सबक़

ऋत्विक ’रुद्र’ (अंक: 269, जनवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

कहाँ से शुरू हो ये मेरी कहानी 
कहूँ सच! मुहब्बत से थी ज़िंदगानी 
मुहब्बत की राहें, मुहब्बत बसेरा 
मुहब्बत ही रैना, मुहब्बत सवेरा 
 
मुहब्बत से सँझा, मुहब्बत दुपहरी 
मुझे थी मुहब्बत, मुहब्बत से गहरी 
मुहब्बत था साक़ी, मुहब्बत ही प्याला
मुहब्बत का ठेका, मुहब्बत ही हाला 
 
मय से भरा मैं भटकने लगा जब 
ये आवाज़ देता मुझे कौन था तब 
मुझे अपनी जानिब बुलाया, बिठाया 
मुहब्बत ने मुझको गले से लगाया 
 
मुहब्बत से मेरा हुआ गात हरदी
छुड़ाया गले से, लगी ज़ोर सरदी
छुड़ाया भी क्या ही, उखाड़ा-उखाड़ा
जिसे था सँवारा, उसी को उजाड़ा
 
मुहब्बत में मेरा समय बीतता था 
ख़ुदी हारता था, उसे जीतता था 
मगर जब ख़ुदी से हुआ जेब ख़ाली 
मुहब्बत का मातम, मुहब्बत रुदाली 
 
मैं ख़ुद को जलाकर, अँधेरे मिटाता 
मुहब्बत की ख़ातिर बढ़ा था, चला था 
मगर जब ये जाना, मुहब्बत अँधेरा 
मुहब्बत की लौ को मुहब्बत ने घेरा 
 
जो बुझने लगी है, चलो फूँक मारो
नया दीप ढूँढ़ो, बचा तेल ढारो
ये बत्ती निकाली, डूबा के जलाना
बुझी अबकी लौ, तो इधर को न आना
 
ये सामान मेरा, लिए चल पड़ा मैं 
है उस पार जाना, इधर ही खड़ा मैं 
नदी में उतर कर, ये रिश्ते बहा दूँ 
बहा दूँ मुहब्बत, ज़रा फिर नहा लूँ 
 
मगर ज्यों ही उतरा, चली ज़ोर आँधी 
किधर बह चला, थी किधर नाँव बाँधी
ये बहता-बहाता मैं किस ओर आया
चलो! ये ग़नीमत, कहीं छोर पाया
 
अरे! ये किनारा, ये उजड़ी-सी बस्ती
यही मेरी दुनिया, यही मेरी हस्ती
यहीं घर बसा कर, मैं तन्हा रहूँगा
मैं ख़ुद के सहारे, जियूँगा, मरूँगा
 
ज्यों जलते, चमकते हैं तारे-सितारे
जला दूँगा वैसे हृदय-भाव सारे 
मैं तारों से ज़्यादा चमकने लगूँगा 
सो तन्हा रहूँगा, मैं तन्हा रहूँगा 

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