सामाजिक सरोकार की जीवंत कहानियों के रचनाकार: सुरेश बाबू मिश्रा

15-09-2022

सामाजिक सरोकार की जीवंत कहानियों के रचनाकार: सुरेश बाबू मिश्रा

डॉ. अमिता दुबे (अंक: 213, सितम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

कहानी साहित्य की सबसे पुरानी विधा है जिस समय भाषा, लिपि, व्याकरण का बोध तक लोगों को नहीं हुआ था तब भी कहानी सुनी और सुनाई जाती थीं। हमारे देश में कहानी वाचन की पुरानी परंपरा रही है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कहानी साहित्य की एक सशक्त विधा है। परन्तु इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि वर्तमान समय में कवियों की तुलना में कहानीकारों की संख्या बहुत सीमित है। लोग कहानी के स्थान पर कविता या गीत लिखने में अधिक रुचि ले रहे हैं जबकि कहानी पाठक के मन पर लम्बे समय तक प्रभाव छोड़ने वाली रचना है। सुरेश बाबू मिश्रा जाने माने कहानीकार हैं इनकी कहानियाँ देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों के साहित्यिक परिशिष्टों में निरन्तर प्रकाशित होती रहती हैं। इनकी बारह कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें सात कहानी संग्रह, दो लघुकथा संग्रह, एक नाटक संग्रह, एक एकांकी संग्रह और एक लघु उपन्यास शामिल है। इनके कहानी संग्रह ‘थरथराती लौ’ और ‘लहू का रंग’ ने पाठकों के मध्य बहुत लोकप्रियता हासिल की है। जिससे इनकी छवि एक सशक्त कहानीकार के रूप में उभर कर आयी है। 

श्री सुरेश बाबू मिश्रा ने साहित्य की सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है मगर मूलतः बे कहानीकार हैं। ‘लहू के रंग’ कहानी संग्रह की अपनी बात में वे कहते हैं:

“अक्षर, शब्द, वाक्य और विचार की अन्तर्ध्वनि हमारे और आपके चारों ओर निरन्तर गूँजती रहती है मगर उसकी सार्थकता तब ही है जब उसे वाणी से व्यक्त किया जाये अथवा लेखनी द्वारा कविता या कहानी में ढाल दिया जाये।” 

वहीं ‘थरथराती लौ’ की अपनी बात में कहते हैं:

“मनुष्य का जीवन बहुरंगी और बहुआयामी है। वह कभी एक जगह नहीं रुकता, न ठहर पाता है। मन कभी शांत नहीं रहता, उसके अन्दर प्रतिपल कुछ नया, कुल अलग करने की इच्छा हिलोरें मारती रहती है। कुछ अलग करने की इस धुन के कारण मेरा झुकाव साहित्य की ओर हुआ। धीरे-धीरे साहित्य के प्रति मेरा लगाव बढ़ता गया और आज साहित्य मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है।” 

जब साहित्य जीवन का अंग बन जाता है तब साहित्य की अभिव्यक्ति अनुभूति की गहराई को परिलक्षित करती है। ‘लहू का रंग’ कहानी संग्रह में 18 कहानियाँ हैं जिनके शीर्षक हैं: बाबा सन्तासिंह, रामसिंह का चौरा, चन्दन की ख़ुश्बू, माँ की सौगन्ध, वह क्या करे? होली के रंग, न्याय की क़ीमत, बालदिवस का उपहार, राजनर्तकी का अमर प्रेम, काउन्टर साइन, बड़े भाई साहब, मुक़द्दर, क़ानून की लाठी, निलम्बन, आख़िरी फेरा, हाशिए पर लोग और जाँच आयोग। 

पुस्तक की भूमिका सुप्रसिद्ध साहित्यकार इन्द्रदेव त्रिवेदी और डाॅ. अवनीश यादव ने लिखी है। श्री मिश्र की कहानियों के सम्बन्ध में वे कहते हैं:

“श्री मिश्र की कहानियों की भाषा मानक स्तर की है। इन्होंने अपनी कहानियों को बोलचाल की भाषा में व्यक्त करने की कोशिश की है ताकि हर पाठक उसे अपनी ही भाषा समझकर मन की गहराइयों से इसके मर्म को स्पर्श कर सके।” 

इस कहानी संग्रह में कहीं-कहीं ऐसे स्थानीय शब्दों का प्रयोग भी हुआ है जो कहानी के कथ्य के अनुकूल आंचलिकता से जुड़ सकें। 

वहीं उप प्रधानाचार्य राजकीय इंटर काॅलेज, बरेली (उ.प्र.) डाॅ. अवनीश यादव जो साहित्यकार भी हैं का मानना है: 

“अंधाधुन्ध आगे बढ़ने की चाहत ने इंसान से जो सबसे पहली चीज़ छीनी है वो है आपसी रिश्तों की मिठास व मानवीय व्यवहार। आज इंसान सिर्फ़ दौड़ रहा है—बेतहाशा। उसके पास ख़ुद के लिए भी समय नहीं। यही नहीं वह जहाँ है, मानसिक तौर पर पूरी तरह से वहाँ भी नहीं है। इस आपाधापी में इंसान को अपने स्वार्थ के चलते किसी भी हद से गुज़र जाने में कोई गुरेज़ परहेज़ नहीं है। इस विकट यात्रिक समय में श्री मिश्र बड़ी ज़िम्मेदारी से सामाजिक यथार्थ को सामने रखते हैं और एक चेतावनी भी छोड़ जाते हैं कि सावधान मनुष्य!” 

श्री सुरेश बाबू मिश्रा की कहानियों में भारतीय संस्कृति, संस्कार, चरित्र, परिवेश और विचारों को प्रमुखता से उद्घाटित किया गया है। ‘लहू का रंग’ कहानी साम्प्रदायिक सौहार्द को साकार करती है जब सुरेश बाबू कहते हैं:

“अनवर की लाश से बहता लहू, रमेश की लाश से बहते हुए लहू से मिल रहा था। दोनों के बहते हुए लहू का रंग एक था दोनों में कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आ रहा था।”

वहीं ‘बाबा सन्ता सिंह’ कहानी में सन्त स्वभाव के सन्ता सिंह डाॅक्टर अपने परिवार के हत्यारे को मानवता के नाते बचाते हैं तब श्री मिश्र के शब्द हैं:

“तुम्हें देखकर पहले मेरे दिमाग़ में भी यही विचार आया था कि तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूँ और तुमसे अपने बीवी बच्चों की हत्या का बदला ले लूँ। मगर मैंने सोचा कि फिर मुझमें और तुममें अन्तर ही क्या रह जायेगा। मैंने सोचा कि इस समय तुम्हें सज़ा की नहीं दवा की ज़रूरत है। इसलिए मैं तुम्हें यहाँ ले आया।”

तब वह आतंकवादी जिसने सन्ता सिंह के परिवार के साथ-साथ अन्य कई हत्याएँ की थीं कहने को विवश हो जाता है:

“आप देवता हैं डाॅक्टर साहब।”

डाॅक्टर का व्यवहार आतंक को अपना जीवन मानने वाले का हृदय परिवर्तित हो जाता है। 

‘रामसिंह का चौरा’ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की याद दिलाती है तो ‘चन्दन की ख़ुश्बू’ कहानी में भी अँग्रेज़ सरकार की बर्बरता के साथ-साथ क्रान्तिकारियों के बलिदान की गाथा है इस कहानी का अन्त श्री सुरेश बाबू मिश्रा कुछ इस प्रकार करते हैं:

“उनके अन्तिम दर्शन के लिए जनता में होड़ लग गयी। किसी प्रकार के लोगों को हटाकर चिता में आग लगाई गई। चारों तरफ़ चंदन की ख़ुश्बू फैल गई। थोड़ी देर में ही शहीद का शव चंदन की ख़ुश्बू बनकर जनमानस में बस गया वहाँ शंख और जली हड्डियों के सिवा कुछ बाक़ी न रहा। बाक़ी थी केवल चंदन मिली हुई क्रान्ति की महक जिससे आगे चलकर सारा गुलशन महक उठा।”

‘माँ की सौगन्ध’ कहानी में क्रान्तिकारी वासुदेव की वीरता दृष्टिगोचर होती है तो ‘वह क्या करे?’ कहानी में एक पिता की विवशता दिखायी देती है तब उसकी पत्नी उसे सांत्वना देती है और कहती है:

“तुम सही सलामत घर लौट आए हो मेरे लिए यही सबसे बड़ी सुकून की बात है।”

‘होली के रंग’ कहानी में भी एक पिता की विवशता है एक टैम्पो चालक की बेबसी है तो ‘न्याय की क़ीमत’ कहानी में मिश्रा जी दो टूक कहते हैं:

“हिम्मत मत हारो बाबा, अब तुम मंज़िल के काफ़ी क़रीब पहुँच चुके हो। जब मुक़दमा जीत गए हो तो देर-सवेर क़ब्ज़ा भी मिल ही जाएगा। अन्याय के ख़िलाफ़ लड़कर तुमने बहुत बड़ा काम किया है। तुम्हारी यह लड़ाई उन लोगों के लिए एक मिसाल होगी जिन पर ऐसे ज़ुल्म होते रहते हैं।”

‘बाल दिवस का उपहार’ कहानी में बाल के मनोविज्ञान को रेखांकित करते हुए सुरेश बाबू मिश्रा जी कहते हैं:

“कुत्ते के साथ हुए हादसे ने अकरम की कोमल कल्पनाओं को बुरी तरह रौंद डाला था। यथार्थ के कठोर धरातल से टकराकर उसके सपनों के महल क्षण भर में ही चकनाचूर हो गये थे। भविष्य की रोज़ी-रोटी की चिंता से ग्रस्त तथा शरीर पर अनेकों ज़ख़्म लिए वह घर की ओर चल दिया था। यही उसके लिए बाल दिवस का उपहार था।”

सपने और सच्चाई में कितना अन्तर है यह कहानी इसी ओर संकेत करती है। ‘राजनर्तकी का अमर प्रेम’, शीर्षक कहानी बारहवीं शताब्दी के समय को रेखांकित करती है जब एक राजनर्तकी अपने देश के लिए अपने प्रेमी युवराज की सहायता करने के लिए अपना जीवन दाँव पर लगा देती है तथा प्रेमी भी सब कुछ छोड़कर अपनी प्रियात्मा की स्मृति में जलसमाधि ले लेता है। 

‘काउन्टर साइन’ कहानी में व्यवस्था की विकरालता और मनुष्य की विवशता चित्रित है तो ‘बड़े भाई साहब’ कहानी में दो भाइयों के सम्बन्धों को कुछ इस प्रकार से दिखाते हैं श्री मिश्र कि बड़ा भाई छोटे भाई को पढ़ाने के लिए सब कुछ करता है तो बड़े भाई के त्याग को छोटा कुछ भी नहीं समझता बस स्वयं को अधिकारी मानकर अपने बड़े भाई की कोई सहायता नहीं करता। 

संग्रह की एक अन्य महत्त्वपूर्ण कहानी है ‘मुक़द्दर’ जिसमें नियति से विवश मनुष्य को दिखाया गया है कि ‘क़ानून की लाठी’, ‘निलम्बन’ और ‘आख़िरी फेरा’ कहानियाँ भी सामाजिक सरोकार को चित्रांकित करती हैं। इस प्रकार लहू का रंग कृति की सभी कहानियाँ सामाजिक विसंगतियों, मनुष्य की विवशताओं और आपसी सम्बन्धों की निष्कलुषता को व्यक्त करती हैं। श्री सुरेश बाबू मिश्रा की भाषा पात्रानुकूल है, परिस्थितियों के अनुसार चरित्रों का गठन और उनके व्यवहार द्वारा कथानक का विकास इन कहानियों की मुख्य विशेषता है। 
श्री सुरेश बाबू मिश्रा का कहानी संग्रह ‘थरथराती लौ’ सोलह कहानियों का संग्रह है। ‘थरथराती लौ’ के अतिरिक्त ‘नकली बैरिस्टर’, ‘गुबार’, ‘बलिदानी फूल’, ‘सवालों के जंगल’, ‘कुल देवी की सौगन्ध’, ‘सुख का महल’, ‘फूलों वाली फ्राॅक’, ‘मोहरा’, ‘हाथी के दाँत’, ‘फड़फड़ाते पन्ने’, ‘इज्जत के रखवाले’, ‘झंझावात’, ‘नियति का चक्र’, ‘टूटता दम्भ’ व ‘जाँच आयोग’। 

अपनी कहानियों के सम्बन्ध में श्री मिश्र कहते हैं:

“कहानी संग्रह ‘थरथराती लौ’ वास्तव में आज के समाज की उन विभिन्न स्थितियों का एक वास्तविक चित्रण है जिसे प्रतीकात्मक रूप से मन की आन्तरिक गहराइयों के एक थरथराती लौ के रूप में मानकर वस्तुतः समाज का ही चित्रण किया गया है। सामाजिक संदर्भ की कितनी ही परिस्थतियाँ हैं जब हम अन्दर से मज़बूत होने का ढोंग कर अपनी वास्तविक शान्ति को छिपाने का प्रयास करते हैं और यही मानसिकता हमें हर तरफ़ से लौ की भाँति हिलती रहती है। प्रकाश देने की क्षमता तो मौजूद रहती है पर लौ अपनी जिजीविषा के प्रति कहीं से कमज़ोरी भी अनुभव करती है कि पता नहीं थपेड़ों की कौन सी तेज हवा उसके अस्तित्व को ही बिखेर कर न रख दे।”

इस कहानी संग्रह में श्री सुरेश बाबू मिश्रा की कहानियाँ समय की शिला पर अंकित ऐसे विवरण तो व्यक्त करती हैं जिनमें प्रेम है, करुणा है, दया है, सौहार्द, समन्वय है तो घृणा, विद्वेष और हिंसा भी है। कहा जाता है कि ये कहानी समाज के प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ व्यक्ति विशेष के विविध रूपों को भी सामने लाने में सक्षम है जहाँ सारी संभावनाओं के द्वारा सदैव खुले रहते हैं। 

कहानीकार सुरेश बाबू मिश्रा की साहित्य सेवा महत्त्वपूर्ण है वे अपनी गति से साहित्य सृजन में रत होते हुए समाज को बदलने और नयी व्यवस्थाओं के निर्माण की दिशा में सार्थक प्रयास करने में विश्वास रखते हैं। उनकी सक्रियता अनुकरणीय और सराहनीय है। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा कहानी के माध्यम से अपनी पहचान बनाने वाले श्री सुरेश बाबू मिश्रा की कहानियाँ समय की साक्षी बन साहित्य इतिहास में अपना स्थान बनाने में सक्षम होगी। श्री सुरेश बाबू मिश्रा के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए उन्हें स्वस्थ और दीर्घजीवी बनायें, यही ईश्वर से प्रार्थना है। 

डाॅ. अमिता दुबे
संपादक
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान
6, महात्मा गाँधी मार्ग, 
हजरतगंज, लखनऊ-226001
मो. 9415551878
E-mail: amita.dubey09@gmail.com

सन्दर्भ: 

  1. मिश्र सुरेश बाबू, लहू का रंग, कथा संग्रह, 2016, अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली। 

  2. मिश्र सुरेश बाबू, थरथराती लौ, कथा संग्रह, 2014, अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली। 

  3. समीक्षा-सोच विचार पत्रिका, जून 2021, अंक, बनारस, सम्पादक जितेंद्र नाथ मिश्र, 

  4. समीक्षा-अपरिहरिपत्रिका उ.प्र. राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, लखनऊ, वर्ष 20212

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