हे राम! तू अपनी परिधि से उठ प्राणी मात्र में व्याप्त हो गया
वन-वन भटका सबसे तेरा तादात्म्य हो गया
तू निषाद को बन्धुत्व का सम्मान दे चला
केवट से याचना कर उसका दैन्य हर चला
शबरी के बेर चख तूने स्नेह के मापदण्ड को असीम कर दिया
खग-मृग को निज व्यथा सुना करुणा से वसुधा को अभिषेक कर दिया
सुग्रीव जामवन्त तुझमें एकात्म पा धन्य हो गये
देखते ही देखते मित्रता में वे तेरे तुल्य हो गये
भक्ति में तेरी महावीर तुम सम श्रद्वेय हो गये
स्नेह सागर की लहर बन तुझमें ही लय हो गये। 
राम! तूने एक विश्वव्यापी संवेदना को छुआ था
तेरे आंछवान पर धरती आकाश एक हुआ था
तूने सद्‌भाव प्रेम और करुणा से जगती के सारे भेद मिटा दिये
किस किस से अहो! मित्रता के संबध निभा दिये। 
फिर तेरे नाम पर ये हाहाकार क्यों
तेरी ही जन्मभूमि पर यह चीत्कार क्यों
मानव अपनी ही परिधि में इतना सिमट क्यों गया
इतने सारे वर्गो में हाय बँट क्यूँ गया

 

 (बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद सरोजनी नौटियाल ने यह कविता रची थी व मंच द्वारा एक विशाल जनसमूह के सम्मुख प्रसारित की थी) 

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