सामाजिक सत्यों को कहानी का रूप देता संग्रह ‘खंडित यक्षिणी'
ममता महकसमीक्षित पुस्तक: खंडित यक्षिणी (कथा संग्रह)
लेखिका: डॉ. रमा द्विवेदी
प्रकाशक: शब्दांकुर प्रकशन, दिल्ली
पृष्ठ संख्या: 122
मूल्य: ₹300.00
रमा जी से अब तक मुलाक़ात नहीं हुई है पर लगता है उन्हें बहुत अरसे से जानती हूँ। यूँ भी लेखक को जानने के लिए उनसे मिलना ज़रूरी नहीं है बस उनके लेखन को पढ़ लीजिए। और यही मेरे साथ भी हुआ। रमा दीदी का पहला लघुकथा संग्रह ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ पढ़ा तो उन्हें जानने का कुछ अवसर मिला। यह पहचान हाल ही में और पक्की हो गई जब उन्होंने अपना नवीन कथा-संग्रह ‘खंडित यक्षिणी’ डाक से भेजा। कथा संग्रह के शीर्षक ने तो मुझे उनका फ़ैन बना दिया। शीर्षक हो या शब्द चयन रमा जी की पसंद बेहद क्लासिकल है। इस संग्रह का शीर्षक किसी पौराणिक ग्रंथ का आभास देता है। रहस्यपूर्ण कवर पृष्ठ से सजे कथा संग्रह को पढ़ना शुरू किया तो अंतिम पृष्ठ पर ही ख़ुद को रोका। वाक़ई सम्मोहित करने वाली कहानियाँ हैं संग्रह की। पन्द्रह कहानियाँ जैसे निराले पन्द्रह रंग एक ही कैनवस पर समेट दिए हों कथाकार ने।
संग्रह की सर्वप्रथम कहानी है ‘पिता की ममता'। मधु खुरे की मृत्यु के बाद डॉ. खरे के जीवन में आए परिवर्तनों पर आधारित कथानक पाठक को सोचने पर विवश कर देता है कि पुनर्विवाह का परिणाम क्या हो सकता है। सायना जैसी महिलाएँ अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु कैसे-कैसे काम भी कर जाती हैं। एक पुरुष होकर डॉ. खरे का हृदय ममता से भरा हो सकता किन्तु एक स्त्री होकर भी सायना ममता विहीन है।
कहानी ‘सिसकती ज़िंदगी’ वर्तमान युग की सुविधाओं और दुविधाओं पर बुनी है रमा जी ने। कुमारिका के जीवन में मनमीत का आगमन एक सोशल साइट के माध्यम से ही हुआ था लेकिन इन्टरनेट का यह मीठा ज़हर जब मनमीत के सर चढ़ गया तो कुमारिका का जीना दूभर हो गया। अपनी कठिनाई का कोई हल न दिखाई देने पर कुमारिका ने विरोध किया लेकिन मनमीत ने उसके साथ मारपीट शुरू कर दी। आख़िर कुमारिका कब तक सहन करती उसने घर छोड़ने का निश्चय किया। उसका घर समय पर सही सलाह और मार्गदर्शन से उसका वैवाहिक जीवन फिर से खुुशहाल हो गया। एकल परिवार, आधुनिक रहन-सहन और प्रौद्यौगिकी के दुष्परिणामों को दर्शाती ये कहानी आज का कड़वा सच है। मनमीत जैसे कई युवा वर्चुअल लाइफ़ को ही असली जीवन मान बैठते हैं और वास्तविकता से भागते हैं।
संग्रह की अगली कहानी ‘दुर्भाग्य से सौभाग्य’ एक अलग ही कथानक को सँजोए हुए है। एक अविवाहित माँ से उसकी बच्ची का छिनना, बच्ची का अनाथालय पहुँचना, माँ का बच्ची से नियमित मिलना, विदेशी जोड़े द्वारा बच्ची को गोद लेना, इत्यादि कई मोड़ों से गुज़रती कहानी एक बालिका के दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलते हुए दिखाती है। एक कथानक के साथ अनेक उपकथानकों से गुँथी कहानी कुछ गुंफित सी लगी। कहीं कहीं कथानक स्पष्ट नहीं हो पाया। बेहतर होता घटनाओं को विवरण कथानक में क्रमवार और विस्तार से स्पष्ट किया जाता।
‘अर्थी सुसंस्कारों की’ कहानी लगता है मानो हमारे आस-पास के किसी पात्र की कहानी है। भारतीय परिवारों की सुभाषिनी सरीखी कितनी ही बेटियाँ हैं जो भारतीय संस्कारों और मूल्यों को उम्र भर अपने मन में सँजोए रखती हैं किन्तु जलज जैसे दरिंदे उनका मोल समझने के स्थान पर उनका अपमान करते हैं। गृहस्थी की गाड़ी दोनों पहियों के समान होने पर ही सहज गति से चल सकती है। किन्तु एक पहिया अकेला इसे कब तक और कहाँ तक घसीट सकता है। सुभाषिनी के लाख प्रयासों के बाद भी जलज का व्यवहार नहीं बदला। वरन् उसके आक्षेपों से त्रस्त हो सुभाषिनी की ज़िन्दगी ही ख़त्म हो गई। एक सुसंस्कारी स्त्री अपने संस्कारों के कारण मुखर नहीं हो पाती वह स्वयं के साथ हुए अन्याय का विरोध भी नहीं कर पाती। ऐसे उदाहरणों को देख लगता है कि किस काम के ये संस्कार जो जीवन ही होम कर दें।
संग्रह के शीर्षक ‘खंडित यक्षिणी’ की कहानी स्तन-केंसर के प्रति जागरूकता बढ़ाती है। कैसी विडम्बना है कि पढ़े-लिखे आधुनिक विचारों वाले लोग भी प्रेम जैसा व्यवहार कर सकते हैं और महज़ एक रोग के कारण आई कुरूपता के बाद प्रिया जैसी सुशिक्षित और प्रतिभाशाली पत्नी को छोड़ सकते हैं। प्रेम ने प्रिया को अपने प्रीत की डोर से बाँधा था पर क्या प्रीत की ये डोरी इतनी कच्ची होती है कि एक झटके में तोड़ दी जाए। अगर ऐसा है तो कोई प्रेम ही क्यों करे? वास्तव में कहानी में झकझोरने वाले कथानक को प्रस्तुत करती है। प्रिया का अवसाद में जाना किन्तु वीरता से अपने कष्ट का सामना करना और पुनः अपने जीवन को एक नया अर्थ देना अभिनंदनीय है। सच स्त्री मात्र एक सुडौल मांस का पिण्ड नहीं है, वह एक संवेदनशील मनुष्य भी है। उसका मन भी अनुभूतियों पर प्रतिक्रिया देता है। उसे भी दुःख बाँटने वाला कंधा चाहिये। किन्तु प्रेम प्रिया का सहारा नहीं बना वह उसे मँझधार में छोड़ गया। लेकिन वह भूल गया कि शक्ति खंडित होकर भी शक्ति ही रहती है।
संग्रह की इन पाँच लंबी कहानियों के बाद दस छोटी कहानियाँ रमा जी ने इस संग्रह में ली हैं। इन्हीं में ‘आखिरी देवदासी’ कहानी समाज की एक कुप्रथा का कुरूप चेहरा पाठक के समक्ष रखती है। देवदासी बनने की कहानी सुनाती कमलम्मा बताती है कि किस पीड़ा, यातना और मानसिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ता है उन्हें। उनका न कोई सहारा होता है और न कोई हमसाया। उनका शोषण धर्म के पुजारी ही करते हैं। अपनी वासना को वे देवताओं की आज्ञा का नाम देते हैं। सरकारी प्रतिबंधों के बावजूद इस प्रथा का चलन अब भी जारी है। देवदासियों ने इसे अपना भाग्य समझ लिया है, कुछ इसे मजबूरी में करती हैं और कुछ को इस प्रथा से निकलने नहीं दिया जाता। हालाँकि स्वयंसेवी संस्थाएँ समाप्ति के लिए प्रयास कर रही है पर वे प्रयास पूरी तरह सफल नहीं हो पा रहे हैं। लेकिन आशा की किरणें अभी भी बाक़ी हैं।
‘माया मिली न राम’ कहानी शिक्षा व्यवस्था की कमज़ोर कड़ियों की पोल खोलती है। शोध गाइड द्वारा शोधार्थियों का शोषण एक आम चलन है पर विश्वविद्यालय इस हेतु कोई कठोर क़दम नहीं उठाते। शोधार्थी अपने शोध को पूरा करवाने के लिए गाइड की हर बात मानते हैं। आर्थिक रूप से भी उनकी सेवा करते हैं किन्तु अपने छोटे से फ़ायदे के लिए गाइड शोधार्थियों का समय और भविष्य दोनों बिगाड़ने से परहेज़ नहीं करते।
‘जाहिल सेक्रेटरी’ कहानी भी कुछ ऐसी विसंगति पर ही आधारित है। जहाँ मैनेजमेंट का एक अल्पशिक्षित और अनुभवहीन व्यक्ति सभी शिक्षकों की योग्यता पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। उसके कटु शब्दों और अप्रिय व्यवहार के कारण एक-एक कर पूरा स्टाफ कॉलेज छोड़ जाता है। अच्छे शिक्षकों के अभाव में विद्यार्थी भी क्योंकर ठहरेंगे। केवल एक ग़लत इंसान ने पूरे कॉलेज का बंटाधार कर दिया। यही तो परिणाम होता है जब व्यवस्था में ख़ामी आ जाती है।
संग्रह की अन्य कहानियाँ ‘नेकी कर दरिया में डाल’, ‘संवेदनाओं के पुल’, ‘वो पाँच दिन', ‘काशी काशी’ तथा ‘ललक शहर में शादी की’ भी समाज के अलग-अलग पहलुओं पर रचे कथानक हैं। रमा जी की लघुकथाएँ हो या ये कहानियाँ, वे वर्तमान, वास्तविकता और व्यावहारिकता पर अपने कथानक बुनती हैं। कुछ कथानक तो उन्होंने इतनी मज़बूती से सामने रखे हैं लगता है कहानी नहीं हमारे आसपास की ही कोई घटना है। पात्र भी कथानक अनुरूप हैं। संवाद आधुनिक शैली में रचे गए हैं। स्थान और समय को ध्यानपूर्वक जोड़ा गया है। कथानक बेहद ताज़े और उम्दा हैं। रमा जी की लेखन शैली देखकर लगता ही नहीं कि यह उनका प्रथम कथा संग्रह है। सधे हुए शब्द, कथानक की सहज गति और घटनाओं का सार्थक घुमाव, कहानियों को अनूठा आकर्षण दे रहा है। सामाजिक घटनाओं पर उनकी तेज़ और महीन नज़र ने कथानकों को विविधता दी है। उनकी संवेदनशीलता पाठक को भी किसी न किसी पात्र के साथ सम बना देती हैं। अपनी कहानियों में घटनाओं का दृश्य-सा उकेर कर उन्होंने कथानक को जीवंत बनाया है। एक पाठक के रूप में मैंने संग्रह का पूरा आनंद प्राप्त किया है। कभी कथानक के साथ हँसी तो कभी रोई, कभी मुस्कुराई तो कभी नाराज़ हुई। पर पढ़ना नहीं छोड़ा। कहानी जैसी मौलिक विधा में जब तक नवीन कथानक नहीं होता पाठक उसे स्वीकार नहीं करता। लेकिन रमा जी के संग्रह के कथानक नवीन भी है और विविध भी। ‘खंडित यक्षिणी’ की अखंड सफलता की शुभकामनाएँ रमा जी।