क़िस्सा गुरु से लव गुरु होने का
कमलेश कंवल
काफ़्का का कायाकल्प भी हमारे डमरू के गुरु से लव गुरु होने के कायाकल्प के सामने तो पानी माँगने लगा था। रात जब डमरू सोया था तो गुरु था सुबह उठा तो लव गुरु हो गया था। आइए डमरू के श्री मुख से ही सुनते हैं उसका क़िस्सा गुरु से लव गुरु होने का।
लखटकिया सरकारी नौकरी आज के ज़माने में दिल्ली के मुग़लिया सल्तनत के तख़्त से कम नहीं होती है जिसको मैंने ठोकर मार के उड़ा दिया था एक झटके में। जब से मेरे महल्ले के लौंडे-लपाड़ों को मालूम पड़ा है कि मेरी सल्तनत मुहब्बत की आग में जल कर ही राख हुई है, तब से महल्ले के सारे के सारे लौंडे-लपाड़े मेरे चारों तरफ़ जीभ लपलपाते घूमने लगे थे। अब उन ठलुवों के लिए मैं मजनूँ का अब्बाजान जो बन गया था। सारे के सारे पट्ठे इसी उधेड़-बुन में लगे हुए थे कि कैसे न कैसे कर के मेरे बग़लगीर हो सकें। होड़ सी मची हुई थी महल्ले के सारे निठल्लों में उन दिनों। कुछ रस्ते में मिलते तो सीधे पाँवों में ही घुसते, कुछ बड़े एहतिराम से कोर्निश बजाते, तो कुछ तो इसी तिकड़म में भिड़े होते कि कैसे न कैसे मेरी मुट्ठी गर्म कर दें। एक ने तो हद्द ही कर दी। कहीं से उसने पता कर लिया था कि अपनी जवानी के दिनों में मुझ में क्रिकेट का कीड़ा था। तो फिर क्या था . . . रोज़ वक़्त बेवक़्त बॉल बल्ला लिए मेरे आगे पीछे सुबह शाम दे चक्कर पे चक्कर पे . . .। कुछ तो ऐसे भी थे जो मेरी सड़ी-गली कविताओं को भी ऐसे सुनते थे जैसे मीर या ग़ालिब को सुन रहे हों। मुझे तो उनपे तरस आने लगता था। अब क्या करूँ मेरा तो दिल ही ऐसा है। कुछ भी हो पर ये तो तय हो गया था कि महान घटिया शायर बनने के लिए अभी मुझे बहुत पापड़ बेलने पड़ेंगे।
ख़ैर ये तो तय था कि कि मैं शिक्षकों की नाग पंचमी पर पूजा जाने वाला बंदा अब वेलेंटाइन डे पे खोजा जाऊँँगा। गुरु से लव गुरु जो बन गया था। माशाअल्लाह! जहाँ से भी मैं गुज़रता अल्हड़ उमर के बच्चे कृष्ण-कृष्ण कहके चिढ़ाने लगे थे। ये सुन-सुन कर तो मेरा इस्कॉनी मन झूम-झूम जाता था। बैठे-बिठाए देवत्व की प्राप्ति जो हो गई थी। क्या मेनका क्या उर्वशी क्या जन्नत की बहत्तर हूर्रें, सब की सब अपनी किटी पार्टियों में मेरी रासलीला के क़िस्से चटखारे ले-ले कर सुनती-सुनाती थीं। मेरी लोक प्रियता को तो पंख लग गए थे। महल्ले के तमाम जंग खाए बुड्ढे, रंगबाज़, सत्संगी आँटियाँ, व्हाट्सएपिए अंकल, संस्कृति के नवजात संरक्षक, आकंठ मेरी लीलाओं की क़िस्सेबाज़ी में डूब गए थे। मेरी घरवाली तो ख़ुशी के मारे फूल के कुप्पा हो चली थी। घर-घर दफ़्तर-दफ़्तर जा-जा कर मेरी प्रशंसा के बताशे बाँटने में लगी हुई थी और बाहरवाली तो बस मौक़ा ताड़ के बैठी थी कि एक बार मैं उसके हत्थे चढ़ भर जाऊँ . . . गोया कि मैं एक असेट बन चुका था जो सबका जी-भर के जी बहला रहा था मगर सरकार के निखट्टू अफ़सरों को ये नहीं सूझा कि डमरू एंटरटेनमेंट टैक्स ही लगा दें और राजस्व के घाटे की कुछ भरपाई कर लें। अब लेते फिरेंगे क़र्ज़े पे क़र्ज़ा। सरकार का सरकार कौन। लेकिन महल्ले के लौंडे को तो हमारी मार्केट वैल्यू का भान था सो सभी लग गए तरह-तरह की जुगाड़मेंट में। बेचारे नोबल तो दिलवा नहीं सकते थे क्योंकि लव फब में वो मिलता नहीं है। सो ख़ुद ही योजना बना ली कि क्यों नहीं गुरुजी का सम्मान ही निपटा दिया जाए। सार्वजनिक सम्मान तो करना जूते खाने का काम था सो दबा-छिपा कर अवॉर्ड देने का बीड़ा भावी मजनुओं ने उठा लिया था। जेल में सुरंग बनाने की तर्ज़ पे सारी तैयारियाँ गुप-चुप चल रहीं थी कि किसी हरि राम नई ने हमारी घरवाली को छू कर दिया। फिर तो क्या था आगे-आगे लौंडे और पीछे-पीछे महल्ले की पूरी दुर्गा वाहिनी। हम तो मन ही मन मुस्कुरियाए जा रहे थे कि चले भाँड़ा पहले ही फूट गया बाद में फूटता तो लगे हाथों हम भी नप गए होते। कुल मिलाकर अपनी तो दशा ऐसी हो गई थी कि अब कुटे की तब कुटे। सो हम तो उन अध-घायलों से दूरी बनाके ही चलने में अपनी ख़ैरियत जान रहे थे। वैसे दिल में उस लौंडे की कुटाई का दुख बहुत था मगर क्या करते? हमारी चुटिया जो मेहरारू की चप्पल के नीचे दबी हुई थी। चुप रहने में ही भलाई थी। सो चुप रहे। आपको बता रहे हैं ताकि सनद रहे।