क़िस्साग्राम पे मेरी पाठकीय अभिव्यक्ति

01-10-2024

क़िस्साग्राम पे मेरी पाठकीय अभिव्यक्ति

डॉ. राशि सिन्हा (अंक: 262, अक्टूबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

पुस्तक: क़िस्साग्राम
लेखक: प्रभात रंजन
प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज़
पृष्ठ संख्या:  112
मूल्य: ₹116.42

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मानवीय चेतना में अस्तित्व की उपस्थिति के पीछे महज़ किसी प्रेरक शक्ति के दावों के आधार पर ही तर्क प्रस्तावित नहीं होते, बल्कि घटनाओं-परिघटनाओं की विशालता के वे अकूत भंडार भी उपस्थित होते हैं जिनके लिए वह स्मृतियों की कोठरी में प्रवेश करने हेतु उपलब्ध रास्तों पर आवागमन के दौरान ऐसे तात्विक गलियों और चौबारों से भी गुज़रता है जहाँ यात्रा गत अनुभूतियाँ, अतीत और वर्तमान के काल-प्रवाह के परिप्रेक्ष्य में युग-समय और समाज को आकार प्रदान करती कई-कई क़िस्से कहानियों से साक्षात्कार कर, अंततः सृजन के माध्यम से अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख हो जाती हैं। आदरणीय प्रभात रंजन जी की पुस्तक, ‘क़िस्साग्राम’ अभिव्यक्तियों की ऐसी ही परंपरा की अगली कड़ी है। 

राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली से प्रकाशित, 112 पृष्ठों के इस उपन्यास के प्रथम संस्करण में, लेखक ने अपनी इस कृति के कैनवस पर क़िस्सागोई के तहत सामाजिक चेतना के मूल में उपस्थित राजनीति चेतना में सन्निहित विसंगतियों और संत्रास के प्रायः सभी अर्थों और विविध पहलुओं की क़िस्सागोई के लिए जिस स्थान—‘अन्हारी’ को अपनी कल्पना में ‌गढ़ा है, वह मुझ जैसे पाठक को अनायास ही आर.के. नारायणा के ‘मालगुड़ी डेज़’ की याद दिला देता है। इस पुस्तक में लिखित ‘अपनी बात’ में स्वीकारते हुए आदरणीय प्रभात रंजन जी कहते हैं—“अन्हारी नामक किसी गाँव को मैं नहीं जानता न उन घटनाओं का मैं साक्षी रहा लेकिन शुक्र है क़िस्से-कहानियों ने मुझे उनसे जोड़ दिया।” संदर्भगत आर.के. नारायणा ने भी भारतीय नक़्शे में मालगुड़ी की स्थिति पूछे जाने पर कहा था—“लोग अक्सर पूछते हैं, लेकिन यह मालगुड़ी है कहाँ? जवाब में मैं यही कहता हूँ कि यह एक काल्पनिक नाम है।”

वक्तव्यों की इन्हीं समानताओं से, मेरी पाठकीय-स्मृतियों पर अनायास ऐसी स्मृतियों के भाव उभरकर भले ही ‘अन्हारी’ और ‘मालगुड़ी डेज़ की काल्पनिकता के संजोग-समानता को रूपायित करते हों, किन्तु एक बात जो पूरी तरह से सत्य और समान है वह इन दोनों काल्पनिक स्थानों के भीतर का ‘भौगोलिक व्यक्तित्व’—वह भौगोलिक व्यक्तित्व जो रेखांकित भले ही एक सृजक की अभिव्यक्तियों में, अभिव्यक्तियों से और अभिव्यक्तियों के द्वारा हुआ हो, किन्तु सृजन के साहित्यिक मानचित्र पर एक ऐसे यथार्थबोध से आबद्ध है जिसकी अवस्थिति दुनिया के प्रायः प्रत्येक नक़्शे पर व्याप्त है। स्पष्ट है, यथार्थबोध से युक्त यह उपन्यास सिर्फ़ अन्हारी के सत्यधारित सामाजिक, राजनीति चेतनाओं की दार्शनिकता और व्यावहारिकता को निस्यूत नहीं करता, बल्कि बदलते वैश्विक परिदृश्यों की संपूर्ण विसंगतियों को एक साथ उकेरता है वह भी देश-राज्य की सीमाओं से परे होकर। इस संदर्भ में लेखक भी कहते नज़र आते हैं कि “क़िस्से-कहानियों में सबसे बड़ी बात यह होती है कि उनका कोई अपना देस नहीं होता।” सीधी सी बात है ये क़िस्से कहानियाँ अपनी सामाजिक, राजनीतिक जैसी तमाम अन्य चेतनाओं के यथार्थबोध के साथ युग परिवेश का ही वाचन करते प्रतीत होते हैं। क़िस्साग्राम भी इन्हीं चेतनाओं में छिपे यथार्थबोध के अन्वेषण की बात करता है जिसमें लेखक के माध्यम से पाठक कहानियों के अंतर्संबंधित-प्रवाह से गुज़रते हुए क्षीण होती सामाजिक परिप्रेक्ष्य में क्षीण होती राजनीतिक चेतना तक का सफ़र कर, युग-परिवेश और समय के निरपेक्ष और सापेक्ष चेतना में रूपांतरित होता जाता है। 

सामान्य रूप से देखें तो संपूर्ण उपन्यास नायक और नायिका विहीन ही मालूम पड़ता है। मालूम क्या पड़ता है, सही अर्थों में यही सत्य भी है, किन्तु छकौरी पहलवान और खंडित हनुमान मंदिर के निर्माण की मुख्य कहानियों के माध्यम से खंडित सामाजिक चेतना में बुनी जा रही या यूँ कहें कि अध्यारोपित राजनीतिक विसंगतियाँ न जाने क्यों मेरी पाठकीय योग्यता के आगे एक साथ युग-व्याप्त विसंगतियों को नायक और खलनायक दोनों ही रूपों में ला खड़ा करती हैं। हालाँकि मेरा ऐसा कहना एक बिल्कुल विवाद का विषय हो सकता है, क्योंकि किसी भी लेखक का सृजन युग-व्याप्त चेतनाओं के इर्द-गिर्द ही तो घूमता रहता है! ऐसे में सीधे से इस पुस्तक के तहत इनमें नायकत्व और खलनायकत्व ढूँढ़ कर उन्हें इस तरह स्थापित करना न्यायसंगत लगता भी नहीं। फिर भी, यह बताना आवश्यक है कि मेरी पाठकीय स्वीकृति के तहत युग की ये प्रवृत्तियाँ आद्योपांत नायक और खलनायक की भूमिकाओं में ही आते-जाते रहे। शायद इसलिए भी कि चाहे छकौरी पहलवान की कहानी हो या मंदिर निर्माण की कहानी या फिर चुनावी माहौल में अनायास सामने आया धर्म और संप्रदाय के ही मुद्दों से गूँथी कहानियाँ ही क्यों न हों सारी की सारी कहानियाँ किसी एक नायक के बजाय अनेक उपनायकों के द्वारा अंतर्बद्ध होकर युग की वैचारिक विसंगतियों के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती हैं। 
और कहानियों का यह केंद्रीकृत विचरण, युग में व्याप्त राजनीति संत्रास और दरकती सामाजिकता का परिदृश्य स्वत:प्रधान नायक और उप नायक के रूप में रूपायित करता जाता है। 

चाहे जो भी हो वैयक्तिक पाठकीयता से परे होकर बात करूँ तो बदलते युग के साथ बदलते सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्यों की संपूर्ण मानसिकता को उसकी विसंगतियों के साथ अंकित करते अपने इस घटना-बाहुल्य-उपन्यास में, लेखक ने क़िस्सागोई परंपरा के तहत वर्तमान के जिन जिन दृश्यों को धारण कर, पात्रों को गढ़ा है और गढ़े होने के बाद वे घटनाएँ-परिघटनाएँ, समाज के जिन विभिन्न पक्षों की चिंताओं को लेकर हमारे सामने आते हैं वह एक अलग ही कलेवर के सत्य को उद्घाटित करता है। यह उपन्यास, कहानियों की आवाजाही, आगा-पीछा का अनुसरण कर, बहुल-पात्रों की अंतःसत्ता के साक्षात्कार से ऐसी वस्तुस्थितियों की पड़ताल कर जाता है जो व्यावहारिक रूप से आज की व्याप्त जग बीती है। एक जगह लेखक स्वयं कहते हैं, “क़िस्से आगे आगे चलने लगते हैं और सच उनके पीछे-पीछे दौड़ रहा था।”

दौड़ते सत्य को लपकने में लेखक ने जिन-जिन घटनाओं को कहानियों में बुना है वे सच में आज के परिदृश्य की पड़ताल ही है। फिर चाहे खंडित होती मूर्ति से खंडित होती आस्था की बात हो या छकौरी पहलवान की गुमशुदगी और अंत में उसके प्रकट हो जाने के दौरान कही गई कहानी हो या फिर गंजेड़ी आवारा चमन लाल के आवारा से बाबा बनकर बाबागिरी के सफ़र तक की घटनाओं में गूँथी कहानियाँ-अंतर्कहानियाँ ही क्यों न हों सभी या तो लोकतांत्रिक राजनीतिक-प्रक्रिया में अंतर्निहित अवसरवाद जैसे बुनियादी प्रश्नों को साथ लिए खड़े दिखाई देते हैं या तो समाज के खोखलेपन को अपने अपने तरीक़े से उजागर कर रहे होते हैं। 

साथ ही, इन प्रश्नों के साथ-साथ लेखक नींद में सोई सामाजिक चेतना को जगाने की कोशिश भी करते नज़र आते हैं। इस संदर्भ में लेखक का यह कहना, “मंदिर के खंडित हो जाने से आस्था थोड़े ही खंडित हो जाती है।” महज़ वाक्य भर नहीं बल्कि एक रास्ता है—क्षीण होती लोकतांत्रिक चेतना को राह दिखाकर एक नए और वैचारिक रूप से स्वस्थ समाज के निर्माण का रस्ता। 

युग के यथार्थबोध से आबद्ध कहानियों में लेखक ने शुरूआत में एक जगह समाज के पितृसत्तात्मक रवैये को भी दिखाया है। वे कहते हैं, “कला को मर्दानगी से जोड़कर देखने का रिवाज़ था उधर‌। इसलिए नाचने-गाने जैसी कला को कला नहीं स्त्रैण काम माना जाता था, और कोई पुरुष इन कामों में अच्छा निकल जाता तो उसको ‘मउगा’ बोल दिया जाता‌।” यह वाक्य समाज के पितृसत्तात्मक रवैये को केंद्र में रखकर लिखे गए स्त्री-विमर्श-विषयक वाक्य हैं जिसे लेखक ने बड़े चुटीले अंदाज़ में अभिव्यक्त किया है। 

लोकतांत्रिक युग में हम-सभी द्वारा भोगे गए और भोगे जा रहे सच को उद्घाटित करने में, लेखक ने आस्था और जातीय राजनीति में सिर्फ़ किसी एक धर्म को निशाने पर‌ नहीं रखा, बल्कि हनुमान मंदिर के साथ-साथ पीर मोहम्मद के माध्यम से अन्य भ्रष्ट धर्म-संप्रदाय की भी पोल खोलने का बड़ा और साहसिक काम किया है। बड़ी बारीक़ियों से समाज की हर नब्ज़ की छोटी-बड़ी, तेज़ धीमी गतियों को अपनी क़िस्सागोई में थामे रखते हुए लेखक ने किसी प्रकार का कोई पक्षपात न कर जो लोकतांत्रिक रवैया अपनाया है, सच में प्रशंसनीय है। 

यथार्थ के चित्रण में कहानियाँ बुनते-बुनते लेखक एक जगह लिखते हैं–“कहानी में लग रहा था ठहराव आ रहा है कि इसमें एक द्वंद्व उपस्थित हो गया।” लेखक द्वारा प्रयुक्त इस वाक्य को उपन्यास से पूरी तरह जोड़कर देखने पर यह संपूर्ण पुस्तक की व्याख्या करता दिखता है। सच है, जब-जब लगता है कि कहानी इसी कथा की राह पकड़कर सीधी तरह चलनेवाली है, तब-तब एक अलग ही उपकथा उसी कथा की राह पर साथ-साथ चलने लग जाती है और फिर दूसरी राह भी मुड़ जाती है। निःसंदेह यह लेखक की अभिव्यक्ति की विशिष्टता है जिसे बोझिल न बनाते हुए लेखक ने बीच-बीच में छोटे-छोटे चुटीले वाक्यों के द्वारा पाठकों को तनावरहित रखने का भी प्रयास किया है। फिर भी, पाठकों के लिए सभी कहानियों को याद रख पाना और पात्रों के माध्यम से इन कहानियों की सहज चर्चा कर पाना थोड़ा आसान नहीं दिखता। हालाँकि पात्रों के नामों में शामिल आंचलिकता और बोल-चाल की भाषा में प्रयुक्त मुहावरे और वाक्य बिल्कुल पाठकों को गुदगुदा जाते हैं, क्योंकि लेखक ने समाज और संस्कृति के अनुसार ही घटनाओं, संवादों और पात्रों के नामों का चयन किया है। यथार्थ, कल्पना, कौतूहल, साहस, मार्मिकता, अनायासपन और वाचन या वाचिकता जैसे तत्त्वों से संपृक्त इन कहानियों के छोटे-बड़े वितानों के मूल में लेखक ने जो एक परिवेश रच रखा है वह सच में शीर्षक अनुकूलता को सार्थक करता है। शीर्षक की अनुकूलता तो तब और भी सार्थक प्रतीत होती है जब अंत में लेखक दादी की बात करते हुए कहते हैं कि “दादी जब भी कोई कहानी सुनाती थीं तो कहानी सुनाने के बाद अंत में एक फ़िक़रा सुनाती थीं—किस्सा गेलई बन में/सोच अपन मन में!” शीर्षक-अनुकूल यह अंतिम वाक्य पाठकों के अधरों पर एक स्मित रेखा लिए चले आते हैं और पाठक बड़ी सहजता से अपने स्मृतियों के झरोखों से, गाँव-घर की गलियों में झाँककर मुस्कुरा पड़ते हैं। 

आशा है, आगे भी आदरणीय प्रभात रंजन जी अपने सृजन से पाठक समुदाय को ऐसे ही युग चेतना से जोड़कर विचारों की कड़ी सौंपने के साथ-साथ मुस्कुराने की वजह देते रहेंगे। उनके लेखकीय भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाऍं। 

डॉ. राशि सिन्हा
नवादा, बिहार

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