परित्यक्त
ऋत्विक ’रुद्र’
मैं दीप्त था जब सूर्य-सम, तब विश्व मेरा मित्र था
धुँधली पड़ी जब से छवि, तब से अकेला हो गया
मुझमें विचरते स्वप्न थे, उनमें विचरता मैं रहा
कब रैन बीती, स्वप्न टूटे, कब सवेरा हो गया
धुँधली पड़ी कब से छवि कब से अकेला हो गया
साथी शशि बनकर चला, तारे चले थे साथ में
वे सब बढ़े, बढ़ते गए, मैं राह में ही सो गया
धुँधली पड़ी तब से छवि, तब से अकेला हो गया
मेरे हृदय में गाछ थे, गाछों में कंटक भर गए
कंटक मुझे क्या चीरते, मैं ख़ुद कँटीला हो गया
धुँधली हुई ऐसे छवि, ऐसे अकेला हो गया
मुझमें बची एक लौ रही, कुचला उसे जी ने मेरे
मेरा बचा औचित्य क्या, जो हो गया सो हो गया
धुँधली पड़ी मेरी छवि, जब से अकेला हो गया
राहु नहीं केतु नहीं मुझसे ग्रहण मेरा हुआ
देदीप्य मैं था सूर्य-सम, मैं साँवला अब हो गया
धुँधली हुई ऐसी छवि, सबसे अकेला हो गया