प्रेम-धारा
कविताअसीम है, मेरा प्यार
शब्दों में
नहीं बाँधो।
मौन है,
पर मुखर है।
देखो,
सुनो,
समझो,
इस प्रेम के,
निर्झर को।
सदियों से,
कल-कल करता,
बह रहा है,
प्रेमियों के
अंतर्मन में।
बँध गया,
तो थम गया।
जो थम जाए,
वो प्रेम नहीं।
प्रेम तो बहती,
निर्मल धारा है।
युगों से प्रेमियों
के मन को
मदहोश करती
प्रेम मधु-धारा है।
मत बाँधो,
इसको शब्दों में।
बाँध कर शब्दों में
इसे कोई
आकार ना दो।
युगों से निराकार है,
इसे ऐसे ही,
उन्मुक्त बहने दो।
प्रेमियों के,
अतृप्त मन को,
प्रेम-रस से
सराबोर करने दो।
मत बाँधो इसको,
यूँ ही बहने दो।