प्रेम का सार्थक अर्थ

01-06-2022

प्रेम का सार्थक अर्थ

सुनीता गोंड (अंक: 206, जून प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“प्रेम” सरल सा शब्द, मात्र दो अक्षरों से बना यह शब्द। जिसमें सम्पूर्ण विश्व समाहित हो भी जाय, तब भी इस प्रेम का कोई न कोई हिस्सा बचा रहेगा। उसके लिए जो इस धरा पर फिर से अवतरित हो। इस प्रेम के तो कई रूप हैं। कभी प्रेम “प्रीत” बन जाता है तो कभी प्यार बन जाता है और कभी “इश्क़”। पर इस प्रेम का एक और स्वरूप है। जिन्हें हम पाश्चात्य भाषा में “लव” के नाम से सम्बोधित करते हैं। इस प्रेम के अनगिनत रूप हैं। पर मूल अर्थ तो प्रेम ही है; जो इच्छाओं पर कभी निर्भर नहीं होता। यह तो हमेशा से ही मुक्त एवं स्वतंत्र है। वैसे अगर विचार करें तो हम ये भी सोचेंगे कि इस प्रेम की उत्पत्ति कहाँ? कब? और कैसे हुई? कब ये प्रेम ऊपजा और कब सम्पूर्ण विश्व इसमें समाहित हो गया? हम आसान से शब्दों में यही कहेंगे कि प्रेम कृष्ण और राधा के संयोग से ही ऊपजा। जिन्होंने इस धरती पर अवतरित होकर इसे सार्थकता प्रदान की। तो क्या यह सत्य है? मेरे विचार में नहीं, क्योंकि प्रेम तो युग-युग से ही सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त था। राधा और कृष्ण ने तो उस प्रेम के सच्चे अर्थ को दर्शाया जो सिर्फ़ प्रेम था। कहीं भी कोई लोभ नहीं, कोई क्षोभ नहीं, कोई लालच नहीं। प्रेम तो बस देता है, विश्वास, सुख और अनुभूतियों की अथाह सम्पदा। प्रेम तो वह रूप है जिससे विरले लोग ही अछूते हों। प्रेम तो हर कोई सजीव, निर्जीव, और व्यर्थ चीज़ों से भी करता है। पर अब इस प्रेम का रूप कुछ बिगड़ता सा नज़र आ रहा है। प्रेम तो अपनी जगह स्थिर ही है। पर उसका अर्थ कुछ अवांछनीय सा हो गया है। देखा जाय तो इस काल-अवधि में प्रेम को लोग एक विपरीत दिशा की तरफ़ ले जा रहे हैं। ऐसे प्रेम का अर्थ है “सुख”, प्रेम का तो भाव ही है “सुख देना”। पर अब उस प्रेम में लोभ भी जुड़ गया है। अगर लोभ है तो साथ ही साथ लालच का भी रहना स्वाभाविक है। क्योंकि ये दोनों एक दूसरे के सहयोगी हैं। प्रेम तो हमेशा ही सुख देने वाला रहा। पर इस लोभ और लालच के समावेश ने इस प्रेम को भद्दा तथा कलुषित बना दिया है। अब यहाँ प्रेम का वही रूप सामने आता है जो कभी राधा और कृष्ण के संयोग में था। सुखदायक, निस्वार्थ, और मनमोहक। 

आधुनिक प्रेम का रूप कुछ अटपटा सा हो गया है। सच्चे अर्थों में शायद प्रेम को कोई समझ नहीं पा रहा। या समझने की कोशिश ही नहीं कर रहा है। प्रेम के मूल भाव का अर्थ तो निश्चित है पर उसके देखने का नज़रिया थोड़ा बदल गया है। मूल भाव का मतलब, माता-पिता का स्नेह तो निर्स्वार्थ ही है। पर उस बेटे के प्रेम ने उसे भार का रूप दे दिया है। 

और अगर हम आज के प्रेमी और प्रेमिका की बात करें, तो उसमें भी हमें लोभ और वासना ज़्यादा दिखेगी। आज के दृष्टिकोण से प्रेम कहाँ है? लोगों में उसे ढूँढ़ने की कोशिश की जा रही है। प्रेम चाहे उस प्रेमिका के शरीर में दिखे, चाहे बेटे को माता-पिता के उस धन में दिखे। या फिर उस प्राणी की बात करें, जब तक गाय हमें दूध देती है हमें उससे प्रेम है। और अगर गाय सदा के लिए दूध देना बंद कर दे तो उसके प्रति प्रेम भी सदा के लिए विलुप्त हो गया। इस छोटे से वाक्य का अर्थ बहुत विस्तृत है। और आज का प्यार तो प्रेमी ही नहीं प्रेमिका के लिए भी एक छलावा है। एक दिखावा है। प्रेम को कभी दिखाने या प्रदर्शित करने की ज़रूरत नहीं होती। 

प्रेम तो हर रूप में सुन्दर, अनन्त और चिरस्थायी है। 

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