कनक हुई हूँ
प्रणति ठाकुर
जग-जीवन की अग्नि-शिखा में
तपकर ही तो कनक हुई हूँ . . .
जीवन में अगणित शूल मिले
घावों के नित-नित फूल खिले
राहों के रोड़े हँसा किये
हर क्षण सौ कोड़े धँसा किए
सह अशेष मालिन्य जगत् का
मैं शुचिता की जनक हुई हूँ
जग-जीवन की अग्नि-शिखा में
तपकर ही तो कनक हुई हूँ . . .
रोई हूँ आधी रातों को
सोई हूँ चुनकर काँटों को
नित नवीन अपमान सहा है चुप हो करके
देखी है अपनी दुर्दशा भी दृग खो करके
अवरुद्ध कण्ठ में वाणी पीकर
अपने अधर अभी तक सीकर
तब ही तो मैं धनक हुई हूँ
जग-जीवन की अग्नि-शिखा में
तपकर ही तो कनक हुई हूँ . . .
जगती के हर अट्टहास पर स्वयं हँसी हूँ
फूलों की क्यारी में बन मधुगंध बसी हूँ
शूलों की हर चुभन को अपना साथी माना
दृग से बहते अश्रु-बिन्दु को स्वाति माना
पग में पड़े हुए छालों को सहलाया है
स्वयं स्वयं की सखी बनी और बहलाया है
किया हृदय विस्तार, स्वयं ही फलक हुई हूँ
जग-जीवन की अग्नि-शिखा में
तपकर ही तो कनक हुई हूँ . . .
जग-जीवन की अग्नि-शिखा में
तपकर ही तो कनक हुई हूँ . . .!