साँसों की अनसुनी कहानी
प्रणति ठाकुर
साँसों की अनसुनी कहानी तुम्हें सुनाने को रचती हूँ . . .
तुम फागुन में, तुम सावन में,
तुम भावों के आप्लावन में
तुम कलियों में, तुम फूलों में,
तुम जग के हर इक कण-कण में
तुमको अपने अंतस् रख कर,
तुम्हें रिझाने को सजती हूँ . . .
साँसों की अनसुनी कहानी तुम्हें सुनाने को रचती हूँ . . .
तुम ही राहें, तुम ही मंज़िल
तुम दरिया हो, तुम ही साहिल
तुम ही घायल, तुम्हीं हो क़ातिल
तुम ही ज़ाया, तुम ही हासिल,
रोम-रोम में तुम्हें समा कर
तुम्हें दिखाने को नचती हूँ . . .
साँसों की अनसुनी कहानी तुम्हें सुनाने को रचती हूँ . . .
तुम साँसों में, तुम धड़कन में,
तुम चाहत में, तुम अर्पण में,
तुम रजनी की नीरवता हो
तुम सुबह के कोलाहल में
ब्रह्म-नाद तेरा उर में भर
तुम्हें सुनाने को बजती हूँ
साँसों की अनसुनी कहानी तुम्हें सुनाने को रचती हूँ . . .
तुम अंतर्मन की सीमा हो
तुम साँसों की मधु-वीणा हो
तुम पूजा की पावन थाली
तुम्हीं सखा, तुम ही हो आली
तुमको अपने स्वप्नों में धर
तुम्हें बुलाने को चलती हूँ . . .
साँसों की अनसुनी कहानी तुम्हें सुनाने को रचती हूँ . . .
साँसों की अनसुनी कहानी तुम्हें सुनाने को रचती हूँ . . .