ है कि ये दृश्यबंध हमारी सांस्कृतिकी को प्रश्नांकित करते हुए आज तक आते हैं। 'अदृश्य आवाज़ों का विसर्जन' कहानी फेन्टेसी की बुनावट में उन कन्या-भ्रूणों की गर्भाशय हत्या तक जाती है, जहाँ चीरफाड़ के औजारों की अनसुनी ध्वनियाँ है। निर्मम हत्याओं के ये संवेदनहीन दृश्य समन्दर की लहरों की तरह चट्टानों पर छींटे मारते नज़र आते हैं। नाटक के छोटे-छोटे दृश्यों की तरह इन हत्याओं की अंतहीन पटकथा को विज्युअल बनाती यह कथा, उस कन्या तक चली जाती है; जहाँ कृष्ण को बचाने के लिए कन्या का विकल्प खोजा गया था। हमारी सामाजिकी की कठोर चट्टानों पर शोर मचाती माताओं के ये रुदन-पाठ अंततः एक अंतर्नाद के करुण-पाठ में रूपांतरित होते जाते हैं। चट्टान की कठोरता और लहरों का तरल रुदन एक सादृश्य व्यंजना में अनथक हूक मचाता है। 

'गुम होते क्रेडिट कार्ड' की नायिका वैदेही है, जो पात्र के नाम के सचेत चयन के कारण रामकथा को समकाल की उजड़ी हुई अर्थ और भाव-संपदा तक ले आती है। प्रेम विवाह की रोमांटिक चाहत वाला डॉक्टर युगल जब पारिवारिक दायित्वों से टकराता है, तो पत्नी ही नौकरी छोड़कर सास-ससुर और बच्चों की पालनाओं संचित धन को पूरा कर देती है। पति की मृत्यु से तो क्रेडिट-कार्ड भी बेरंग हो जाता है और भावनाओं का कार्ड भी कसमसाता-सा। 

आधुनिकता और स्वच्छंदता की पृष्ठभूमि में 'खिलवाड़' कहानी उन मूल्यों को प्रश्नांकित करती है, जो परिवार ही नहीं स्वयं के जीवन को भी साँसों के अंतिम क्षण तक पहुँचा देते हैं। स्वच्छन्द युवतियाँ इस मुहावरे को ज़िन्दगी का चरम प्रतिमान बना लेती है, “मेरी भी अपनी ज़िन्दगी है। मुझे अपनी तरह जीने दें . . . ये समय वापस नहीं आएगा माँ!” नशीली पार्टियों में ज़िन्दगी की सार्थकता को मापनेवाली में युवा-मनमानियाँ कितना बेलगाम बना देती हैं। लेखिका ने मृत युवती पाँखुड़ी से उपजी वेदना को जितना गहराई से बुना है, उतना ही इन अपमूल्यों को प्रश्नांकित भी किया है। फ़्लैश-बैक के कारण घटनाचक्र के मोड़ नाटकीय और विज्युअल होने के साथ मातृ-संवेदन से छुअन भरे बन गये हैं। 

'अनुत्तरित प्रश्न’, स्त्रैण प्रकृति की चाहतों वाले युवा की कहानी है, जो प्रेमविवाह और संतानयुक्तता के बावजूद सेक्सचेंज से स्त्रीत्व को ही जीना चाहता है। यह आकांक्षा उसे आत्महत्या की मानसिकता से निकलकर तलाक़ तक ले जाती है। हार्मोन्स की शारीरिक संरचना से जुड़ी इस कहानी सभी पात्र निर्दोष हैं, पर सारे पात्र टूटन और बेचैनियों को जीने के लिए विवश। 

'तमाचा' इस उत्तर-आधुनिक स्वच्छंदता में अँग्रेज़ी अपशब्दों का शोर मचाता चमकीली अट्टालिकाओं का दाम्पत्य जीवन है। सारे सुखवाद के बावजूद एक अनजाना स्ट्रेस जो अंकित और भूमि के प्रेम विवाह के रोमान को अपनी अपनी कुंठाओं और अहंकार की गलीच शब्दावली में नशे और पारिवारिक टूटन में बदल देता है। 'सोलह दिनों का सफर' इस प्रेम विवाह की रोमानी ज़मीन के उलट इक्यावन साल की पारम्परिक धुरी पर रची कहानी है, पर पठार सा सूखापन इन्दु और शिशिर के बीच पसरा हुआ है। इन्दु की मृत्यु के परिदृश्य में लेखिका ने पति, बेटे और बेटी के मर्म स्थलों या सूखे व्यवहारों के कन्ट्रास्ट को बहुत बारीक़ी से विन्यस्त किया है। 

'गलत कौन' कहानी में सहृदय डॉक्टरों के साथ भीड़ का अनाचार सवालिया बना है। मनोहर की गँवई ज़िन्दगी और तार-तार पारिवारिक अवस्था में डॉक्टर नरेन का सहयोग बेमिसाल है, पर उसी के बुलावे पर मनोहर की चिकित्सा के लिए आये हृदयरोग विशेषज्ञ के साथ भीड़ का दुर्व्यवहार गँवई पात्र मनोहर को मथ देता है। मनोहर की अंतिम साँसों से इन डॉक्टरों को बचाने के बोल फूटते हैं, पर भगवान माने जानेवाले डॉक्टर के साथ यह अनाचार कोफ़्त पैदा करता है। 'काश' कहानी पारंपरिक विवाह और रोमानी प्रेम विवाह की ज़मीन से हटकर विधवा-विधुर के मित्र-भाव के तीसरे कोण को खोलने वाली कहानी है। इस मित्र-भाव में भी नारी को नियंत्रित करती पुरुषों की पजेसिव मनोवृत्ति उसी तरह दूरी ला देती है, जो इस कथा में पारिवारिक दांपत्य में पसरी हुई है। इन्हीं दृश्यबंधों में प्रेम और विश्वास की लिपि एक अलग ही कोण रचती है। पल्लवी और मृगया के साथ पुरुष पात्र आदि की दो नावों की सवारी। मृगया और उसके पति देव का उष्णता विहीन प्रेम, मित्र बने आदि की पजेसिवनेस और अंततः पल्लवी-मृगया के साथ प्रेम के साठोत्तरी अध्याय का छलावा। पर इस कथा की ख़ूबसूरती इस बात में है कि ये पाठ मृगया की अपनी बेटी अंकिता को आगाह करते हैं, जो नौकरी के लिए महानगर जा रही है। प्रेम का शून्य और शून्य से उपजे सवालों से नयी फ़सल को सचेत करता मातृत्व बहुत उलझे पथ को रच जाता है। 

'बी-प्रेक्टिकल' कहानी हमारे सम‌काल में पारिवारिक रिश्तों के संवेदनात्मक भावों के सूखते चले जाने का कार्डियोग्राम बन जाती है। महानगरों के नौकरीपेशा जीवन में क़स्बाई माता-पिता के जीवन के अंतिम संस्कार भी सूखती हुई भावुकता में प्रेक्ट्रिकल होने का क्षिप्रता दिखाते हैं। 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' सारे खुलेपन में बंद से दाम्पत्य और बंद अनुराग में खुले सपनों की सी जैविकता का एहसास करवाती कहानी है। दांपत्य के पैंतीस सालों में विभा का गुम हुआ चेहरा, परिवार की प्राथमिकताएँ और एक अनचाहा सा दांपत्य-तप इन एहसासों की स्टेपल्ड पर्चियाँ बनता जाता है। पति के सामने व्यक्त इच्छाएँ डिवोर्स तक ले जाती हैं। और कॉलेज में स्टाफ़-मित्र अनुराग के साथ वह इस तरह संवादी है कि वह विभा के अंदर की विभा को पहचानता है। यही कंट्रास्ट स्टेपल्ड एहसासों और अरविन्द की ख़ामोश अभिव्यक्तियों को आमने-सामने कर देता है। एक बन्द आकाश, दूसरा खुला आकाश। और जड़ दांपत्य इस खुले आकाश में इन स्टेपल्ड एहसासों को चिन्दी-चिन्दी उड़ा देना चाहता है। 'माँ मैं जान गई हूँ’,  कहानी का यथार्थ उन भयावह एहसासों का है जो नारी-देह के लिए पशुता बन जाते हैं। सरोकार झुग्गी जीवन के हैं, जहाँ स्वच्छन्द जीवन की युवा आकांक्षा इस जानवर से आतंकित है। 

इन कहानियों में कथातत्व भरापूरा है। उसके मोड़ की यति-गति भी पाठक को बाँधे रखती हैं। परिदृश्यों की बुनावट, नाटकीय दृश्यों के संयोजन से कई कई पाठों को सँजोती हुई विमर्श तक ले जाती हैं। इससे यथार्थ के कई विषयगत अक़्स, केन्द्रीय संवेदन को पुष्ट करते हैं। कभी फेन्टेसी तो कभी फ़्लैश बैक, दो परिदृश्यों का कन्ट्रास्ट, तो कभी आहत भावनाओं की स्टेपल्ड पर्चियों का खुलते चले जाना इन कहानियों के स्थापत्य को सन्देशपरक बनाता है। धर्मवीर भारती के 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' के माणिक मुल्ला की कहानियों में प्रेम के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र से अलग इन कहानियों में समकाल की संपन्नता के अर्थशास्त्र और स्वच्छन्द समाजशास्त्र की परिणति को बुना गया है। इनमें वृद्धावस्था के पारिवारिक अवशेष आहत हैं, पर रोमान के मनोभाव भी दाम्पत्य यात्रा में कुंठित। एक सिलसिला सा है—संयुक्त परिवार की टूटन, एकल परिवार की टूटन, पति-पत्नी के बीच की टूटन। प्रेम की रागात्मक मनोभूमि और दांपत्य के सहचार-मूल्य इन सभी कहानियों में औपन्यासिक धरातल की संभावनाएँ व्यक्त करते हैं। इसीलिए ये कहानियाँ क्षण की गहन अनुभूतियों के बजाय लंबे कालमान को समेटे हुए हैं। 

प्रगति गुप्ता एक लेखिका के रूप में कहानियों के कथापक्ष और संवादी भूमिकाओं में लेखकीय प्रवेश नहीं करती। पर यथार्थ की कठोर चट्टानों से टकराती लहरों का शोर उन्हें उस काव्यात्मक संवेदन वाली मनोभूमि पर इस तरह ला खड़ा करता है कि वे पंक्तियाँ कहानी का मर्म बन जाती हैं। 'स्टेपल पर्चियाँ' कहानी की मनोभूमि को व्यक्त करती ये पंक्तियाँ , “मशीनों में अद्‌भुत क्षमता होती है। वो बड़ी ख़ामोशी से न कहकर मुकर जाती हैं और मनुष्य के पास शब्द होते हुए भी, उनकी ओढ़ी हुई ख़ामोशी मुकरने के मौक़े नहीं देती।” यही है इन्सानी हक़ीक़त। पर शिल्प का विन्यास इन कहानियों में इन्हीं विवशताओं को विज्युअल और संवेदनीयता के काव्यात्मक स्पर्श से प्रेषणीय बना देता है। 

बी.एल. आच्छा
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पेरंबूर
चेन्नई (तमिलनाडु) 
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