पतंग
शैलेन्द्र कुमारहवा में इतराती, इठलाती,
रंग बिरंगी पतंगें,
उड़ चली हैं नभ में,
सभी को लुभाने,
अपना संदेश सुनाने।
पतंग का 'बचपन' से गहरा नाता है।
इनका एक अंदाज़ विशेष भाता है,
कि ये हवाओं के साथ नहीं बहती हैं।
बल्कि हवाओं का सामना कर
ऊँचाई तक पहुँचती हैं।
सजी-धजी पतंगें
नीले आकाश में अठखेलियाँ करती
तभी तक आज़ाद उड़ी हैं,
जब तक अनुशासन की डोर थामे
धरती से जुड़ी हैं।
पतंग को ऊँची उड़ान का अभिमान नहीं,
दूसरी पतंगें काटना, बचाना उसका काम नहीं।
वह उन 'सधे हुए हाथों' को समर्पित है,
इसी कारण उसका अंग-अंग हर्षित है।
चैन से सोना है,
तो पहले जागना होगा।
मुक्ति का आनंद लेना है,
तो ख़ुद को बाँधना होगा,
डोर सौंपनी होगी जुड़ने के लिए,
फिर खुला आकाश सामने है
. . . उड़ने के लिए।