समकालीन हिन्दी कविता-नवगीत एवं आधुनिकता बोध

01-03-2019

समकालीन हिन्दी कविता-नवगीत एवं आधुनिकता बोध

डॉ. छोटे लाल गुप्ता

नवगीत आम आदमी की कविता है, इसमें पाश्चात्य सिद्धांतों और विचारधाराओं का अनुकरण नहीं है। उसकी विकृतियों और विसंगतियों का भयावह चित्र अवश्य प्रस्तुत किया गया है इसलिए ‘नवगीत’ का मूलस्वर आधुनिकतावादी है, जिससे उसका अस्तित्व क़ायम है। नवगीत के कथ्य और शिल्प दोनों में आधुनिक भावबोध और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है इसलिए यह रचना प्रवृत्ति आधुनिकता को प्रस्तुत करने में सफल हो सकी है।

 

आधुनिकता स्वतंत्रता के बाद के नवलेखन से उपजी हुई नई दृष्टि है जो आज के लेखन को गहराई से छूती है और सर्जनात्मक साहित्य को पूर्णतः आत्मसात् कर उसे गतिशील बनाने का प्रयत्न करती है। स्वतन्त्रता के बाद का साहित्य सचमुच आधुनिकता बोध और सर्जनात्मक क्षमताओं की समानांतरता का साहित्य कहा जा सकता है। आधुनिक का उपयोग प्रायः अपने को प्रगतिशील दिखाने के नाम पर फ़ैशन के रूप में प्रचलन में आया। फलस्वरूप आधुनिकता रचना के विवेचन और विश्लेषण के रूप में मानदंड बन गई। आधुनिकता पर अनेक दृष्टियों और पहलुओं से विचार किया गया है। किसी ने इसे ‘अपरंपरागत परंपरा’ और ‘ऐतिहासिक अनिरंतरता’ तो किसी ने इसे ‘अंत के बोध की दृष्टि से पहचानने की कोशिश’ कहा जो एक तरह से ‘अर्जित दृष्टि’ है इसलिए इसे ख़ास शब्दों में फ़िट करके नहीं देखा जा सकता। ‘बोध’ के धरातल पर यह एक जगह टिकने और रमने वाला नहीं। जो एक जगह टिकता और ‘रमता’ है वह सही अर्थों में आधुनिक नहीं हो सकता। स्थिरता और एक जगह ‘रमता’ होते रहना अगति है, जड़ता है किन्तु आधुनिकता गतिशील होते रहने की, नित नूतन होते रहने की कालगत प्रवृत्ति है जो अपनी विकल्पात्मक प्रकृति के कारण अनेक अंतर्विरोधों को जन्म देती है। आधुनिकता की व्यापकता अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग संदर्भों को उद्घाटित करती है। वह मूलतः सभ्यता और संस्कृति के पारस्परिक अतिक्रमण का एक सहयोगी बिन्दु है । इसलिए उसकी व्यापकता और पृथक-पृथक अर्थ संदर्भों के कारण उसे समग्रतः इस रूप में व्याख्यायित करना वस्तुतः असंभव है जो सबको स्वीकार हो सके। जीवन के हर क्षेत्र में जहाँ कहीं प्रगतिशीलता है वहाँ निश्चित रूप से आधुनिकता कुछ जटिल मिश्रणों के साथ विद्यमान रहती है। अर्थ के क्षेत्र में ‘औद्योगिकता’ आधुनिकता कहलाई, राजनीति के क्षेत्र में ‘मानववाद’ को आधुनिकता का आधार माना गया। आधुनिकता परिवेश की सीमा में जुड़कर संश्लिष्ट है। आधुनिकता की यदि कोई सार्थकता है, तो उसकी मानवीयता संकलित युगबोध में ही है जिसके लिए विज्ञान की अपेक्षा ऐतिहासिक पद्धति का ज्ञान अधिक अपेक्षित है। वस्तुतः आधुनिकता संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है जो समसामयिक आदमी के दुःख-दर्द से जुड़ने में उपजती है। वह सोचने की एक प्रक्रिया भी कही जा सकती है, जो आदमी को उसकी विवशताओं से बचाने का उपाय सोचती है। स्वाधीनता पर नए-नए प्रतिबंधों को तोड़ती है, नए संकल्पों के साथ संघर्ष करने की शक्ति देती है। आधुनिकता स्वयं में नवीन नहीं बल्कि परंपरा और अतीत के प्रति विद्रोह के साथ-साथ एक अखंड क्रिया है इस तरह आधुनिकता हमारी जीवन-दृष्टि को कभी संकुचित करती है और कभी उन रूढ़ियों को पुनर्जीवित करती है जिनसे कोई भी बोध वाद की उत्तेजना में बदल जाता है। नई कविता, अकविता और क़िस्म- क़िस्म की कविता में पाश्चात्य अनुकरण संबंधी आधुनिकता की गहरी छाप है। इन कविताओं में, विशेषकर नई कविता में आधुनिकता की नई व्याख्या उपस्थित करने की जिस प्रतिभा की आवश्यकता है उसका यहाँ एकांत अभाव है। उनके लिए टूटे-बिखरे क्षणों का अंधी भाषा में विदेशी बिंबों और प्रतीकों के सहारे देना नहीं। आज की कविता में नए मूल्यों, नई अभिव्यक्तियों और नई शैलियों को विकसित करने की ज़रूरत है जो भारतीय ज़मीन से जुड़कर विश्व बोध के क्षितिज को छू सके और भारत की शाश्वत किन्तु मूल संस्कृति को भी नष्ट होने से बचाए। भारत की औद्योगिकता, इसके उत्कर्ष और ‘लोकतंत्रात्मकता’ तथा इसकी महिमा और जनता की संवेदनाओं, संघर्ष संकल्पी जीवन को भी समझने और संस्कारित करने की ज़रूरत है ताकि मानवीय गरिमा को कालगत सीमा से उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्रदान करते हुए उसकी ‘जय यात्रा’ को भारत की राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के साथ संबंद्ध करके अपनी अस्मिता की सुरक्षा की जा सके। मानवता की यह विजयिनी यात्रा कालजयी होती हुई विश्व और अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर इस क़दर उद्भासित हो कि उसकी सास्वरता में समग्र विश्व चैंधिया जाए।

आधुनिक बोध के ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक सौंदर्य बोध की व्याख्या के संदर्भ में स्पष्टतया कहा जा सकता है कि समकालीन कवि पूंजीवादी व्याकरण और शोषक वर्ग की सत्ता के स्वार्थों को सही रूप में समझ रहा है। अब वह केवल क्रांति और मुक्ति की ही बात नहीं करता बल्कि अनिवार्य मानकर परिवर्तन की भी बात करता है। यह उसकी शोषक और शोषित वर्ग चेतना का उद्बोधन है। रमेश कुंतल ‘मेघ’ की समकालीन कविता से संबंधित वैचारिक भिन्नता वैसे लोगों के लिए नवलेखन, युवादर्शन और नामदर्शन के संदर्भ हैं। उन्हें आधुनिकीरण और क्रांति के बीच चुनाव करना है। आज के नए रचनाकार जाग गए हैं वे समाज के जलते सवालों को उठाने लगे हैं। अब वे न आत्मसंशयी हैं, न आत्मनिर्वासित और न आत्मग्रस्त ही हैं। समकालीन कविता के जनवादी दौर में पक्षधर रचनाकारों ने आधुनिकता के नाम पर फूहड़ता और विवशता व्यक्त की है किन्तु प्रतिपक्षी रचनाकारों ने इसके विपरीत आधुनिकीकरण के नैतिक मूल्यों और विचारों का सृजन भी किया है। समकालीन कविता पूर्ववर्ती और परवर्ती रचनाकारों की जीवन संघर्षी चेतना को स्वीकारती है। नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ, रामविलास शर्मा और विजेन्द्र जैसे रचनाकार ‘निराला’ की संघर्षशील आस्थाओं को ग्रहण करते हैं। शमशेर अनंत गहराई को आत्मसात करना चाहते हैं।

त्रिलोचन के निम्नलिखित सानेट में यही आस्था प्रकट हुई है-

“मुझमें जितना बल था
अपनी राह चला
आँखों में रहे निराला
मानदंड मानव के तनके मनके
तो भी पीस परिस्थितियों ने डाला
सोचा जो भी हो,
आँखों की करूणा का यह शीतल पाला।”

केदारनाथ अग्रवाल निराला को मार्क्सवादी नहीं मानते। वे किसानों की हमदर्दी के गायक हैं, निराला में भी किसानों के प्रति अगाध आस्था है। राम विलास शर्मा के ‘लौहपुरुष’ निराला के व्यक्तित्व का प्रतिपादन है। इसमें महाप्राण ‘निराला’ के संपूर्ण व्यक्तित्व को रेखांकित किया गया है-

“वह सहज विलंबित मंथर गति जिसको निहार
गजराज लाज से राह छोड़ दे एक बार
काले लहराते बाल देव सा तन विशाल
आर्यों का गर्वोन्नत प्रशस्त अविनीत भाल
झंकृत करती थी, जिसकी वाणी में अमोल
शारदा सरस वीणा के सार्थक सधे बाल।”

समकालीन कविता में आधुनिकता की यथार्थवादी दृष्टि मिलती है। सत्ता और व्यवस्था के प्रति विरोध और सहमति के बीच उपजे संघर्षों के सवालों का उत्तर समकालीन कविता में पूरी प्रखरता के साथ प्रक्षेपित किया गया है। इस कविता में आज ‘मानव का संघर्ष’ ही नहीं उसकी मुक्तकामी चेतना का उन्मेष भी पाया जाता है। इसमें शोषक और शोषित समाज की चेतना का परिवर्तनशील रूप भी विद्यमान है। ‘नई कविता’ और ‘नवगीत’ जैसी सहयात्री काव्यधाराओं में भी ‘जीवन को सही रूप’ प्रदान करने की चेष्टा है। मार्क्सवादी, प्रगतिवादी, जनवादी और वामवादी विचारधाराओं वाली रचनाओं में भी आधुनिक संदर्भाें को पूरी तन्मयता के साथ अर्थवत्ता प्रदान की गई है किन्तु इन विचारधाराओं के कवियों और समीक्षकों की सबसे बड़ी कठिनाई यह रही है कि वे भारतीय जनता और उसकी परंपराओं से कटे हुए हैं किन्तु भारत की जीवन विधि और परंपराएँ आज भी अपने मूल रूप से विच्छिन्न नहीं हुई हैं। यही कारण है कि भारतीय जनता अपनी मूल छांदसिक काव्य परंपरा से जुड़े नवगीत में भी आधुनिक संदर्भों की अभिव्यक्ति विराट रूप में ग्रहण कर सकी है। भारत का धर्म, दर्शन, अध्यात्म, नैतिकता, इतिहास पुराण, समाज, उत्सव पर्व, त्यौहार, मनोरंजन, ज्ञान-विज्ञान सबकी अभिव्यक्ति छांदसिक रूप में व्यक्त होती रही है। नवगीत इन सभी का मूल्यगत रूप प्रस्तुत करने में सार्थक भूमिका निभाता है। नवगीत की यह काव्य परंपरा पाँच हज़ार वर्षों की ऐतिहासिक परंपरा का अनुगान है। ‘‘आज का आम आदमी भी यह जानता है कि कविता छांदसिक होती है, उसे गाया जा सकता है, याद करके विभिन्न अवसरों पर सुनाया जा सकता है। गद्य कविता के शोरगुल में छांदसिक काव्यधारा लुप्त नहीं हुई बल्कि। वह नवगीत की सरस्वती के रूप में पुर्नस्थापित और विकसित हुई है। छठे दशक में निराला ने इसे प्रवर्तित किया; सातवें दशक में यह स्वतंत्र काव्यधारा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। इसमें भारतीयता, भारतीय छांदसिकता और आधुनिकताबोध है।

‘नवगीत’ वस्तुतः समकालीन कविता की एक सशक्त काव्यधारा है। इसमें आधुकिता के नाम पश्चिम से आयातित चीज़ें नहीं हैं न ही प्रदूषण फैलाने वाली सांस्कृतिक विकृतियाँ हैं। इतना ज़रूर है कि पश्चिम की कृत्रिम और प्रदूषण फैलाने वाली ज़हरीली सभ्यता और संस्कृति की विकृतियों और सामाजिक विद्रूपताओं का बेबाक वर्णन है। भारत के औद्योगिक नगरों, महानगरों के कल कारखानों और कृत्रिम जीवन विधि के कारण नदियाँ, समुद्र, आकाश, हवा, जंगल पहाड़ पानी सभी प्रदूषित होते जा रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को व्यापक स्तर पर प्रदूषित किया चित्रकला, मूर्तिकला, साहित्य के साथ-साथ संगीत नृत्य कला में भी प्रदूषण का ज़हर तेज़ी से फैलता जा रहा है। कारण, कि भारतीय जीवन आज़ादी के बाद उपभोक्ता संस्कृति के शिकंजे में है। भारत में जो सामाजिक-साहित्यिक प्रदूषण की प्रवृत्ति पनपी है, उसका श्रेय ‘जैनेंद्र’ और ‘अज्ञेय’ को है। “जैनेंद्र ने तो केवल साहित्य में किन्तु अज्ञेय” ने व्यक्तिगत जीवन में भी वह सब कुछ किया, जो भारतीय समाज में अमान्य रहा। प्रयोग और नएपन के नाम पर तरह-तरह की प्रदूषित और विकृत मानसिकता वाली क्षणजीवी कविताएँ लिखी गई जो भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं हैं। समकालीन हिन्दी कविता के नाम पर ज़हरीली संस्कृति इस तरह फैली कि ‘गद्य कविता’ और ‘छांदसिक कविता’ दोनों इससे बेतरह प्रभावित हुई, किन्तु इन दोनों के विपरीत एक ऐसी तीसरी छांदसिक कविता की अंर्तधारा भी है जिसने हिन्दी कविता की सांस्कृतिक और भारतीयतावादी परंपरा को क़ायम रखा है तथा आधुनिक साँचे में ढलकर ‘नवगीत’ नाम की सार्थकता प्राप्त कर रही है। यह 1970 के बाद की पूर्णतः विकसित और प्रतिष्ठित काव्यधारा है। ‘नई कविता के अवसान’ के बाद इस काव्य धारा में छंदलय के संयोग से काव्य तत्त्व का आसंग संबंध है जिससे कविता की अस्मिता आज तक सुरक्षित है। छंद लयाश्रित नवगीत कविता में आधुनिकता की अभिव्यक्ति समकालीनता के संदर्भ में ही रेखांकित है। नवगीत में भारत की जातीय अस्मिता, सांस्कृतिक परंपरा और इस देश के आम आदमी के दुःख-दर्द, हर्ष-विवाद एवं उसके पर्यावरण का स्पष्ट और सहज आकर्षण है। इसमें पाश्चात्य सिद्धांतों और विचारधाराओं का कहीं भी अनुकरण नहीं है। इसमें लोकगीतों, लोककथाओं, लोकप्रथाओं और लोकजीवन की जीवंत गेयात्मक छवियाँ प्रतिबिंबित हुई हैं, भारतीय जीवन की संपूर्ण संस्कृतियों, आचार-विचारों को नवगीत ने आत्मसात किया है और उसे आधुनिक ढंग से भारतीय संदर्भ में प्रक्षेपित किया है। नवगीत में यह लोक नए ढंग से परिभाषित हुआ है। वैज्ञानिक समाजवाद, जो आधुनिकता की मूल चेतना है, के अनुरूप ही वर्ग समाज की समझदारी का उल्लेख नवगीत की आंतरिक चेतना को उद्घाटित करत है, शोषक वर्ग के हर फरेब के प्रति भी वह सजग है, उसे देखता है और पूरे मन से व्यक्त करता है। भारत की विशाल जनसंख्या में किसानों, मजदूरों आदिवासी-हरिजनों पिछड़े गाँव के लोगों की पिसती ज़िन्दगी, शहर की दुर्गंध भरी गलियों, फुटपाथों, झुग्गी-झोपड़ियों में उपेक्षित जीवन जी रहे सामाजिक लोगों तथा सामाजिक पुरुषों की ही भाँति सामाजिक नारी का अधिकारहीन व्यक्तित्त्व नवगीत की कविता के कथ्य हैं। डाॅ. मोहन लाल तिवारी ने नवगीत को समकालीन कविता की प्रमुख और प्रतिष्ठित काव्य विधा स्वीकार करते हुए इसमें आधुनिकता के समस्त लक्षणों को पाया है- “आधुनिकता के समस्त लक्षणें यथा-वैज्ञानिक प्रवृत्ति, भाग्यवाद का बहिष्कार, यथार्थ से संबंध, लोक की महिमा, शोषित-पीड़ित जन के प्रति आस्था, उनकी मुक्ति-संग्राम में सहभागिता, पुरातनता के प्रति संशय और अस्वीकृति, परंपरा के श्रेष्ठ तत्त्व की स्वीकृति, पूंजीवाद, सामंतवाद, विश्वयुद्ध का विरोध, लोक जीवन की संरचना, विसंगति और संघर्ष से सीधा संबंध आदि बातों से परिपूर्ण हिन्दी में ‘नवगीत’ नामक नई काव्य विधा का उन्मेष हुआ।” इसलिए इसमें न पूँजीवाद का छलावा है न विकृत और अपसंस्कृति का प्रसार है। नारी के पतनोन्मुख मूल्यों को उठाने और उसकी गरिमा को सामाजिक प्रतिष्ठा देने की इसमें उन्मुक्तता है। धरती की चेतना में स्वर्गिक भावना का संचार करने के लिए वह श्रमजीवी जनता को लेकर चलता है। यथार्थ में जहाँ कहीं भी हीनता और तुच्छता का दर्शन होता है, उसकी जड़ में समाज की संरचना को वह दोषी मानता है और उसे वह संघर्ष और परिवर्तन के माध्यम से नया और श्रेष्ठ बनाना चाहता है किन्तु इन सारी चीज़ों को वह वैज्ञानिक बौद्धिकता के कार्य-कारण संबंध से ग्रहण करता है। किन्तु समकालीन कविता का एक अंग नई कविता भारत की सांस्कृतिक परंपरा और आम भारतीय जीवन से पूर्णतः कटी हुई है, इसमें कहीं प्रत्यक्षतः पाश्चात्य आधुनिकतावाद का छंदानुकरण वर्तमान है। इसमें भारत की जातीय अस्मिता और भारतीय जनजीवन से संपृक्ति का नितांत अभाव है। नई कविता में पाश्चात्य काव्यों में प्रचलित-अस्तित्त्ववादी, मनोविश्लेषणवादी, मान्यताओं का सीधा अनुकरण है किन्तु नवगीत में ऐसी बात नहीं है नवगीत आम आदमी की कविता है, इसमें पाश्चात्य सिद्धान्तों और विचारधाराओं का अनुकरण नहीं है। उसकी विकृतियों और विसंगतियों का भयावह चित्र अवश्य प्रस्तुत किया गया है। इसलिए ‘नवगीत का मूलस्वर आधुनिकतावादी है, जिससे उसका अस्तित्त्व क़ायम है। नवगीत के कथ्य और शिल्प दोनों में आधुनिक भावबोध और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है इसलिए यह रचना प्रवृत्ति आधुनिकता को प्रस्तुत करने में सफल हो सकी है। यही कारण है कि यह सही माने में आधुनिक कविता है। स्थान-स्थान पर आधुनिकता की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियाँ लक्षित होती हैं जिनमें कुछ का उल्लेख करना नितांत आवश्यक लगता है।

उदार मानवतावादी दृष्टि:

मानव और मानवतावाद की अवधारणा समाज की आधुनिकतावादी दृष्टि है। ‘मानव’ को जीवन के केन्द्र में प्रतिष्ठित करके उसके सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, जय-पराजय, लाभ-हानि, प्रेम-घृणा, हिंसा-अहिंसा आदि को विश्लेषित करना रचना की आधुनिकतावादी दृष्टि है। इस दृष्टि से समकालीन कविता में नवगीत ही मानवतावादी काव्य कहा जा सकता है। इसमें मानवता का लंबा इतिहास व्यंजित और ध्वनित है, इसमें मानव जाति के प्रति दर्द और चिंता है। नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने आज के स्वार्थी, लूट-खसोट और आतंक, ख़ौफ़ से डरी मानवता का प्रतीकात्मक चित्र मानवता के विराट धरातल पर प्रस्तुत करते हुए लिखा है-

आस-पास जंगल समिधाएँ हैं, मैं हूँ
पोर-पोर जलती समिधाएँ हैं, मैं हूँ
आड़े-तिरछे लगाव बनते जाते स्वभाव
सिर धुनती होंठ की ऋचाएँ हैं, मैं हूँ
अगले घुटने मोड़े झाग उगलते घोड़े
जबड़ों में कसती बलगाएँ हैं, मैं हूँ।

(नवगीत अर्द्धशती पृ. सं.-185)

इसमें वैज्ञानिक-औद्योगिक विकास में आगे बढ़ रहे देशों की दिग्विजयी प्रतियोगिताओं में आम-आदमी की घोड़ों की तरह अश्वमेध यज्ञ में बलि होने की संवेदनशील आख्या व्यंजित है। मिथकीय बिंबों द्वारा मानतवतावादी चित्र अत्यंत हृदय द्रावक हो उठा है।

लोकतांत्रिक चेतना का प्रसार और प्रतिष्ठा:

आज की राजनीति की संगति-विसंगति, समाज की पृष्ठभूमि में राजनीति का दाय कितना सद् और असद् रहा है, इन स्थितियों का ज्ञान लोकतांत्रिक चेतना के अंतर्गत रखकर ही जाना जा सकता है क्योंकि यह राजनीति की आधुनिकतावादी दृष्टि है। इसे राजनीति का महत्त्वपूर्ण मुद्दा कह सकते हैं। कवियों में लोकतांत्रिक चेतना दृष्टि का अभाव और अस्वीकार आधुनिकता को नकारा कहा जा सकता है। जो कवि समतामूलक चेतना से युक्त नहीं होगा, उसकी कविता आधुनिक नहीं मानी जाएगी और न ही वह कवि आधुनिक ही कहा जाएगा। नवगीतकार मानव जीवन के लिए निरंतर संघर्ष करता हुआ अपने अधिकारों के प्रति सजग और संघर्षरत है। लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना उसका स्वभाव है। यह प्रवृत्ति प्रत्येक नवगीत कविता में पाई जाती है। समाज में व्याप्त शोषण, अपराध-हिंसा, भ्रष्टाचार, दुराचार, कलाकार, उत्पीड़न जैसी अन्यान्य विकृतियाँ आज के समाज के लिए अभिशाप हैं। नवगीतकारों ने इसकी खुलकर ख़बर ली है और इनके मूल में स्थित राजनीतिज्ञों का पर्दाफ़ाश किया है। आज समाज में घोटालों, हत्याओं और बेलछी, पिपरा, बाथे जैसे सामाजिक नरसंहारों का जो सिलसिला चला है उसका भी बेबाक चित्र नवगीत में दिखाई पड़ता है। कुमार रवींद्र ने ‘आहत हैं बन’ में लोकतंत्र पर हो रहे हमले को रेखांकित ही नहीं किया है गाँधीवादी जीवन दृष्टि को भी चुनौती के रूप में प्रस्तुत करते हुए आम आदमी तथा हरिजन आदि जनसमाजों की स्थिति का पर्दाफ़ाश किया है-

लाठी की भैंस, यहाँ फिर हुई कसौटी
तोड़ रही चैखट को अंधी ठकुरौती
कभी हुई बेलछी यह और कभी देवली
काँप रही थर-थर संबंधो की देहरी
घर-घर श्मशान हुए बज रही जुझौती
गली-गली फिरती है ताकत चंगेजी
कल थी बंदूक चली लाश हुआ भोला
उस दिन से काँप रहा हरिजन का टोला
गाँधी को पिपरा की है खुली चुनौती।

इस तरह के अनेकानेक नवगीत आज के लोकतंत्र पर हो रहे निर्मम प्रहारों को व्यक्त करने में सफल हुए हैं। जनतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव के बाद भी जनता की दशा नहीं बदली तो इनकी दशा सुधारने के लिए वह ‘घरों से बाहर’ निकलता है क्योंकि घरों में चुपचाप बैठकर ‘समाजवाद’ लाने का सपना साक्षर नहीं हो सकता।

सलामी में झुके थे पेड़ जो
तनकर खड़े होने लगे हैं
घरों में बंद होकर लोग बैठे थे
निकल बाहर खड़े होने लगे हैं।

आज चतुर्द्धिक जंगल जैसा दृश्य उपस्थित हो गया है और समाज में जंगल का न्याय फैला है। उमाशंकर तिवारी का नवगीत ये शहर होते हुए से गाँव अलोकतांत्रिक स्थिति के प्रति आक्रोशपूर्ण अभिव्यक्ति है। इस कविता में लोकतंत्र की हत्या और दुरूपयोग का रहस्योद्घाटन है। भारतीय लोकतंत्र आज वस्तुतः मखौल बनकर रह गया है। इस कविता में भारत के लोकतंत्र की ही नहीं पूरे विश्व में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना की उत्कट, कामना है।

वैज्ञानिक दृष्टिबोध:

आज के वैज्ञानिक युग में जिनके दिमाग़ में वैज्ञानिक सोच नहीं है, उन्हें आधुनिक नहीं कहा जा सकता। जीवन का हर क्षेत्र वैज्ञानिकताबोध से युक्त है। काव्य-कारण का सिद्धान्त वैज्ञानिकता-बोध पर आधारित है। विज्ञान मानव के हित का साधन है और यदि वह मानव का अहित करता है तो त्याज्य है। यह विवेकपूर्ण दृष्टि ही वैज्ञानिक दृष्टिबोध है। वैज्ञानिक दृष्टिबोध का विवेकसम्मत उपयोग और सोच आज की दुनिया के लिए आधुनिकतावादी सोच कही जा सकती है जिसे नवगीत ने पूरी शिद्दत के साथ प्रस्तुत किया है।

महानगरों की विषाक्त ज़िन्दगी:

वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी के विकास और विस्तार से महानगरों में रहनेवालों का जीवन पूर्णतः अभिशप्त हो गया है। महानगरों में यांत्रिक सभ्यता ने मानव मूल्यों को विनष्ट कर दिया है। गाँवों का जीवन अविकसित होते हुए भी संवेदनशील है। परिवार, घर, समाज और प्रकृति सबके साथ अभी भी रागात्मक संबंध बने हुए हैं किन्तु नगरों के जीवन में न आत्मीयता है, न स्वास्थ्य और न निर्मलता है यहाँ सब कुछ कृत्रिम और बिकाऊ है, दिखावा जैसा है। यहाँ हर कोई ‘मुखौटा’ जीवन जी रहा है इस अवमूल्यन के लिए वैज्ञानिक सभ्यता ही उत्तरदायी है। मानवीय मूल्यों की इस ह्रासशील स्थिति का वर्णन प्रायः सभी नवगीतकारों ने अलग-अलग किया है-

जल रहे बारूदघर में लाख की मीनार,
सुर्ख लावे की सुरंगें किस तरह हो पार।

यह असमंजस महानगर की ज़िन्दगी जीने वाले प्रत्येक व्यक्ति में है।

भारतीय ढंग की आधुनिकता बोध की अभिव्यक्ति:

नवगीत में भारत की जीवन विधि, उसकी संस्कृति के प्रति स्पृंक्ति का भाव व्यंजित है किन्तु पाश्चात्य सभ्यता की तेज़ आँधी के आवर्त से निकल लेना नवगीत की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। आज के भारत की लुप्त होती जा रही ‘अस्मिता’ के प्रति श्रीकृष्णन तिवारी का तीव्र आक्रोश आधुनिकता की गत्यात्मक और नवीन बिंबात्मक अभिव्यक्ति है जिसके ‘अंदाज’ को गति ने नए मुक़ाम पर खड़ा कर दिया है-

उल्टे मुँह हवा हो गई
मरा हुआ साँप जी गया
सूख गए ताल पोखरे
बादल को सूर्य पी गया
छत्रमुकुट का हुआ हरन, राजा को ख़बर ही नहीं।

इस तरह नवगीत के हर रचनाकार ने आधुनिक संदर्भों को अपने गीतों में रूपायित करने का प्रयास किया है। आधुनिकताबोध की अभिव्यक्ति के फलस्वरूप ही नवगीत आधुनिक कविता के रूप में प्रतिष्ठित है। समाजवाद, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिक मानव मूल्यों के प्रति आस्था जैसी प्रवृत्तियाँ आज की आधुनिकतावादी जीवन दृष्टि है, जिसकी पूर्णतः अभिव्यक्ति समकालीन कविता से अभिन्न काव्य विधा ‘नवगीत’ में सजगता के साथ विविध आयामों में हुई है।

1 टिप्पणियाँ

  • 28 Oct, 2021 06:32 AM

    बहुत बढ़िया, व्यापक दृष्टिकोण और कई-कई संदर्भों को समेटता हुआ आलेख। मैं हमेशा इस बात का पक्षधर रहा हूँ, कि नवगीत को मात्र नवगीत न कहकर नवगीत कविता कहना चाहिए। आपके आलेख में मुझे यह बात भी मिली। नवगीत कविता पर श्रेष्ठ आलेख के लिए लेखक को बधाई। सादर राजा अवस्थी, कटनी (मध्यप्रदेश)

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