प्रियतम और भोजन

01-05-2022

प्रियतम और भोजन

प्रदीप्ति शर्मा (अंक: 204, मई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

पत्थर की पटिया साफ़ पड़ी है, 
बर्तन भी सारे धुल गए, 
भोजन का वक़्त हो गया, 
सबके आने का वक़्त हो गया, 
चलो तैयारी करलूँ—
“चार मुट्ठी चावल निकाल लूँ, 
और भिगाकर रख दो उन्हें, 
तब तक ज़रा खेत से, 
पालक के कुछ पत्ते तोड़ लूँ, 
इमामदस्ते में कूट लूँ ज़रा, 
खड़े मसाले सारे, 
लाल मिर्च थोड़ी ज़्यादा डाल देती हूँ, 
इन्हें तीखा जो पसंद है, 
लहसुन की दो डली काफ़ी है, 
अरे! अदरक तो बाज़ार से लाना भूल गई, 
चलो कोई बात नहीं, 
अदरक का अचार मर्तबान में रखा है, 
उसी को इस्तमाल करूँगी, 
पालक को धोकर काट लेती हूँ, 
हाँड़ी में चावल चढ़ा देती हूँ, 
तेल भी अब गरम हो गया, 
ज़ीरे लहसुन का तड़का लगा लूँ, 
पालक भी अब भुन कर पक गया, 
इनमें पके चावल मिला दूँ, 
ढँक के दम देती हूँ इन्हें, 
तब तक साड़ी की इन सिलवटों, 
और इन उलझी लटों को सुधार लूँ, 
आईने में देख लूँ ख़ुद को ज़रा, 
कुमकुम सुरमा फिर से लगा लूँ, 
एक हरी चूड़ी टूट गयी थी, 
उलझकर खेत के काँटों में, 
दूसरी चूड़ी पहन लेती हूँ। 
शिखर के मंदिर की आरती अब समाप्त हुई, 
फेरलीवाले भी अब वापस जाने लगे, 
लगता है इनके आने का वक़्त हो चुका। 
आँगन में बैठ जाती हूँ कुछ देर, 
जूड़ा अधूरा सा लग रहा है, 
जूही के इन फूलों का गजरा बना लूँ। 
पालक भात की ख़ुश्बू के साथ, 
गजरे की महक भी घर में फैला दूँ, 
ये दीया जो चौखट पे जल रहा है, 
तेल कम लग रहा है इसमें 
थोड़ा सा इसमें तेल डाल लूँ, 
उफ़! ये बिखरे पत्ते नीम के, 
इन्हें भी ज़रा साफ़ कर लूँ, 
आते ही होंगे ये, 
ज़रा आईने में ख़ुद को फिर से निहार लूँ, 
थाली लुटिया सब रख दी, 
मुखवास की डिबिया भी, 
बस इनकी राह देख़ रही हूँ, 
आज इतनी देर क्यूँ हो गई? 
बैठ जाती हूँ फिर से आँगन में, 
पूनम के चाँदनी में धुला ये आँगन, 
हल्की ठंडी पूरवा का ये स्पर्श, 
उफ़! कब आएँगे ये घर, 
आज इतनी देर क्यूँ हो गई? 

1 टिप्पणियाँ

  • 1 May, 2022 03:45 PM

    चित्रात्मक प्यारी सी कविता

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