सांत्वना

15-05-2023

सांत्वना

शीला मिश्रा (अंक: 229, मई द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

पवन कुमार जी प्रातःकाल की सैर करके जब घर लौटे तो एक वीरानी सी महसूस हुई। बाहर बरामदे में बैठे हुए बहुत देर तक वे चाय का इंतज़ार करते रहे पर हिम्मत नहीं हुई कि बहू को आवाज़ देकर कहें कि चाय भिजवा दो। आज न तो उन्हें ‘कुक’ मनोहर दिख रहा है न ही कामवाली राधा . . . वे चाय की आस लिए अख़बार के पन्ने पलटने लगे परन्तु चाय के बिना अख़बार पढ़ना उन्हें रास नहीं आया। कुर्सी में सिर टिकाकर बैठ गये . . .  उन्हें शुभदा की याद सताने लगी। जब वे सैर करके लौटते थे तो शुभदा चाय के साथ नाश्ता तैयार रखती थी। वे शुभदा को याद कर भावुक हो उठे और उनके मुख से बुदबुदाते हुए निकल ही पड़ा, “क्यों तुम मुझे छोड़ कर चली गई शुभदा . . . क्यों . . .? मैं बहुत अकेला हो गया हूँ।”

आँखों की कोरों में बूँदों को थामे उन्होंने धीरे से आराम कुर्सी में पीछे सिर टिका लिया और अपने सुखद दिनों को याद करने लगे। पुलिस की नौकरी में वे सबसे रौबदार ऑफ़िसर के रूप में जाने जाते थे, उनकी कड़कती आवाज़ से ऑफ़िस में इंसपेक्टर से लेकर हवलदार तक सब तो काँपते ही थे, घर के लोग भी डरे हुए रहते थे। उन्हें याद आने लगा कि जब वे निक्की और मिंटू को अपनी रौबदारी के क़िस्से सुनाते तो वे दोनों पहले तो उन्हें अचरज से ताकते फिर हंँसते हुए बोलते, “दादू फिर से बताओ न, आप कैसे कड़क आवाज़ में बोलते थे।” फिर वे खड़े होकर रौबदार लहजे में दोहराते तो वे दोनों ताली बजा-बजाकर हँसते और उनकी नक़ल उतारते। 
यह सब याद आते ही उनके मुख पर हल्की सी मुस्कान आ गई। वे सोचने लगे कि निक्की तो अब बड़ी हो गई है, हाँ, मिंटू अभी भी उनकी बातें याद करता है। 

किसी की आहट से उन्होंने आँखें खोलीं, धोबन थी, बहू को पूछ रही थी। उन्होंने आवाज़ लगाई, “नेहा . . . ” तभी नेहा ट्रे में चाय-नाश्ता लेकर आई और टेबल पर रखकर धोबन के लाए कपड़ों का हिसाब करने लगी। उसकी मुख पर छाई बेरुख़ी को देखकर पवन जी की हिम्मत ही नहीं पड़ी कि बहू को बताएँ कि आज मेरा दोस्त सोहन दुबे मिला था, वह शाम की चाय पर आएगा। पता नहीं वह प्रत्युत्तर में क्या कहे . . .  वह चाय पीकर कमरे में आए और फिर नहा-धोकर पेपर पढ़ने बैठ गये। 

दोपहर में रोज़ की तरह जब निक्की पेपर लेने आई तब उन्होंने कहा, “बेटा, माँ को बता देना कि शाम को सोहन दादू आएँगे। तुम्हें याद है न . . . सोहन दादू की . . . ? मेरे बचपन के दोस्त . . .?” 

“हाँ दादू, मुझे याद है, वही न . . . जो मेरे लिए चॉकलेट लेकर आते थे।”

“हाँ, हाँ, वही . . . इस बार वे बहुत दिनों बाद बैंगलौर से आए हैं।”

“ठीक है दादू . . . मैं मम्मी को बता दूँगी।” इतना कहकर अख़बार लिए निक्की चली गई। 

दोपहर का खाना खाने के बाद पवनकुमार जी कमरे में ही टहलते रहे। बचपन की यादें उनके मन में दस्तक दे रहीं थीं। टहलते हुए कभी वे मुस्कुरा उठते तो कभी भावी पलों के आनंद की कल्पना मात्र से प्रफुल्लित हो उठते। सोहन का बेटा शुभम व उनका बेटा वरुण बचपन में अच्छे दोस्त थे। पढ़ाई समाप्त होते ही वरुण ने अपना शोरूम खोल लिया व शुभम बैंक मैं नौकरी करने लगा। दोनों की शादी भी एक वर्ष के अंतराल से ही हुई थी। वरुण का विवाह उसकी पसंद से एक बड़े व्यवसायी की पुत्री नेहा से हुआ था जबकि शुभम का बैंककर्मी से। उन दोनों की शादी के बाद दोनों परिवारों में पहली सी अंतरंगता नहीं रही। नेहा अपनी तरह के उच्च स्तर के लोगों से ही मिलना-जुलना पसंद करती थी . . . शायद आर्थिक समृद्धि, भावनात्मक लगाव को समझने में असमर्थ होती है। उन्होंने स्वयं भी कई बार नेहा के व्यवहार में उच्च आर्थिक स्थिति का दंभ महसूस किया था। शुभदा ने एक-दो बार नेहा को समझाने की कोशिश भी की थी लेकिन . . .  

कार का हॉर्न सुन वे वर्तमान में लौटे, शुभम की कार दरवाज़े पर रुकती दिखी। उनके अंदर उत्साह का संचार हो गया और वे तेज क़दमों से बाहर बरामदे की तरफ़ चल पड़े। गर्मजोशी व आत्मीयता से भरे मिलाप में दोनों की आँखें नेह से भीग गईं। 

आरामकुर्सी में बैठे वे दोनों कभी वर्तमान की बात करते तो कभी अतीत को दोहराते और कभी जमकर ठहाके लगाते। बातों में मगन पवनकुमार जी को अचानक ख़्याल आया कि बहुत देर हो गई चाय तो आई नहीं . . .। कुछ देर कशमकश में रहने के बाद उन्होंने निक्की को आवाज़ लगाई पर कोई जवाब नहीं आया तो सोहन ने कहा, “अरे रहने दे . . . बहू को बहुत से काम होते हैं, व्यस्त होगी।” 

पवन के मुख को अभी भी निराशा के बादलों से घिरा देख सोहन ने ठहाका लगाते हुए कहा, “हमारी बातें चाय से कम मीठी हैं क्या . . .? देखना इसका स्वाद कितनी देर तक बना रहेगा।” 

किन्तु पवनकुमार जी का अनमनापन बढ़ता ही गया और कुछ देर बाद वे उठकर रसोई की तरफ़ चल दिए। रसोई में सन्नाटा पसरा हुआ था, वे धीमे क़दमों से बहू के कमरे की तरफ़ बढ़े, दरवाज़े के पास ठिठककर खड़े हो गये फिर बड़ी हिम्मत जुटाकर धीमे स्वर में कहा, “निक्की बेटा, माँ से पूछना . . . दो कप चाय बना पाएँगी?”

“आप भी ना पापा . . . नए-नए शौक़ पाल लेते हैं। कभी पूछा तो करो कि फ़ुर्सत है कि नहीं! निक्की की परीक्षा चल रही है। उसको पढ़ाने के बाद ही मैं चाय बनाऊँगी। बार-बार आकर पूछने की ज़रूरत नहीं है।”  

बहू के मुख से कठोर वचनों को सुन अपनी बेचारगी को छिपाए वे सोहन के पास आकर बैठ गये। 
 
कुछ देर बाद नेहा ने निक्की के हाथ से केटली में चाय और दो कप भिजवा दिये और साथ में थे केवल बिस्किट . . . यह देख पवनकुमार जी का मन विक्षुब्ध हो उठा . . . आज ऐसी स्थिति हो गई है कि हम अपने दोस्त को नाश्ता भी नहीं करा सकते . . .। यह विचार उन्हें उद्वेलित करने लगा . . . ख़ैर . . . 

जैसी भी चाय थी दोनों ने मुस्कुराते हुए चुस्की ली, लज़ीज़ बातों से मन बहलाया, ठहाकों से पेट भरा और कुछ देर बाद सोहनजी चले गये। पवन कुमार अपने कमरे में आकर बैठे ही थे कि दनदनाते हुए नेहा ने कमरे में प्रवेश किया और तेज़ स्वर में कहने लगी, “पिताजी कभी दोस्तों को बुलाना हो तो एक बार मुझसे पूछ तो लिया करें . . . आपको पता भी है घर में क्या हो रहा है . . .? निक्की की परीक्षा चल रही है . . . कौन पढ़ाएगा उसे . . .? आपको पता है न . . . कुक नहीं आ रहा है उसकी मांँ जो गिर गई हैं। दूसरी तरफ़ महरी के लड़के को बुख़ार आ रहा है तो वो भी आज नहीं आई . . .। कितना काम देखूंँ मैं . . . और एक आप हैं कि . . .” अचानक नेहा बोलते-बोलते रुक गई . . ., उसका ध्यान गया कि मिंटू पास आकर खड़ा हो गया है और अचरज से उसे देखे जा रहा है। अकबकाई सी नेहा उसका हाथ पकड़कर लगभग घसीटती हुई अपने साथ ले गई। 

पवन कुमारजी का दमदार सा व्यक्तित्व कुर्सी में सिमटकर चिपक गया . . . आँखों से अश्रु बहने को आतुर हो उठे और मन . . . टीस से भर उठा . . . अंतर्मन तीव्रता से शुभदा को पुकार रहा था . . .  धीरे-धीरे अपमान से जन्मी बूँदों की धार से दोनों गाल तरबतर हो गये। शर्मिंदगी से अपने दोनों हाथों से अपना मुँह ढांँपे वे फफक पड़े और मन ही मन दोहराते रहे, “हे ईश्वर, मुझे भी उठा ले . . .” कुछ क्षणों के बाद पीठ पर स्नेहिल स्पर्श की अनुभूति पाकर उन्होंने मुख पर से हाथ हटाया तो मिंटू को पास खड़ा देखकर चौंक गये। उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वे उससे नज़रें मिला सकें। वह पास की कुर्सी पर चुपचाप बैठ गया। किसी तरह पवनकुमार जी ने मिंटू से नज़रें चुराते हुए अपने आँसू पोंछे हालाँकि कुछ नमी अभी भी व्याप्त रह गई थी फिर उन्होंने मुख पर हल्की सी मुस्कान लाते हुए मिंटू की और देखा . . . वह कुर्सी के एकदम किनारे पर आकर बैठ गया और अपने हाथ से उनका हाथ सहलाने लगा मानो . . . ढाढ़स बँधा रहा हो। पवनकुमारजी चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रहे थे। कोई प्रतिक्रिया ना पाकर वह एकदम से उठा और उनके गालों पर अपना प्यार बरसाने लगा . . . अचानक मिले इस अथाह स्नेह से भावुक होते हुए पुनः उनकी आँखों में नमी छा गई, यह देख वह उनके गले में अपनी दोनों बाँहें डालकर लगभग झूल सा गया, उसका स्नेहसिक्त स्पर्श पाकर ठहरा हुआ दर्द फिर अश्रुओं के माध्यम से बहने लगा साथ ही दिल की धड़कन भी बढ़ गई। मिंटू उनके सीने से लगा हुआ उस बढ़ी हुई धड़कन में व्याप्त अपमान व बेचारगी को महसूस करते हुए बहुत देर तक चिपका रहा मानो मात्र पाँच साल का वह बच्चा . . . बिना कुछ बोले स्नेहयुक्त आलिंगन से अपने दादू को सांत्वना दे रहा हो . . .  थोड़ी देर बाद वो अलग होकर बैठ गया फिर उनकी तरफ़ देखकर बोला, “दादू एक बात बोलूँ . . .?” 

पवनकुमार जी को अपनी तरफ़ जिज्ञासा से तकते देख वह बोला, “आप फिर से बन जाओ न . . . पुलिस ऑफ़िसर . . . वही रौबदार कड़क आवाज़ वाले . . .।”

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