बसंत
शैलेन्द्र कुमारअपने सभी सुख दुख स्वयं सहता हूँ,
दूसरों से कम ख़ुद से अधिक कहता हूँ।
यह कुछ छुपाने का भाव नहीं,
बस बेवजह गीत गाने का चाव नहीं।
सभी अपना जीवन जीते हैं,
अपनी मौत मरते हैं।
परन्तु अपने से अधिक दूसरे की परवाह
कितने लोग करते हैं?
सोचता हूँ कि मैंने कितने लोगों के साथ
ख़ुशियाँ मनाई हैं?
किन किन की पीड़ा मैंने
हृदय में बसाई है?
याद नहीं कितना समय हुआ
किसी के दुख से आँखें नम हुए।
दरअसल मेरी बाट जोहती थीं
बेहिसाब ख़ुशियाँ, अनेक क़िस्से अनछुए।
अफ़सोस कि मैं ही मतलबी सा हो गया था
अपनी ही उधेड़बुन में कहीं खो गया था।
और अनायास ही खो बैठा हूँ
ढेर सारा प्यार और विशुद्ध अपनापन
जो मेरे आस पास ही था,
मेरे अपनों के बीच,
मेरे ही लिए।
फिर क्यों सिमटा हुआ था अपने आप में?
किस पागलपन में,
किस सन्ताप में?
बस, अब और नहीं,
केवल ख़ुद पर ग़ौर नहीं।
बसंत ऋतु का आगमन मुझे सिखा रहा है,
प्रकृति का कण-कण
एक साथ मुस्कुरा रहा है।