सबकी आँखों में आँसू थे

15-09-2023

सबकी आँखों में आँसू थे

पीयूष गोयल ‘दर्पण’  (अंक: 237, सितम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

बात बहुत पुरानी है, मैं वृंदावन में बाँके बिहारी के दर्शन करने के लिये अकेला ही जा रहा था, सामने से आ रही एक बहुत सुंदर सी गाड़ी जिसको एक महिला चला रही थी, अचानक मेरे पास आ कर रुकी, शीशा नीचे करके बोली, “आप पीयूष हैं?”

मैं बोला, “हाँ मैं पीयूष हूँ।”

वह गाड़ी किनारे लगाकर मेरे पास आई और बोली, “पहचाना मुझे?” 

मैं बोला, “नहीं मैं पहचान नहीं पाया।”

उसने कुछ समय दिया मुझे पहचानने के लिये, मैं फिर भी नहीं पहचान पाया, वो बोली, “चल मैं तेरे को कुछ हिंट देती हूँ, हम साथ-साथ पढ़़े थे।” 

उसने मुझे दो तीन मित्रों के नाम बताये, मैं पहचान गया, उसने मुझे गले से लगा लिया। मेरी आँखों में आँसू थे उसकी आँखों में भी, आपस में बहुत सारी बातें हुईं। 

वो मुझ से बोली, “बाँके बिहारी के दर्शन करने जा रहे हो? चलो मैं भी चलती हूँ दुबारा तुम्हारे साथ, वैसे मैं दर्शन कर आई, पर तेरे साथ दर्शन करना अच्छा लगेगा।” 

उसने गाड़ी एक सुरक्षित स्थान पर खड़ी की और साथ-साथ चल दिये। 

आपस में बातें करते हुए उसने कहा, “पीयूष तुझे याद है सन् १९८४ की बात तू मुझ से नाराज़ था, और मुझे पता चला था कि तू जा रहा है। मैं तेरे घर पर आई थी, तेरे जाने से दो दिन पहले। तूने मुझे माफ़ नहीं किया था और तुझे वो भी याद होगा जब तू बस मैं बैठ गया था, मैंने तुझको जाते हुए भी देखा था। बस जब दूर चली गई थी तूने पीछे मुड़कर भी देखा था, तूने कोई जवाब भी नहीं दिया था। मुझे पीयूष ये बता तू मुझ से किस बात पर नाराज़ था?” 

“हाँ मैं नाराज़ था, तुझे भी पता है किस बात से नाराज़ था।”

“चल छोड़ ये सब बातें। ये बता तू आजकल क्या कर रहा है?”

“मैं एक प्राइवेट नौकरी में हूँ। दो बेटे व एक बेटी का बाप हूँ, अभी पढ़ रहे हैं।”

“अच्छा, मैं दो बेटों की माँ हूँ, तीन-तीन कम्पनियों को देख रही हूँ।”

बातों में पता ही नहीं चला मंदिर कब आ गया, दोनों ने दर्शन किए प्रसाद चढ़ाया, प्रसाद लिया, चल दिये वापस। रास्ते में बहुत सी बातें हुईं।

“लेकिन पीयूष मैं ख़ुश नहीं हूँ। मेरे पति बहुत नशा करते हैं। बड़ी मेहनत की पर अब तीनों कंपनियों को मैं अकेले ही देखती हूँ। दोनों बेटे अभी पढ़़ रहे हैं। समझदार हैं पर अभी उनको कुछ पता नहीं दोनों बाहर पढ़़ रहे हैं।”

बात करते-करते कब गाड़ी तक वापस आ गये पता ही नहीं चला। 

“पीयूष तू ये बता कहाँ ठहरा हुआ है?”

“दर्शन हो गये वापस जा रहा हूँ।”

“नहीं पीयूष तू आज वापस नहीं जाएगा,” उसने ज़बरदस्ती मेरा हाथ पकड़ कर अपनी गाड़ी में बैठा लिया। बात करते-करते, जहाँ वो ठहरी हुई थी, वहाँ पहुँच गये। होटल की बालकनी पर बातें व चाय का आनंद लेते रहे। इसी बीच उसने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, “पीयूष ईश्वर ने मेरी सुन ली मैं कहा करती थी वो दिन कब आएगा जब मैं पीयूष से मिलूँगी। आज देख मिल ही गये। पीयूष अब मैं थक गई हूँ इतनी मेहनत करते-करते, दोनों बेटे पढ़़ने के लिए बाहर गये हुए हैं। मेरा तुझ से एक अनुरोध है—मेरी तीनों कंपनियों की ज़िम्मेदारी तू ले ले।”

ये सुनकर मैं एक दम आश्चर्य में पड़ गया, “ठीक है मुझे कुछ समय दे सोचने के लिये।”

विदा लेते हुए हमने आपस में एक दूसरे के मोबाइल नंबर शेयर किए, “देख मुझे अब जाने दे।”

“पीयूष तू मेरा एक बहुत अच्छा मित्र था और जिसको मैं बहुत प्यार करती थी। लेकिन कुछ कारणवश मैं तेरे को बता नहीं पाई और इसी वजह से तू नाराज़ था मुझे पता है। लेकिन आज हम ईश्वर की कृपा से वृंदावन में मिल गये।”

गले लगकर उसने मुझे विदा किया। समय अपनी गति से चलता रहा बातें होती रहती थीं। एक दिन सुबह फोन आया, “इनका निधन हो गया है, तू आ जा मुझे कुछ नहीं पता।”

मैं पहुँच गया। इसी बीच मेरी नौकरी भी चली गई। सब कुछ संपन्न होने के बाद एक दिन फोन आया, “एक बार मिलने तो आ जा।”

मैं बोला, “ठीक है मैं आ रहा हूँ अपने परिवार के साथ।”

बड़ी ही ख़ुश हुई वो।

“हम सब एक साथ बैठेंगे और बहुत सी बातें करेंगे। आपस में बच्चे भी मिल लेंगे।”

हम सब दुपहरी का खाना खा रहे थे। वो बोली, “पीयूष देख सब कुछ है पर शान्ति नहीं हैं। मैं थक गई हूँ अब इतना काम नहीं होता, तुझे याद है मैंने तुझ से वृंदावन में एक बात कही थी।”

“हाँ मुझे याद है।”

“और तूने कहा था मुझे कुछ समय दे सोचने के लिए।”

तभी उसका बड़ा बेटा बोला, “हाँ अंकल, अभी हमारी पढ़़ाई बाक़ी है और मम्मी भी अकेली है। आप मम्मी के साथ तीनों कम्पनियों को देख लो, प्लीज़।”

मैंने हाँ कर दी। मैं आज भी उनकी कम्पनियों को देख रहा हूँ और उसने अपने बग़ल के बँगले के साथ ही मेरा मकान भी ख़रीद कर दे दिया। दोनों परिवार ख़ुशी से रह रहे हैं। मेरे बिना पूछे कोई काम नहीं होता, मेरे परिवार को अपना परिवार मानती हैं। सच में बहुत प्यार करती है मेरे परिवार को। एक दिन उसने मेरे पूरे परिवार को रात के खाने पर बुलाया। जैसे ही हम सब घर पर पहुँचे दरवाज़े पर ही उसने मेरे पैर पकड़े और सभी को गले लगाकर बोली, “पीयूष मैं तुझ से ही प्यार नहीं करती, मैं अब तेरे परिवार से भी प्यार करती हूँ।” 

हम सबकी आँखों में आँसू थे।

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