नीम का पेड़

15-06-2016

नीम का पेड़

मिर्ज़ा हफ़ीज़

रमन्ना कि पत्नी का देहांत हो गया और वह इस दुनिया में नितांत अकेला रह गया तो नीम के उस पेड़ के साये में जाकर बैठने लगा। जब भरी दुनिया में उसका दुखड़ा सुनने वाला कोई न रहा तो वह अपना दुखड़ा नीम के उस पेड़ को ही सुनाया करता जिसे नीम का वह पेड़ बिना टोका-टाकी के चुप-चाप सुनता। जब इस ख़ुदगर्ज़ दुनिया में रमन्ना की बातों के लिये किसी के पास न समय रहा, न धैर्य तब बस नीम का वह पेड़ ही उसके सुख-दुख का एकमात्र साथी रह गया। रमन्ना जानता था पेड़-पौधों में भी जान होती है; अत: उसे पूरा यक़ीन था कि वह पेड़ उसकी बात को सुनता और समझता भी है। 

नीम के उस पेड़ से कुछ ही दूर एक चहारदीवारी में एक बड़ा सा लोहे का गेट लगा हुआ था। वह चहारदीवारी लड़कों के एक हॉस्टल की थी। इस हॉस्टल में बाहर से पढ़ने के लिये आने वाले लड़के रहा करते थे। हॉस्टल की दीवार के समानान्तर एक सड़क चली गई थी जो कुछ दूर जाने के बाद रमन्ना के घर के पास से हो कर गुज़रती थी। उस घर के अलावा रमन्ना के पास एक ऑटो रिक्शा था और यही उसकी जीविका का एकमात्र साधन था। 

रमन्ना जब ऑटो रिक्शा लेकर सवारी ढूँढ़ने निकलता तो वह इस पेड़ के पास से ही होकर गुज़रता। वह यहाँ पहुँच क र अपना ऑटो रोक देता फिर थोड़ी देर उस नीम के पेड़ के साये तले कुछ वक़्त गुज़ारता, उससे बातें करता तब अपनी रोज़ी की तलाश में निकलता। यदि शाम को जल्दी वापस आता तो फिर से कुछ देर उसके साये में वक़्त गुज़ारने के बाद हि घर जाता। 

धीरे-धीरे यह उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। 

एक दिन सवेरे काम पर जाते समय उसके मन में एक ख़्याल आया। उसने अपनी जेब से कल के बचे पैसे निकालकर उस पेड़ के चरणों में अर्पित कर दिये और अपनी रोज़ी की तलाश में निकल गया। उस दिन उसे भरपूर सवारियाँ मिलीं और चूँकि उसे सिर्फ़ गुज़ारे भर के पैसों की ज़रूरत होती वह उस दिन जल्दी लौट आया। वह जब नीम के पेड़ के नीचे आकर बैठा तो देखा, पैसे वहाँ नहीं थे। वह ख़ुश हो गया। उसे यक़ीन हो गया कि उसकी भेंट स्वीकार कर ली गई है। वह उस पेड़ से लिपट गया और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। जाते-जाते उसे विश्वास हो चुका था कि इसी कारण से कमाई में इतनी बरकत रही। 

फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा। वह नियमित रूप से अपनी कमाई के पैसे, अपना ख़र्च निकालने के बाद यहाँ चढ़ा जाता जो स्वीकार कर लिये जाते और वह सन्तुष्ट हो जाता। 

यह सिलसिला कई सालों तक यूँ ही चलता रहा। फिर एक दिन उसने देखा कि उसकी भेंट स्वीकार नहीं हुई। वह घबरा गया। फिर दूसरे दिन, तीसरे दिन, चौथे दिन किसी भी दिन नीम के पेड़ उसकी भेंट स्वीकार नहीं की। अब अनिष्ट की आशंकाओं ने उसे आ घेरा। 

एक दिन जब वह नीम के पेड़ के पास आकर रुका तो देखा कि कई लोग पेड़ के साये में बैठे ताश खेल रहे हैं। उसे देख वे लोग चिढ़ गये। उनमे से एक ने धमकी भरे स्वर में पूछा, “क्या है बे!”

“कुछ नहीं,” उसने सादगी से जवाब दिया। 

“फिर यहाँ क्या कर रहा है . . .” दूसरे ने कहा। “जा ऑटो चला बच्चे जा अपना धन्धा देख। ये जगह तेरे लिये नहीं है।” सुन कर उसे अजीब लगा, लेकिन तब तक एक और बोल उठा, “पुलिस का कुत्ता है क्या बे! चल-चल कट ले मुख़बिरी करेगा तो ज़िन्दा नहीं बचेगा समझा।”

इसके बाद उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वहाँ रुके। उसके बाद वह वहाँ से चल दिया। अब रोज़-रोज़ वहाँ जुआड़िओं का अड्डा जमने लगा। बरसों का सिलसिला यूँ ख़त्म हुआ। 

वक़्त बीतता रहा। हॉस्टल वीरान हो गया। उसका बड़ा सा लोहे का गेट रातों-रात चोरों ने काट कर पार लगा दिया। फिर हॉस्टल की चहारदीवारी को जगह-जगह से ढहा कर उसके ईंटें लोगों ने अपने झोंपड़ों में लगा लीं। हॉस्टाल की चहारदिवारी के बचे-खुचे अवशेष जुआरियों का अड्डा बन गये। हॉस्टल की वीरान इमारत चोरों और अपराधियों की पनाहगाह बन गई और इमारत की छत शराबियों का स्वर्ग साबित होने लगी। 

लेकिन समय कहाँ रुकता है? ज़ाहिर है; वह यहाँ भी नहीं रुकने वाला था। कालांतर में हॉस्टल की वह चहारदिवारी जिसे आज कल बॉउंड्रीवाल कहा जाने लगा था और जर्जर हो चली इमारत को भी ढहा दिया गया। पेड़ काट दिये गये। हाँ, नीम का वह पेड़ भी काटा जा चुका था। ज़मीन समतल कर दी गई। सड़क की दूसरी तरफ़ भी इसी तरह ज़मीन समतल कर दी गई। फिर सर्वे हुए, ज़मीन पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींची गई। बड़ी-बड़ी मशीनें आईं। जगह-जगह खुदाई हुई और पक्की इमारतों का जंगल उग आया। फिर वह इमारतें ऊँची और ऊँची उठती चली गईं। दरसल शहर यहाँ तक अपने पर फ़ैला चुका था। सड़क पहले से तीन-चार गुना चौड़ी और चिकनी हो गई थी। ख़ूब चौड़ा चौक भी बन चुका था। मॉल इमारतें और कॉलोनियाँ विकसित हो गई। हाँ! रमन्ना का घर अब जैसे ज़मीन में धँस गया था। सड़क अब इतनी ऊँची हो गई थी कि सड़क से उसके छत को छुआ जा सकता था और जब बरसात होती तो सड़क का पानी उसके घर में भर जाता। लेकिन रमन्ना को अब इस सब से कोई शिकायत नहीं थी।”ज़िन्दगी के दिन ही कितने बचे हैं” वह सोचता; बस जिस-तिस तरह से ज़िन्दगी गुज़र जाये। क्या करना है! 

रमन्ना के बालों में अब सफ़ेदी आ गई थी और आँखों पे चश्मा। अब ऑटो चलाने में भी दिक़्क़त होने लगी थी लेकिन उसके पास और कोई उपाय नहीं था। ज़िन्दगी के बचे दिन जिस-तिस तरह काटने ही थे। अगर किसी दुर्घटना में मर भी गया तो नीरस जीवन से छुटकारा ही मिलना है; और दूसरी बात कि अब उसे सवारी के लिये कहीं दूर जाने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। अब उसका जीवन एक छोटे से दायरे में सिमट आया था। ज़िन्दगी गुज़र रही थी . . . 

लेकिन ज़िन्दगी घटनाओं के बिना कहाँ गुज़रती है; भले वो दुर्घटना ही क्यों न हो। तो इस उम्र में उसके साथ एक दुर्घटना हो ही गई। एक दिन जैसे ही वह सवारी को उतार कर अपना ऑटो सड़क पर लाया, उल्टी दिशा से आती एक तेज़ रफ़्तार कार उसे ठोकर मारती हुई गुज़र गई। वह अपने ऑटो सहित कई फ़ीट ऊपर उछला फिर उसने अपने आप को किसी हॉस्पिटल के बिस्तर पर पाया। उसे पता नहीं इस बीच कितने दिन गुज़र चुके थे। 

धीरे-धीरे उसे इतना ही पता चला कि वह किसी बड़े और महँगे हॉस्पिटल में है और इससे पहले वह किसी सरकारी हॉस्पिटल में था जहाँ उसका इलाज होना असम्भव था। उसे यहाँ कोई डॉक्टर विशाल यहाँ लेकर आये, ख़ुद उसका इलाज किया और हॉस्पिटल का सारा ख़र्च भी ख़ुद उठाते रहे हैं। 

ये डॉक्टर विशाल कौन है? उसने बहुत याद करने की कोशिश की। लेकिन वह ऐसे किसी डॉक्टर को नहीं जानता है, फिर उसने क्यों मेरा इलाज किया और क्यों लाखों रुपये ख़र्च किये। दुनिया में मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है और न ऐसा कोई दोस्त यार जो मुझ पर इतना लुटाये। फिर यह डॉक्टर कहाँ से आ गया? उसे डॉक्टर विशाल से मिलने ज़्यादा इन्तेज़ार नहीं करना पड़ा। अगले दिन डाक्टार विशाल उसके सामने खड़े थे . . . 

“तो? होश आ गया?” डक्टर विशाल ने चौड़ी मुस्कान के साथ पूछा। ऐसी मुस्कान जो कोई अपना ही दे सकता है। 

गोरा रंग, मध्यम ऊँचा सा क़द। चुस्त शरीर न मोटा न दुबला। सिर के सामने और ऊपर के बाल ग़ायब। आँखों पर चश्मा और सफ़ाचट चेहरे पर ग़ज़ब की चमक।”नहीं मैंने उसे कभी नहीं देखा। मेरा इससे कोई वास्ता नहीं। आख़िर यह है कौन?” रमन्ना उसे हैरानी से देखते हुए सोचता रहा। 

“आप ने क्यों मेरा इलाज किया और क्यों मुझ पर इतना ख़र्च किया?” रमन्ना ने सीधा प्रश्न किया। डॉक्टर ने उसके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। या शायद उत्तर देने की ज़रूरत नहीं समझी। चुपचाप उसका मुआयना करता रहा। 

“मैं तो आपको पहचानता तक नहीं,” रमन्ना ने व्याकुलता से कहा। 

“आप अभी तक ऑटो चलाते हैं?” डाक्टार विशाल ने पूछा। 

“हाँ,” उसने कहा। 

“इस उम्र में यह आपके लिये ठीक नहीं।”

“मुझे और कोई काम नहीं आता। फिर ज़िन्दगी तो चलानी है।”

“अभी भी वहीं बैठते हैं . . .? रोज़ . . .?” 

“कहाँ?” रमन्ना ने आश्चर्य और सन्देह मिश्रित नज़रों से डॉक्टर विशाल की ओर देखा। 

“उसी नीम के पेड़ के नीचे।”

“आ . . . आप को कैसे पता?” रमन्ना हत्प्रभ सा रह गया। 

“आप अभी आराम कीजिये। ज़्यादा स्ट्रेस आपके लिये ठीक नहीं,” डॉक्टर ने कहा। “अभी तो आपको यहाँ और रुकना है।”

“लेकिन मैं पैसे नहीं देने वाला . . . मेरे पास पैसे नहीं हैं,” रमन्ना ने चेतावनी दी जिसके जवाब में डॉक्टर विशाल मुस्कुरा कर रह गये। उन्होंने नर्स को कुछ हिदायतें दी और चले गये। 

कई दिन डॉक्टर विशाल आये नहीं। पूछने पर पता चला वे बहुत बड़े डॉक्टर हैं, अलग-अलग शहरों के हॉस्पिटलों में मरीज़ देखने जाते रहते हैं। इस लिये रमन्ना की भी उनसे ज़्यादा मुलाक़ात नहीं हो पाती थी। एक दिन डॉक्टर विशाल ने उससे कहा, “अब तुम बिल्कुल ठीक हो गये हो। घर जाकर कुछ दिन आराम करना फिर ऑटो चला सकते हो।”

“मैं इलाज के पैसे नहीं दे सकता . . .” रमन्ना ने हॉस्पिटल से छुट्टी होने पर उसने फिर डॉक्टर विशाल से कहा। 

“आप से कोई पैसे नहीं माँगेगा,” उन्होंने तसल्ली दी और अपने ड्राइवर से कहा, “घर तक पहुँचा के आना।”

फिर उन्होंने अपना कार्ड रमन्ना के हाथ में थमाते हुए कहा, “कभी तकलीफ़ हो तो मुझे फोन करना।”

रमन्ना कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। वह बहुत कुछ पूछना चाहता था और जान गया था कि डॉक्टर विशाल की भी कुछ ऐसी ही कैफ़ियत है। आख़िर चुप्पी डॉक्टर ने ही तोड़ी, “वह नीम का पेड़ कैसा है? अभी तो वह और बड़ा, और हरा-भरा हो गया होगा।”

“आप कैसे जानते हैं नीम के पेड़ को?” 

“वही तो हमारे रिश्ते की बुनियाद है . . .” डॉक्टर विशाल ने कहना शुरू किया। “मैं जब पढ़ाई कर रहा था तो उसी हॉस्टल में रहता था। मैं बहुत ग़रीब घर का लड़का था। मेरे पिता मेरी पढ़ाई का ख़र्च पूरा नहीं कर पा रहे थे। मुझे ट्युशन और दूसरे काम करके अपनी पढ़ाई जारी रखनी पड़ती तब भी मेरी बड़ी मुश्किल हो रही थी। उन दिनों नीम का वह पेड़ ही मेरा दुख-सुख का साथी हुआ करता। मैं अक़्सर देर तक उस पेड़ से अपनी पीड़ा बयान किया करता। और मुझे लगता वह मेरी बात समझता है। एक बार पैसों का इन्तेज़ाम नहीं होने के कारण मैंने पढ़ाई छोड़ कर जाने का फ़ैसला कर लिया। उस दिन मैं उस पेड़ से लिपट कर बहुत रोया। मुझे लग रहा था उस पेड़ को भी मेरे जाने का बहुत दुख है। तभी मैंने नीचे देखा उस पेड़ के नीचे कुछ पैसे पड़े हैं। मैंने समझा वह पेड़ मुझसे मदद का वादा कर रहा है। मैंने पढ़ाई छोड़ने का इरादा त्याग दिया। उसके बाद दूसरे दिन, तीसरे दिन रोज़ वह पेड़ मुझे कुछ न कुछ पैसे देता रहा। जब तक मैं वहाँ रहा यह सिलसिला बराबर चलता रहा। और आज मैं जो कुछ हूँ नीम के उस पेड़ की बदौलत ही हूँ। वह पेड़ मेरे लिये बड़े भाई जैसा था। मैंने आप को भी वहीं कई बार उससे लिपट कर रोते देखा था। मुझे तो अपने पेशे की वजह से फिर कभी वहाँ जाने का मौक़ा ही नहीं मिला। लेकिन आप तो वहीं रहते हैं आप उससे मिलें तो उसे बतायें मैं उसे कभी भूल नहीं सकता। और मैं किसी न किसी दिन उससे मिलने ज़रूर आऊँगा।”

रमन्ना उसे हैरानी से देख रहा था फिर धीरे से पूछा, “आप सच में फिर कभी उससे नहीं मिले?” 

“नहीं,” डॉक्टर ने कहा, “लेकिन तुम उससे कहना ज़रूर मैं उसे याद करता हूँ। और किसी न किसी दिन ज़रूर मिलने आऊँगा।”

“ठीक है; कह दूँगा,” कुछ सोचते हुए रमन्ना ने कहा और झटके से मुड़ कर चल दिया। 

डॉक्टर विशाल ने चैन की साँस ली, उनका नीम का पेड़ स्वस्थ होकर हॉस्पिटल से जा रहा है। 

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